15-समकालीन साहित्य: सही दिशा की तलाश
मुल प्रश्न है, साहित्य क्या है ? आजकल के साहित्यकार दो तरह का लेखन करते हैं। एक वह जो आसानी से पाठक तक पहुंचता है ओर पाठक उसे पढ़ता भी है। दूसरा लेखक वह केवल अभिजात्य वर्ग के लिये लिखा जाता है। इस दूसरे साहित्य के लेखक यह मानते हैं कि अगर इनकी कोई रचना किसी सामान्य पाठक की समझ में आ गयी तो उन्हेांने कुछ घटिया लिख दिया है और तत्काल वे अपना लेखन ‘सुधारने ’ में लग जाते हैं।
एक और प्रश्न! क्या अखबारों का पेट भरने के लिये लिखा जाने वाला लेख नही साहित्य है ?
आज का लेखन जोखिम भी है और जोखिमका लेखन करने वाले भी। व्यवस्था में रह कर व्यवस्था के विराध में नारे लगाने वाले भी- लगभग हर लेखक यही करता है कि साहित्य में गतिरोध है लेकिन यह गतिरोध या अवरोध या आक्रोश क्यों है ? क्या यह सही दिशा में निर्दिश्ट है? क्या देश का जनमानस साहित्यिक गतिरोध को समझता है और उस बारे में सोचता है?
मेरा ख्याल है आम भारतीय आदमी इस ‘बहुचर्चित साहित्यिक गतिरोध से अनभिज्ञ है और अगर मेरी बात सही है तो इसका कारण क्या है?
कविता की ही बात लीजिए। आज देश में कितने ऐसे पाठक हैं जो कविता को पढ़ते हैं? अज्ञेय, मुक्तिबोध व निराला के बाद की कविता के बारे में लोग क्या सोचते हैं?एक प्रतिश्ठित पत्रिका में एक प्रतिश्ठित लेखक की कविता छपती है और सामान्य पाठक उसी सादगी से उस पृश्ठ को बदल देता है जैसे वह कोइ्र विज्ञापन का पृश्ठ हो।
श्री रामदरश मिश्र लिखते हैं-
आदमी के पास थेड़ा दिमाग हो तो
वह जो कुछ चाहे पा सकता है।
श्री कैलाश वाजपेयी की पंक्ति हैं-
कोई उलटता नहीं सरकारें
राजनीति खुद आत्मघात करती है।
श्री रमानाथ अवस्थी का कहना हैं-
आओ अब सामान सम्भालें,
देर हुई यह शहर पराया।
मैंने उपर कुछ प्रबुद्ध कवियों की नवीनतम रचनाओं के अंश दिये है। इन्हें देखकर लगता है साहित्य में एक घुटन है। लेकिन इसका कारण क्या हैं? लेखक वाम पंथी हो सकता है, लेकिन लेखन को राजनीतिक दलों के सामीप्य की आवश्यकता है। यह सोचना गलत है। लेखन राजनीति से प्रभावित हो या राजनीति लेखक से, लेकिन ‘नारों का देश’ में वामपंथी दल साहित्यकार या साहित्य को दिशा दे सकेंगे, ऐसा सोचना अनुचित होगा।
यह कहना की उत्पादन व सृजन में अन्तर पाटा जा रहा है, सत्य है। आज हिन्दी में पत्र-पत्रिकाओं, व्यावसायिक प्रकाशकों की एक बाढ़-सी आ गई है और इस बाढ़ में लेखक के स्तर की ओर ध्यान नहीं जा पा रहा है।
जरूरत तो इसकी है कि देश में जो लिखा जाय, वह उच्च स्तर का हो ओर इसमें जो अच्छा हो उसे प्रकाशित किया जाय। अपव्यय को रोका जाना चाहिए।
अखबारों का पेट भरने के लिए लिखा जाने वाला साहित्य निस्सन्देह क्षणिक प्रभाव का होगा और स्थायी या ठोस लेखक इससे अवरूद्ध होगा। वास्तव में औसत साहित्यकार का सृजनकाल अल्प होता है और इसी अल्पकाल में अगर साहित्यकार कोई आन्दोलन छेड़ता है तो वह इस आन्दोलन के भंवर में फंस कर अपने अन्दर के साहित्यकार की या तो हत्या कर देता है या फिर इसका लेखक स्वयं आत्महत्या कर लेता हैं। यहीं पर साहित्यकार को दिशा और स्पप्ट निर्देशन की आवश्यकता है।
समकालीन साहित्य की लगभग सभी विधायें इस समय कमोवेश एक ऐसे मोड़ पर खड़ी हैं, जहां पर उन्हें दिशा की आवश्यकता है। पता नहीं, कब सवेरा होगा ?
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