कहानी
पाँचवीं बेटी
"आप एक बार फिर सोच लेते भाभीसा," दया ने आंगन में लगे झूले पर बैठते हुए कहा।
"इसमें सोचणा के है दया, जो एक बार तय कर लेव थारा भभीसा तो फेर पाछे पाँव ना धरै....पूरी जिन्दगी बीत गई , तूं अब तक समझा ही ना....मनै...." रेवती ने शांति से कहा।
"जाणु हूँ थान,थारी छाती न और धणो लखदाद भी देवूं हूँ ।पण फेर भी आ बात तो बिल्कुल ही अलग है भाभीसा," दया बालों को धीरे - धीरे सहलाता हुआ बोला।
"तूं फिकर ना कर दया, माताराणी सब ठीक करगी। तूं बस....कागज- पतर बनवा दे, बाकी सब मैं संभाल लुँगी" कहते हुए रेवती उठ खङ़ी हुई।
"ठीक है भाभीसा, अब चलता हूँ"।
"अरे नहीं , कलेवा करके जाना। ले जीवन कलेवा ले भी आया" कहते हुए वो फिर बैठ गई।
दया कलेवा करने बैठ गया ।
"वाह भाभीसा, अरसे बाद खा रहा हूँ ऐसा गोंद का लड्डू, मजा आ गया , इन लड्डुओं ने तो आज तो माँ की याद दिला दी"।
"चल - चल रहने दे ...."कहते हुए रेवती ने चाय का कप दया की ओर बढाया और खुद भी चाय सुङ़कने लगी।
"अच्छा अब चलता हूँ भाभीसा, " कहते हुए दया उठ खङ़ा हुआ।
"शादी के पंद्रह ही दिन हैं। बहुत काम है , परिवार सहित चार दिन पहले ही हाजरी लगानी है तुझे," रेवती ने जोर देकर कहा।
"बिल्कुल . ...आ जाऊँगा, " कहते हुए दाया ने गाड़ी की चाबी उठा ली।
अभी चार बजे है और तीन घंटे गाँव पहँचने में, यानि रात होने लगेगी गाँव पहूँचते - पहूँचते दाया ने घङ़ी देखते हुए सोचा और एक्सीलेटर पर पाँव धर दिया। कुछ ही मिनटों में गाङ़ी हाइवे पर हवा से बातें कर रही थी और दया का मन स्मृतियों से ।
तब राजा बाबू रेवती को ब्याह कर लाए थे । लाला- हरी चुङियों से भरी खनकती कलाई, सूर्ख होठ, कालज से भरी उनींदा सी आँखें , थोङ़े आगे को निकले दाँत जो बात- बेबात खिलखिलाते रहते थे, लाल जोङ़े में लिपटा यह गौरा बदन गाँव में सबसे सुन्दर था ....। था या नहीं पर अम्मा तो यही कहती थी "अरे हमारे राजाबाबू के बङ़े - बङ़े घरवाले आगे - पीछे डोल रहे थे पर तेरी करमजली सुन्दरता ले डूबी हमें। कहने लगा ब्याह करेगा तो इसी से सो हम भी क्या करते , ब्याह लाए बिना दान दहेज के तुझ जैसी गरीब छोकरी को" । उन दिनों दाया को यह समझ कहाँ थी कि अम्मा प्रशंसा कर रही है रेवती की या फिर कटाक्ष ।
राजा बाबू और दया के बीच छह साल का अंतर था । दया को मतलब था तो बस इतना कि भाभीसा उसकी सब बातें सुने , उसके साथ खेले और भैया की लाई रात की बची हुई मिठाई इस कसम के साथ उसकी हथेली पर घर दे कि दया किसी को नहीं बताएगा।
बस बचपन में भाभीसा के साथ जो दोस्ती हुई वही आज तक कायम है ।
दाया की आँखें एक बार फिर बीते बरसों को सहेजने लगी।
भाभीसा और राजाबाबू का प्यार रंग लाया और एक कन्या का जन्म हुआ नाम रखा था - देवकन्या। फिर तो एक के बाद एक रामकन्या, कृष्णकन्या , का जन्म हुआ । बस नहीं आया तो कन्हैया ...जिसका इतजार अम्मा सहित पूरे खानदान को था।
अम्मा हर बार पूजा पाठ रखवाती , ताबीज बनवाती और भी जाने कितने कार्यक्रम होते कन्हैया के लिए पर कन्हैया को नहीं आना था सो लाख मनुहार के बाद भी नहीं आया ।
भैया उदास रहने लगे थे।अम्मा के तीखे व्यंग्य बाण सुन - सुनकर भाभीसा का गौरा बदन अब काला पङ़ने लगा था , खिलखिलाहट अब उदासी में बदल गई थी, न चुङियाँ खनखनाती थी न पायल छमछमाती थी ।घर की खमोशी में बेटियों की किलकारियां गूँजती पर भाभीसा को छोङ़कर सब बहरे हो गये थे ।इस बीच दया का भी ब्याह हो गया ।पार्वती के रूप में अम्मा की पसंद घर आ गई थी वो भी मोटे दान - दहेज के साथ...।
राजा बाबू आजकल शहर में अपना करोबार बढा रहे थे।कपङ़े की बङ़ी मील लगाई तो करोड़ों की कमाई चालू हो गई थी। सप्ताह चार दिन शहर और तीन दिन गाँव में बीत रहे थे उनके ।
उसे याद है उन दिनों रेवती और पार्वती दोनों पेट से थी ।अम्मा राजा बाबू को समझा रही थी - देख बेटा, तीन छोरियाँ है तने, इबके छोरो ही होणों चाइज ...जा डाक्टर बाबू स बात कर, कोई रास्तों निकाल लेवगा बे...।
अम्मा ये मेर स ना होवेगा, तङ़फ कर कहा राजा बाबू ने ।
तो के छोरियों से ही घर भर लेवेगा...अम्मा गुस्से से बोली ।
तभी भाभीसा वहाँ चाय लेकर पहूँची तो अम्मा का गुस्सा सातवें आसमान पर पहूँच गया।कहने लगी - अरे करमजली, कुछ तो शर्म कर तीन - तीन छोरियां जणकर बैठी है ।अब तो घर का चिराग पैदा कर , मेरे राजा को कहीं मूँह दिखाने के लायक छोङ़...इस बार अगर लङ़की पैदा कि तो मुझसे बुरा कोई न होवेगो , कहते हुए वो चाय की ट्रै पर झपटी , भाभीसा के हाथ ट्रै फिसली और सीघे अम्मा की साङ़ी पर ...।
मार डाला रे कुलक्षिणी ने....कहते हुए अम्मा का हाथ थप्पड़ रसीद करने ही वाला था कि भाभीसा ने अम्मा की कलाई पकड़ ली ।खबरदार.... जो मुझ पर हाथ उठाया , आज तक थांरी हर बात नजर नीचे रखकर स्वीकार करती आई हूँ पर उसे मेरी कमजोरी समझने की भूल मत ना करिज्यो।छोरियों पैदा करण रा ताना सुण - सुण क बहरी होगी मैं । अब ओर नहीं ....साफ - साफ सुणलो अम्मा , छोरा - छोरी पैदा करणो लुगाई क हाथ म नहीं, मर्द क हाथ म होव ....।पूछ लेणा नर्स मैडम न ....वो बतावे थी मने , एक्स...वाई के बार म ....पूछना अपने डाक्टर बाबू से...बङ़ी साठ - गांठ है ना थारी तो....भाभीसा जो एक बार बोलने लगी तो रूकी ही नहीं ...।
पार्वती , दया , तीनों छोरियाँ बारचे में हक्के - बक्के खङे थे।
अबे चुप कर हरामखोर....कहते हुए हमेशा शांत और चुप , सिर्फ अपने काम से मतलब रखने वाले भाइसा राजा बाबू गुस्से से तमतमाते उठ खङ़े हुए।
बहुत चुप रह ली राजा बाबू ....।कभी आपके खातिर , कभी अपनी छोरियों के खातिर .....पर अब ओर नहीं...अब लङ़का हो या लङ़की....अबकी बार नसबन्दी को ओपरेशन होकर रेवगो ....भाभीसा ने सपाट स्वर में घोषणा की और तीर की तरह निकल गई वहाँ से ।
अगले कई दिनों तक उलझी डोरी में फसी हुई पंतग सी छटपटाती रही अम्मा...।
दिन बीते ....भाभीसा ने फिर लङकी को जन्म दिया।अम्मा के तन - बदन में आग लग गई ....लगे भी क्यों न कोढ में खाज जो हो गई थी।
इधर भाभीसा ने भी कसम खा ली वो इस लङ़की जिसका नाम उन्होंने सुकन्या रखा था को लेकर घर नहीं जाएगी।अब बस उन्हें शहर रहने जाना था राजाबाबू के साथ....।
आखिर धीर- गंभीर राजा बाबू भाभीसा और अपनी चार बेटियों देवकन्या, रामकन्या , कृष्णकन्या, और सुकन्या के के साथ शहर चले गये ।संपत्ति से बेदखल करने और मर जाने की अम्मा की धमकियां पहली बार हम सबने फेल होते देखी थी।
पार्वती ने लगातार दो बेटों को जन्म दिया और अम्मा की चहेती बन बैठी।
राजाबाबू अपना करोबार लगातार बढा रहे थे ।घीरे- घीरे उनका गाँव आना- जाना छुटता गया। साल दो साल में एक बार परिवार सहित चक्कर लगा जाते थे। चारों लङ़कियों को भाभीसा ने अच्छी स्कूल में भेजा ,पढाई में भी वे अच्छी निकली। भाभीसा ने नसबन्दी करवा ली थी सो अब लङ़की और लङ़का पैदा करने का अम्मा पुराण भी बंद हो चला था। बीच - बीच में जब भी अम्मा बीमार हुई शहर में भाभीसा ने सिर्फ डाक्टरों को ही नहीं दिखाया ,मन से सेवा भी की अम्मा की ।
इसे उम्र का तकाजा कहें या वक्त की माँग अब भाभीसा और अम्मा के बीच चलने वाला शीत युद्ध भी बंद हो गया था। एम कॉम करने के बाद देवकन्या की शादी राजा बाबू ने ऐसी धूमधाम से की कि देखने वाले देखते रह गये।
अब राजा बाबू के पास पैसा, पद, प्रतिष्ठा और पहुंच वो सब कुछ था , जिसका आम आदमी सिर्फ सपना देखता है। बस नहीं था तो वो था स्वास्थ्य...। सुगर , केलस्ट्रोल, हाई वी पी के मरीज हो चले थे वो। किस गम में घुलते जा रहे थे वे कोई नहीं जान पाया और एक दिन हार्टअटैक ने उन्हें संभलने का मौका ही नहीं दिया। वे भाभीसा को सारी जिम्मेदारियों का बोझ देकर इस दुनिया से कूच कर गये।
भाभीसा तो जैसे काठ की हो गई थी।उन्हीं दिनों अम्मा ने उन्हें गाँव चलने को कहा । उन्होंने प्रतिक्रिया नहीं दी पर जब दया ने करोबार समेटने की बात की तो फूट - फूट कर रो पङ़ी वो। जमा हुआ दर्द पानी बनकर बह गया ।
साफ मना कर दिया उन्होंने , गाँव जाने से ।लङ़कियों की पढाई के साथ - साथ अब करोबार भी संभालने लगी थी वो। भाभीसा के भीतर एक मजबूत, जिम्मेदार औरत छुपी थी। जिसने न सिर्फ बेटियों को संभला बल्कि धीरे-धीरे राजा बाबू का कारोबार भी मजबूती से थाम लिया ।
इन्हीं दिनों बेटियों के साथ मिलकर उन्होंने अग्रेंजी बोलना, कम्प्यूटर का ज्ञान , गाड़ी चलाना सबमें महारत हासिल की। ऐसा दबदबा बनाया कि भाभीसा के सामने किसी की बोलने की हिम्मत नहीं हुई ।
एक- एक कर बेटियों को ससुराल भेजती भाभीसा की अब चौथी बेटी की शादी है ।कहने को तो दमाद,नाती ,नातिन से भरा - पूरा परिवार है उनका। पर बेटियाँ तो बेटियाँ हैं,अब मेहमान बनकर आती है और चार दिन रहकर चली जाती है। अब चौथी बेटी सुकन्या की शादी के बाद घर बिल्कुल खाली हो जाएगा।
सभी चिन्तित हैं इसे लेकर। बङ़ा दामाद साथ रहने और करोबार संभालने आना चाहता है । कृष्णकन्या अपने बेटे को माँ के पास छोङ़कर जाना चाहती है। स्वयं दया भी तो पार्वती के कहने पर अपने छोटे बेटे को गोद लेने का प्रस्ताव लेकर ही तो आया था।
सोचते- सोचते थक गया था दया। सामने ही ढाबा दिखाई दिया तो गाङ़ी को साइड पर लगाकर चाय का आर्डर देकर वहीं पङ़ी चारपाई पर लेट गया।
आज सुबह जब वह पहूँचा तो भाभीसा ने बङ़े मनोयोग से स्वागत किया दया का। कहने लगी- "आओ दया, बङ़े सही समय पर आये हो , मैं तुम्हें बुलाने ही वाली थी" ।
"अच्छा ...कोई खास काम ..., " दाया को मन की मुराद मिलने का शुभ संकेत दिखाई दिया।
"तुम तो जानते हो अब सुकन्या की शादी के बाद मैं सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाऊँगी"।
"सो तो है ...." दया ने सहमति जताई।
घर भी एकदम खाली हो जाएगा ।जब तक बेटियाँ थी घर भरा - भरा था।ठीक कहती थी अम्मा " बेटी की माँ राणी ,बुढापे भरे पाणी " भाभीसा ने बेबस निःश्वास छोङी।
"ठीक बात है भाभीसा, समय को कौन रोक सकता है। देखो ना, कल की सी बात लागै है मनै , जब देवकन्या, रामकन्या, कृष्णकन्या और सुकन्या मेरे कांधों पर चढ जाती थी और आज ....कोई बङ़ी अधिकारी है तो कोई प्रोफेसर ...।आपकी परवरिश ,आपके संस्कार और आपकी समझ ,गुणों का भंडार है चारों । आज राजा बाबू और अम्मा दोनों नहीं है ।होते तो देखते. कि छोरियाँ कैसे नाम रौशन करती है खानदान का," कहते हुए दया ने गर्व से अपने माथे को सहलाया।
"सो तो ठीक है दया, वैसे राजा बाबू को भले ही छोरा न होने का गम सालता रहा हो पर उन्होंने छोरियों के लिए कभी कोई कमी नहीं रखी, " कहते हुए भाभीसा की आँखों में नमी उतर आई थी।
"हूँ...,पर अब आगे क्या सोचा है आपने ।छोरियाँ सब अपने - अपने घरों मे खुश है ।अब आपको अपने बारे में भी सोचना चाहिए"। दया पार्वती के कहे अनुसार अपनी बात कहने के लिए भूमिका बांधने लगा।
"सोचणा कै है दया ,अब तो बस करना है ।बस इसीलिए तुझे याद कर रही थी"।
"अच्छा... हुक्म करो भाभीसा, आप जै कहो तै....मैं हमेशा हाजिर हूँ थांरी हाजरी म..." दया को लगा लोहा गर्म है बस चोट करने की देर है।
"हाँ दया,चार बेटियों का पालते- पोसते इनकी ऐसी आदत सी हो गई है कि अब बेटी बिना नहीं रह सकती"।
"मतलब...." दया असंमजस से बोला।
"मतलब अब पाँचवी बेटी गोद लेने का सोचा है मैनें ....। सोचा क्या है ,करना ही है। वो गाँव की विधवा संतोषी भुआ को तो जानते हो ना ....कई सालों से उसकी बेटी आरती की पढाई का खर्च उठा रही हूँ। अबके हायर सेकैनडरी की परिक्षा दी है। अब उसे गोद लूँगी। उसकी पढाई और शादी सारी जिम्मेदारी मेरी...." कहते हुए रेवती ने अपने आँचल में गांठ लगाई।
"क्या कह रहे हो आप....," दया का मूँह खुल्ला का खुल्ला रह गया। पार्वती के सपनों पर पानी फिर गया जान पङ़ा उसे।
"ठीक कह रही हूँ। मेरी संपत्ति के कई देवेदार मुझे साफ - साफ दिखाई दे रहे हैं पर मैं किसी को रिश्ते नहीं भुनाने दूँगी"।
"पर किसी अनजान को गोद लेकर तो आप अपने पाँव पर ही कुल्हाड़ी मार रहे हैं। इससे आपके अपने आपसे दूर ही हो जाएंगे ना...." दया ने तीर छोङ़ा।
"नहीं....जिसे मैं गोद ले रही हूँ उसकी शादी के बाद फिर एक कन्या गोद लूँगी यानि ये सिलसिला तब तक चलेगा जब तक मेरी सांस ....।समाज में लङ़कियों की स्थिति बेहतर हो इसमें एक समिधा मेरी भी ," रेवती ने मुस्कुराकर कहा। उसके चेहरे का तेज , आँखों में आत्मविश्वास और बोली में सागर सी गहराई महसूस की दया ने।
दया को मानो सांप सूंध गया था । कुछ नहीं बोल पाया वो।
"क्या हुआ दया, मैनें तो अपनी वसीयत भी बना ली" भाभीसा ने कहा।
"बेटियों और दामादों से तो पूछ लिया ना आपने...." दया ने हकलाते हुए कहा।
"तने कै लागै है दया ,मेरे संस्कार क्या इतने कमजोर हैं कि मेरा परिवार मेरा साथ ना देवेगा ...। मुझे अपनी बेटियों पर भरोसा है ।चौथी की विदाई के समय ही पांचवीं की घोषणा करूँगी....।
जब बेटियों को जणने से पहले अम्मा को , नसबन्दी करवाने से पहले राजा बाबू को और बिजनेस में हाथ डालने से पहले किसी को नहीं पूछा तो इब क्या पूछना स दया ।जो करना है खुद करणा है , अपने दम पर करना है। तो फिर पूछने का मतलब....।ये बैसाखियाँ तो कब से तोड़ चुकी थांरी भाभीसा ...."।
दया कुछ नहीं बोला बस थूक निगलता रहा।
"शादी में आते समय संतोषी भुआ और आरती को साथ लाने की जिम्मेदारी थांरी और हाँ ये कागज भी ले जाना। दस्तखत करवा लेना दोनों के। निशान लगा रखे है वकील साहब ने" कहते हुए कुछ कागज दया की ओर बढा दिए रेवती ने ।
दया को काटो तो खून नहीं पर प्रत्यक्ष में उसने कागजात लेकर समय से सब काम करके शादी में आने का वादा किया था।
"साहब आपकी चाय कब की ठंडी हो गई" ढाबे वाला लङ़का उसे जगा रहा था ।
दया हङबङाकर उठ बैठा। देखा रात हो रही थी पर द्वितीया चाँद बादलों को चीर कर अपना मन्द - मन्द प्रकाश फैला रहा था जो आने वाले दिनों में निरन्तर बढेगा, ठीक उसके भाभीसा की तरह...।
चाय पीते हुए दया अपने लालच को कफन पहनाकर भाभीसा की पाँचवी बेटी के बारे में सोच रहा था।
डॉ पूनम गुजरानी
सूरत
कहानी
.पाँचवीं बेटी
"आप एक बार फिर सोच लेते भाभीसा," दया ने आंगन में लगे झूले पर बैठते हुए कहा।
"इसमें सोचणा के है दया, जो एक बार तय कर लेव थारा भभीसा तो फेर पाछे पाँव ना धरै....पूरी जिन्दगी बीत गई , तूं अब तक समझा ही ना....मनै...." रेवती ने शांति से कहा।
"जाणु हूँ थान,थारी छाती न और धणो लखदाद भी देवूं हूँ ।पण फेर भी आ बात तो बिल्कुल ही अलग है भाभीसा," दया बालों को धीरे - धीरे सहलाता हुआ बोला।
"तूं फिकर ना कर दया, माताराणी सब ठीक करगी। तूं बस....कागज- पतर बनवा दे, बाकी सब मैं संभाल लुँगी" कहते हुए रेवती उठ खङ़ी हुई।
"ठीक है भाभीसा, अब चलता हूँ"।
"अरे नहीं , कलेवा करके जाना। ले जीवन कलेवा ले भी आया" कहते हुए वो फिर बैठ गई।
दया कलेवा करने बैठ गया ।
"वाह भाभीसा, अरसे बाद खा रहा हूँ ऐसा गोंद का लड्डू, मजा आ गया , इन लड्डुओं ने तो आज तो माँ की याद दिला दी"।
"चल - चल रहने दे ...."कहते हुए रेवती ने चाय का कप दया की ओर बढाया और खुद भी चाय सुङ़कने लगी।
"अच्छा अब चलता हूँ भाभीसा, " कहते हुए दया उठ खङ़ा हुआ।
"शादी के पंद्रह ही दिन हैं। बहुत काम है , परिवार सहित चार दिन पहले ही हाजरी लगानी है तुझे," रेवती ने जोर देकर कहा।
"बिल्कुल . ...आ जाऊँगा, " कहते हुए दाया ने गाड़ी की चाबी उठा ली।
अभी चार बजे है और तीन घंटे गाँव पहँचने में, यानि रात होने लगेगी गाँव पहूँचते - पहूँचते दाया ने घङ़ी देखते हुए सोचा और एक्सीलेटर पर पाँव धर दिया। कुछ ही मिनटों में गाङ़ी हाइवे पर हवा से बातें कर रही थी और दया का मन स्मृतियों से ।
तब राजा बाबू रेवती को ब्याह कर लाए थे । लाला- हरी चुङियों से भरी खनकती कलाई, सूर्ख होठ, कालज से भरी उनींदा सी आँखें , थोङ़े आगे को निकले दाँत जो बात- बेबात खिलखिलाते रहते थे, लाल जोङ़े में लिपटा यह गौरा बदन गाँव में सबसे सुन्दर था ....। था या नहीं पर अम्मा तो यही कहती थी "अरे हमारे राजाबाबू के बङ़े - बङ़े घरवाले आगे - पीछे डोल रहे थे पर तेरी करमजली सुन्दरता ले डूबी हमें। कहने लगा ब्याह करेगा तो इसी से सो हम भी क्या करते , ब्याह लाए बिना दान दहेज के तुझ जैसी गरीब छोकरी को" । उन दिनों दाया को यह समझ कहाँ थी कि अम्मा प्रशंसा कर रही है रेवती की या फिर कटाक्ष ।
राजा बाबू और दया के बीच छह साल का अंतर था । दया को मतलब था तो बस इतना कि भाभीसा उसकी सब बातें सुने , उसके साथ खेले और भैया की लाई रात की बची हुई मिठाई इस कसम के साथ उसकी हथेली पर घर दे कि दया किसी को नहीं बताएगा।
बस बचपन में भाभीसा के साथ जो दोस्ती हुई वही आज तक कायम है ।
दाया की आँखें एक बार फिर बीते बरसों को सहेजने लगी।
भाभीसा और राजाबाबू का प्यार रंग लाया और एक कन्या का जन्म हुआ नाम रखा था - देवकन्या। फिर तो एक के बाद एक रामकन्या, कृष्णकन्या , का जन्म हुआ । बस नहीं आया तो कन्हैया ...जिसका इतजार अम्मा सहित पूरे खानदान को था।
अम्मा हर बार पूजा पाठ रखवाती , ताबीज बनवाती और भी जाने कितने कार्यक्रम होते कन्हैया के लिए पर कन्हैया को नहीं आना था सो लाख मनुहार के बाद भी नहीं आया ।
भैया उदास रहने लगे थे।अम्मा के तीखे व्यंग्य बाण सुन - सुनकर भाभीसा का गौरा बदन अब काला पङ़ने लगा था , खिलखिलाहट अब उदासी में बदल गई थी, न चुङियाँ खनखनाती थी न पायल छमछमाती थी ।घर की खमोशी में बेटियों की किलकारियां गूँजती पर भाभीसा को छोङ़कर सब बहरे हो गये थे ।इस बीच दया का भी ब्याह हो गया ।पार्वती के रूप में अम्मा की पसंद घर आ गई थी वो भी मोटे दान - दहेज के साथ...।
राजा बाबू आजकल शहर में अपना करोबार बढा रहे थे।कपङ़े की बङ़ी मील लगाई तो करोड़ों की कमाई चालू हो गई थी। सप्ताह चार दिन शहर और तीन दिन गाँव में बीत रहे थे उनके ।
उसे याद है उन दिनों रेवती और पार्वती दोनों पेट से थी ।अम्मा राजा बाबू को समझा रही थी - देख बेटा, तीन छोरियाँ है तने, इबके छोरो ही होणों चाइज ...जा डाक्टर बाबू स बात कर, कोई रास्तों निकाल लेवगा बे...।
अम्मा ये मेर स ना होवेगा, तङ़फ कर कहा राजा बाबू ने ।
तो के छोरियों से ही घर भर लेवेगा...अम्मा गुस्से से बोली ।
तभी भाभीसा वहाँ चाय लेकर पहूँची तो अम्मा का गुस्सा सातवें आसमान पर पहूँच गया।कहने लगी - अरे करमजली, कुछ तो शर्म कर तीन - तीन छोरियां जणकर बैठी है ।अब तो घर का चिराग पैदा कर , मेरे राजा को कहीं मूँह दिखाने के लायक छोङ़...इस बार अगर लङ़की पैदा कि तो मुझसे बुरा कोई न होवेगो , कहते हुए वो चाय की ट्रै पर झपटी , भाभीसा के हाथ ट्रै फिसली और सीघे अम्मा की साङ़ी पर ...।
मार डाला रे कुलक्षिणी ने....कहते हुए अम्मा का हाथ थप्पड़ रसीद करने ही वाला था कि भाभीसा ने अम्मा की कलाई पकड़ ली ।खबरदार.... जो मुझ पर हाथ उठाया , आज तक थांरी हर बात नजर नीचे रखकर स्वीकार करती आई हूँ पर उसे मेरी कमजोरी समझने की भूल मत ना करिज्यो।छोरियों पैदा करण रा ताना सुण - सुण क बहरी होगी मैं । अब ओर नहीं ....साफ - साफ सुणलो अम्मा , छोरा - छोरी पैदा करणो लुगाई क हाथ म नहीं, मर्द क हाथ म होव ....।पूछ लेणा नर्स मैडम न ....वो बतावे थी मने , एक्स...वाई के बार म ....पूछना अपने डाक्टर बाबू से...बङ़ी साठ - गांठ है ना थारी तो....भाभीसा जो एक बार बोलने लगी तो रूकी ही नहीं ...।
पार्वती , दया , तीनों छोरियाँ बारचे में हक्के - बक्के खङे थे।
अबे चुप कर हरामखोर....कहते हुए हमेशा शांत और चुप , सिर्फ अपने काम से मतलब रखने वाले भाइसा राजा बाबू गुस्से से तमतमाते उठ खङ़े हुए।
बहुत चुप रह ली राजा बाबू ....।कभी आपके खातिर , कभी अपनी छोरियों के खातिर .....पर अब ओर नहीं...अब लङ़का हो या लङ़की....अबकी बार नसबन्दी को ओपरेशन होकर रेवगो ....भाभीसा ने सपाट स्वर में घोषणा की और तीर की तरह निकल गई वहाँ से ।
अगले कई दिनों तक उलझी डोरी में फसी हुई पंतग सी छटपटाती रही अम्मा...।
दिन बीते ....भाभीसा ने फिर लङकी को जन्म दिया।अम्मा के तन - बदन में आग लग गई ....लगे भी क्यों न कोढ में खाज जो हो गई थी।
इधर भाभीसा ने भी कसम खा ली वो इस लङ़की जिसका नाम उन्होंने सुकन्या रखा था को लेकर घर नहीं जाएगी।अब बस उन्हें शहर रहने जाना था राजाबाबू के साथ....।
आखिर धीर- गंभीर राजा बाबू भाभीसा और अपनी चार बेटियों देवकन्या, रामकन्या , कृष्णकन्या, और सुकन्या के के साथ शहर चले गये ।संपत्ति से बेदखल करने और मर जाने की अम्मा की धमकियां पहली बार हम सबने फेल होते देखी थी।
पार्वती ने लगातार दो बेटों को जन्म दिया और अम्मा की चहेती बन बैठी।
राजाबाबू अपना करोबार लगातार बढा रहे थे ।घीरे- घीरे उनका गाँव आना- जाना छुटता गया। साल दो साल में एक बार परिवार सहित चक्कर लगा जाते थे। चारों लङ़कियों को भाभीसा ने अच्छी स्कूल में भेजा ,पढाई में भी वे अच्छी निकली। भाभीसा ने नसबन्दी करवा ली थी सो अब लङ़की और लङ़का पैदा करने का अम्मा पुराण भी बंद हो चला था। बीच - बीच में जब भी अम्मा बीमार हुई शहर में भाभीसा ने सिर्फ डाक्टरों को ही नहीं दिखाया ,मन से सेवा भी की अम्मा की ।
इसे उम्र का तकाजा कहें या वक्त की माँग अब भाभीसा और अम्मा के बीच चलने वाला शीत युद्ध भी बंद हो गया था। एम कॉम करने के बाद देवकन्या की शादी राजा बाबू ने ऐसी धूमधाम से की कि देखने वाले देखते रह गये।
अब राजा बाबू के पास पैसा, पद, प्रतिष्ठा और पहुंच वो सब कुछ था , जिसका आम आदमी सिर्फ सपना देखता है। बस नहीं था तो वो था स्वास्थ्य...। सुगर , केलस्ट्रोल, हाई वी पी के मरीज हो चले थे वो। किस गम में घुलते जा रहे थे वे कोई नहीं जान पाया और एक दिन हार्टअटैक ने उन्हें संभलने का मौका ही नहीं दिया। वे भाभीसा को सारी जिम्मेदारियों का बोझ देकर इस दुनिया से कूच कर गये।
भाभीसा तो जैसे काठ की हो गई थी।उन्हीं दिनों अम्मा ने उन्हें गाँव चलने को कहा । उन्होंने प्रतिक्रिया नहीं दी पर जब दया ने करोबार समेटने की बात की तो फूट - फूट कर रो पङ़ी वो। जमा हुआ दर्द पानी बनकर बह गया ।
साफ मना कर दिया उन्होंने , गाँव जाने से ।लङ़कियों की पढाई के साथ - साथ अब करोबार भी संभालने लगी थी वो। भाभीसा के भीतर एक मजबूत, जिम्मेदार औरत छुपी थी। जिसने न सिर्फ बेटियों को संभला बल्कि धीरे-धीरे राजा बाबू का कारोबार भी मजबूती से थाम लिया ।
इन्हीं दिनों बेटियों के साथ मिलकर उन्होंने अग्रेंजी बोलना, कम्प्यूटर का ज्ञान , गाड़ी चलाना सबमें महारत हासिल की। ऐसा दबदबा बनाया कि भाभीसा के सामने किसी की बोलने की हिम्मत नहीं हुई ।
एक- एक कर बेटियों को ससुराल भेजती भाभीसा की अब चौथी बेटी की शादी है ।कहने को तो दमाद,नाती ,नातिन से भरा - पूरा परिवार है उनका। पर बेटियाँ तो बेटियाँ हैं,अब मेहमान बनकर आती है और चार दिन रहकर चली जाती है। अब चौथी बेटी सुकन्या की शादी के बाद घर बिल्कुल खाली हो जाएगा।
सभी चिन्तित हैं इसे लेकर। बङ़ा दामाद साथ रहने और करोबार संभालने आना चाहता है । कृष्णकन्या अपने बेटे को माँ के पास छोङ़कर जाना चाहती है। स्वयं दया भी तो पार्वती के कहने पर अपने छोटे बेटे को गोद लेने का प्रस्ताव लेकर ही तो आया था।
सोचते- सोचते थक गया था दया। सामने ही ढाबा दिखाई दिया तो गाङ़ी को साइड पर लगाकर चाय का आर्डर देकर वहीं पङ़ी चारपाई पर लेट गया।
आज सुबह जब वह पहूँचा तो भाभीसा ने बङ़े मनोयोग से स्वागत किया दया का। कहने लगी- "आओ दया, बङ़े सही समय पर आये हो , मैं तुम्हें बुलाने ही वाली थी" ।
"अच्छा ...कोई खास काम ..., " दाया को मन की मुराद मिलने का शुभ संकेत दिखाई दिया।
"तुम तो जानते हो अब सुकन्या की शादी के बाद मैं सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाऊँगी"।
"सो तो है ...." दया ने सहमति जताई।
घर भी एकदम खाली हो जाएगा ।जब तक बेटियाँ थी घर भरा - भरा था।ठीक कहती थी अम्मा " बेटी की माँ राणी ,बुढापे भरे पाणी " भाभीसा ने बेबस निःश्वास छोङी।
"ठीक बात है भाभीसा, समय को कौन रोक सकता है। देखो ना, कल की सी बात लागै है मनै , जब देवकन्या, रामकन्या, कृष्णकन्या और सुकन्या मेरे कांधों पर चढ जाती थी और आज ....कोई बङ़ी अधिकारी है तो कोई प्रोफेसर ...।आपकी परवरिश ,आपके संस्कार और आपकी समझ ,गुणों का भंडार है चारों । आज राजा बाबू और अम्मा दोनों नहीं है ।होते तो देखते. कि छोरियाँ कैसे नाम रौशन करती है खानदान का," कहते हुए दया ने गर्व से अपने माथे को सहलाया।
"सो तो ठीक है दया, वैसे राजा बाबू को भले ही छोरा न होने का गम सालता रहा हो पर उन्होंने छोरियों के लिए कभी कोई कमी नहीं रखी, " कहते हुए भाभीसा की आँखों में नमी उतर आई थी।
"हूँ...,पर अब आगे क्या सोचा है आपने ।छोरियाँ सब अपने - अपने घरों मे खुश है ।अब आपको अपने बारे में भी सोचना चाहिए"। दया पार्वती के कहे अनुसार अपनी बात कहने के लिए भूमिका बांधने लगा।
"सोचणा कै है दया ,अब तो बस करना है ।बस इसीलिए तुझे याद कर रही थी"।
"अच्छा... हुक्म करो भाभीसा, आप जै कहो तै....मैं हमेशा हाजिर हूँ थांरी हाजरी म..." दया को लगा लोहा गर्म है बस चोट करने की देर है।
"हाँ दया,चार बेटियों का पालते- पोसते इनकी ऐसी आदत सी हो गई है कि अब बेटी बिना नहीं रह सकती"।
"मतलब...." दया असंमजस से बोला।
"मतलब अब पाँचवी बेटी गोद लेने का सोचा है मैनें ....। सोचा क्या है ,करना ही है। वो गाँव की विधवा संतोषी भुआ को तो जानते हो ना ....कई सालों से उसकी बेटी आरती की पढाई का खर्च उठा रही हूँ। अबके हायर सेकैनडरी की परिक्षा दी है। अब उसे गोद लूँगी। उसकी पढाई और शादी सारी जिम्मेदारी मेरी...." कहते हुए रेवती ने अपने आँचल में गांठ लगाई।
"क्या कह रहे हो आप....," दया का मूँह खुल्ला का खुल्ला रह गया। पार्वती के सपनों पर पानी फिर गया जान पङ़ा उसे।
"ठीक कह रही हूँ। मेरी संपत्ति के कई देवेदार मुझे साफ - साफ दिखाई दे रहे हैं पर मैं किसी को रिश्ते नहीं भुनाने दूँगी"।
"पर किसी अनजान को गोद लेकर तो आप अपने पाँव पर ही कुल्हाड़ी मार रहे हैं। इससे आपके अपने आपसे दूर ही हो जाएंगे ना...." दया ने तीर छोङ़ा।
"नहीं....जिसे मैं गोद ले रही हूँ उसकी शादी के बाद फिर एक कन्या गोद लूँगी यानि ये सिलसिला तब तक चलेगा जब तक मेरी सांस ....।समाज में लङ़कियों की स्थिति बेहतर हो इसमें एक समिधा मेरी भी ," रेवती ने मुस्कुराकर कहा। उसके चेहरे का तेज , आँखों में आत्मविश्वास और बोली में सागर सी गहराई महसूस की दया ने।
दया को मानो सांप सूंध गया था । कुछ नहीं बोल पाया वो।
"क्या हुआ दया, मैनें तो अपनी वसीयत भी बना ली" भाभीसा ने कहा।
"बेटियों और दामादों से तो पूछ लिया ना आपने...." दया ने हकलाते हुए कहा।
"तने कै लागै है दया ,मेरे संस्कार क्या इतने कमजोर हैं कि मेरा परिवार मेरा साथ ना देवेगा ...। मुझे
अपनी बेटियों पर भरोसा है ।चौथी की विदाई के समय ही पांचवीं की घोषणा करूँगी....।
जब बेटियों को जणने से पहले अम्मा को , नसबन्दी करवाने से पहले राजा बाबू को और बिजनेस में हाथ डालने से पहले किसी को नहीं पूछा तो इब क्या पूछना स दया ।जो करना है खुद करणा है , अपने दम पर करना है। तो फिर पूछने का मतलब....।ये बैसाखियाँ तो कब से तोड़ चुकी थांरी भाभीसा ...."।
दया कुछ नहीं बोला बस थूक निगलता रहा।
शादी में आते समय संतोषी भुआ और आरती को साथ लाने की जिम्मेदारी थांरी और हाँ ये कागज भी ले जाना। दस्तखत करवा लेना दोनों के। निशान लगा रखे है वकील साहब ने कहते हुए कुछ कागज दया की ओर बढा दिए रेवती ने ।
दया को काटो तो खून नहीं पर प्रत्यक्ष में उसने कागजात लेकर समय से सब काम करके शादी में आने का वादा किया था।
साहब आपकी चाय कब की ठंडी हो गई ढाबे वाला लङ़का उसे जगा रहा था ।
दया हङबङाकर उठ बैठा। देखा रात हो रही थी पर द्वितीया चाँद बादलों को चीर कर अपना मन्द - मन्द प्रकाश फैला रहा था जो आने वाले दिनों में निरन्तर बढेगा, ठीक उसके भाभीसा की तरह...।
चाय पीते हुए दया अपने लालच को कफन पहनाकर भाभीसा की पाँचवी बेटी के बारे में सोच रहा था।
डॉ पूनम गुजरानी
सूरत