अध्याय 18
उसके पेट के अंदर से एक भयंकर ज्वाला उठी। कुर्सी को मजबूती से उसने पकड़ा। आंखें चौड़ी होकर फैल 50 साल पीछे झांकने लगी।
सरोजिनी को यह बात सोच-सोच कर अब भी सहन नहीं हो रही थी। जंबूलिंगम मरने-मारने में पीछे नहीं रहता है ऐसा एक संदेह सरोजिनी के मन में हमेशा से था। राक्षसों जैसे भीम काय शक्ल के आदमी बाहर के कमरे में चार पांच लोग उससे बातें करते थे यह बात उसे पता था । उन आदमियों को देखकर ही उसे दुख होता था।
जम्बूलिंगम से उनके बारे में पूछने की उसकी हिम्मत नहीं थी। एक बार उसकी सास का मूड ठीक होने पर उससे धीरे पूछा था।
"यह लोग क्यों आते हैं ? यह खेती करने वाले लोग जैस नहीं लग रहे हैं? मारने वाले हत्यारे जैसे लगते हैं। उनको देखने से ही मुझे कुछ-कुछ होने लगता है। उन्हें यहां क्या काम है?"
आराम से बैठी सासू मां का चेहरा एकदम से टेंशन में आ गया।
"पुरुषों को बहुत से काम होते हैं ! उन सब के बारे में तुम्हें जान कर क्या करना है?" गुस्से से बोली।
"इतने बड़े जमीन की देखभाल करना कोई सामान्य काम तो नहीं है ?"
सरोजिनी हमेशा की तरह मुंह बंद करके अपने कामों में लग गई। परंतु उसके मन को संतुष्टी नहीं हुई। "उसे संभालने के लिए मारने की भी जरूरत होगी क्या? उसके मन में ऐसे प्रश्न उठे, जिसे उसने दबा लिया।
"अपने आदमी के बारे में ऐसे क्यों सोचें" ऐसे अपने आप से कहने लगी। "उनका व्यवहार मुझसे ठीक नहीं है इसलिए ऐसी बातों को सोचना ठीक है क्या ? सास कह रही है जैसे कितने ही बातें होती होगी । पुलिस की राह देखने के बदले अपने आदमियों को ही रक्षा के लिए रखना ठीक रहता है" अपने आप में ही सोचकर उसका निर्णय कर लिया।
परंतु उसका फैसला ठीक नहीं है ऐसा उसके कानों में कई बातें पहुंची। काम करने वाले नौकरों से जब बात की तब उन लोगों ने बात को बदल दिया जिससे उसके मन में शंका उत्पन्न हो गई। पन्नाडे में शडैयन नाम का एक किसान था। वह बहुत ही अच्छा आदमी था ऐसा सरोजिनी सोचती थी। दिनकर को भी उसकी तारीफ, जंबूलिंगम से करते हुए कई बार सरोजिनी ने भी सुना । शडैयन का किसानों के बस्ती में बहुत नाम था। हर साल पोंगल पर टोकरी भर-भर के फल व सब्जियां, "हमारे बगीचे का है" ऐसे नम्रता से बोल कर सरोजिनी को देकर उसे प्रणाम करके जाता था। रत्नम से जंबूलिंगम जब दूसरी शादी करके लेकर आया फिर भी सरोजिनी को वह 'मालकिन' 'जमींदारनी अम्मा' से ही पुकारता।
अचानक जंबूलिंगम को शडैयन से कुछ नाराजगी हो गई। रत्नम ने वह मेरी इज्जत नहीं करता ऐसे बोला होगा ऐसा सरोजिनी को लगता था। अक्सर जंबूलिंगम शडैयन को बुलाकर जोर-जोर से उस पर चिल्लाता और उसके बारे में दूसरों से भी कुछ-कुछ कहता था। उसी समय एक दिन दिनकर शडैयन के पक्ष में बोला।
"शडैयन अच्छा मेहनती किसान है जम्बू। उसका विरोध लेना ठीक नहीं। उसको देख दूसरे किसान भी जल्दी-जल्दी काम करते हैं। आंख बंद करके भी तुम उसे सारी जिम्मेदारी दे सकते हो।"
"अरे तुम्हें क्या हुआ, उसके साथ पैदा हुआ जैसे उसकी वकालत करने आ गए!" जंबूलिंगम बोला।
"साथ पैदा हुआ हो तो ही बात करना चाहिए क्या जम्बू ! मनुष्य की
इज्जत भी कुछ है कि नहीं?"
"यह सब मुझे कुछ नहीं पता" बड़े कडाई के साथ बोला। "मेरा नमक खाने वाला कुत्ता है वह, उसे चुपचाप पूंछ को लपेट के बैठना चाहिए पर वह न्याय की बातें करके सबको भड़काने की सोच रहा है ?"
"वह जो कह रहा है वह न्याय संगत है जम्बू। तुम्हारे दादा के जमाने की मजदूरी अभी भी तुम दोगे तो वह न्याय है क्या ?"
"न्याय है कि नहीं, मैं अभी इतना ही दे सकता हूँ । कोई भूखा पेट हो तो मुझे बताओ।"
"तुम्हारे पास आकर नहीं बोलें तो कोई नहीं है ऐसा मत सोचो। उनके पास कम है इसीलिए तो वे अभी न्याय की बात कर रहे हैं।"
"वह सब उस बदमाश शडैयन के उकसाने से ही है...."
थोड़ी देर दिनकर बिना कुछ बोले चुप रहा ।
"पता नहीं, तुम्हारा दोस्त हूं इस कारण से तुम्हें अच्छाई और बुराई को समझाना मेरा कर्तव्य है ऐसा मैं सोचता हूं। सुनना ना सुनना तुम्हारा अधिकार है।"
"हां, यही होशियारी की बात है, सभी लोगों को मैंने नापतोल कर ही रखा है। शडैयन को कैसे दबाना है मुझे पता है।"
"फिर ठीक है" ऐसा कह के जल्दी से दिनकर रवाना हो गया। आड में छुपकर खड़ी होकर उनकी बातों को ध्यान से सुन रही सरोजिनी को पार कर जाते समय उसे देख वह थोड़ा विस्मय से कुछ क्षण हिचक कर खड़ा हुआ। उसकी आंखों में एक खुशी दिख तुरंत गायब हो गई। दूसरे ही क्षण दुख, पश्चाताप परस्पर एक सहानुभूति की छाया जैसे आई। वहां खड़े हुए बिना वह भी जल्दी से चली गई ।
उसकी आंखों में जो दया और प्रेम दिखा जिससे वह भ्रमित हो गई। जंबूलिंगम से इतना अलग यह आदमी कैसे हैं उसे आश्चर्य हुआ। इसके जैसे स्वभाव जम्बूलिंगम का रहा होता तो मेरा जीवन ही दूसरे तरह का होता ऐसी कल्पना करती हुई वह पिछवाड़े के आंगन में जा बैठी। चंद्रमा की चांदनी के ठंडक ने उसके अंदर रोष उत्पन्न किया। अंदर रत्नम और जम्बूलिंगम बात करते हुए हंसते हुए जो प्रेमालाप कर रहे थे वह धीरे से उसे सुनाई दे रहा था। "जंबूलिंगम दिनकर के जैसे सौम्य, दयावान, प्रेमी होता तो उसके छूते ही यह शरीर इस तरह अकड़ता नहीं । वह पिघल जाता। आ... जो नहीं है उसके बारे में सोच कर क्या फायदा? उनके लिए तो रत्नम ही ठीक जोड़ी है ऐसे ही देख कर लेते तो ठीक रहता।"
एक दिन अंधेरे में, वह फिसली तो दिनकर ने उसे पकड़कर उठाया तो उसकी नाड़ियों में तेजी से खून दौड़ने लगा उसे याद आया। यह सोचते ही उसके गाल गर्म होने लगे वह एकदम से हड़बड़ा कर उस सोच को अपने से दूर किया।
रत्नम से जंबूलिंगम ने शादी कर जब लेकर आया तब से इस घर में जो तमाशा हो रहा है उसे सहन नहीं कर सकने के कारण वह अपने पीहर गई तो अपनी अम्मा से कह कर रोई। अम्मा कुछ देर बिना बोले चुप रही फिर धीरे से उसे चुप कराने के आवाज में बोली "यह देखो। उन्होंने दूसरी शादी की यह सच है। परंतु उन्होंने तुम्हें अलग नहीं किया? और अभी भी तुम्हें अपने घर में पत्नी का दर्जा दिया हुआ है?"
उसने तड़प कर अपनी मां को देखा।
"ऐसे रहने में कोई सम्मान है क्या ? मुझे वापस भेज देते तो उन्हें मुझसे अच्छी कोई खाना बनाने वाली नहीं मिलती। मैं सिर्फ एक खाना बनाने वाली ही हूं।"
उसके होंठ फड़फड़ाने लगे आंखों में आंसू भर आए। "मेरी दशा तुम्हारे समझ में नहीं आ रही है" ऐसा गुस्सा उसके अंदर आया।
अम्मा आसपास देखकर धीमी आवाज में बोली।
"यह दूसरी शादी तुम्हारी वजह से ही हुई ऐसा तुम्हारी सास परोक्ष रूप से बोलती है। तुम्हें बच्चा नहीं हुआ यह एक कारण है उसके साथ तुम पति से ढंग से नहीं रहती थी...."
उसने एकदम से गुस्से से सामने देखा। “धुत् तेरी की” यह सब बातें मां-बेटा करते हैं ?
"हां.... उन्होंने आकर देखा क्या !" गुस्से से और एक अहंकार के साथ फट पड़ी ।
"मेरे साथ वे स्वीकारने लायक नहीं रहते तो तुम क्या कहोगी ?"
"पीठ पर मुक्का मारूंगी" वे गुस्से से बोली "वे लोग आदमी हैं री ! कुछ भी कर सकते हैं । इस रत्नम से असंतुष्ट होने पर वह एक और को भी लेकर आ सकते हैं। तुम कैसी पूछ सकती हो? उन्हें अपनी मुट्ठी में रखने का सामर्थ्य तुममें नहीं है। लड़का पैदा करके नहीं दिया। अपने घर में कोई भी बांझ नहीं थी। तुम ही ऐसी हो। अभी तक तुम्हें उस घर की बड़ी बहू जैसे सम्मान देकर रखा हुआ है तो तुम्हें खुश होना चाहिए।"
इस बात के लिए ही अम्मा खुश हो रही है ऐसा सरोजिनी को लगा।
"तुम कैसे पूछ सकती हो ?"
मतलब मुझे कोई अधिकार नहीं है। उसने मुझे जो छाया मुझे दिया है वह उसके अधीन रहने का शासन।
अम्मा इस तरह की बात करके उसे वापस भेजे करीब दो साल हो गए।
"लोगों ने मुझे भले ही अपने आधीन समझा परंतु मैंने अपने को इतना हीन और दयनीय नहीं समझा" अपने आप से कह कर वह हंस दी।
"जब तुम दूसरी औरत को लेकर आ गए, तब ही मेरे शरीर के ऊपर तुम्हारा हक खत्म हो गया उसने गंभीरता से कह दिया। तुम्हें चाहिए तब आऊं नहीं चाहिए तो दूर चली जाऊं क्या इसके लिए मैं कोई कुत्ता हूँ ?"
"अब मैं बहुत शांति से हूं। बाघ जैसे झपट्टा मारकर मेरे शरीर को रौंध डालना ही शरीर का सुख है तो वह मुझे नहीं चाहिए।"
चांद की चांदनी चारों ओर फैली थी। उसकी सभी नाडियों में एक लालसा दिखाई दी जो उसके समझ में नहीं आया परंतु उसकी आंखों से आंसू लगातार झरने लगे।
एक दिन शाम को वह फूलों की माला बना रही थी। उसके सिवाय पूरे घर के लोग मदुरई जाने के लिए तैयार हो रहे थे। रास्ते के लिए पूरा खाना बनाकर वह भगवान के तस्वीर पर डालने के लिए फूलों की माला तैयार कर रही थी।
कहीं से मरगथम भागी भागी आई। आसपास देखकर बड़ी धीमी आवाज में झुक कर बोली "अम्मा उस शडैयन की किसी ने हत्या कर दी।"
"क्या?" बड़ी अधीरता से वह बोली। "मुझे विश्वास नहीं।"
"कसम से ! बगीचे के माडस्वामी उसे देखकर आया है ।"
"वह आश्चर्यचकित होकर सामने देखी। थोड़ी दूर पर माडस्वामी खड़ा था। उसकी आंखों में आंसू भरा हुआ था।
"हां अम्मा मैंने आंखों से देखा। यल्लैअम्मन मंदिर के पीछे बहने वाले नाले में उसका गर्दन कटा हुआ शव पड़ा था।"
सरोजिनी से सहन नहीं हुआ। शडैयन कितना अच्छा आदमी था! उसकी हत्या गांव वाले करेंगे क्या? उसकी छाती जोर-जोर से धड़कने लगी और आंखों से आंसू बहने लगे। फूलों की टोकरी पैरों से लुढ़क गई उस पर भी ध्यान ना देकर वह जल्दी से उठ कर अंदर गई। संदूक के अंदर कपड़ों को ठूंस रहे जम्बूलिंगम और रत्नम ने गर्दन उठाकर उसे देखा। रत्नम के चेहरे पर उपहास के भाव दिखाई दिये।
"क्या अन्याय है देखो!" सरोजिनी बिना संबोधन के बोली। उसके गले में कुछ फंसा जैसे आंखों में आंसू बहते हुए बोली "उस शडैयन की किसी ने हत्या कर दी।
यल्लैअम्मन के मंदिर के पीछे बहने वाले नाले में उसका शव पड़ा है।"
किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। किसी ने भी आश्चर्य प्रगट नहीं किया । वहां एक अजीब सा तनाव था। उन सब पर ध्यान न देकर वह बोल रही थी "वह कितना अच्छा आदमी था! उसको पता नहीं कोई...."
जंबूलिंगम आराम से उसके सामने आकर उसके गाल पर जोर से चाटा मारा।
"क्यों ऐसे प्रलाप कर रही हो ? वह शडैयन तुम्हारा कौन लगता है? तुम उसकी रखैल हो क्या?"
वह एक सदमे के साथ उसे देखी। हंसी को रोक नहीं पा रही थी रत्नम को उसने देखा।
"थूं!" कहकर थूंकने का जो वेग उसमें आया उसे मुश्किल से दबाकर वह कमरे से बाहर आ रही थी तभी जंबूलिंगम कुछ धीमी आवाज में बोल रहा था तो उस पर रत्नम जोर से हंसी जो उसको सुनाई दी। उसके मन में आग सी लगी।
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