Bandh Khidkiya - 8 in Hindi Fiction Stories by S Bhagyam Sharma books and stories PDF | बंद खिड़कियाँ - 8

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बंद खिड़कियाँ - 8

अध्याय 8

अरुणा आराम से गाड़ी चला रही थी। सरोजिनी बाहर देखती हुई अपने विचारों में डूबी हुई बैठी थी।

"क्यों दादी, गहरी सोच में हो?" धीरे से मुस्कुराते हुए पूछा।

"अरे अब मुझे क्या सोचना है!" साधारण ढंग से सरोजिनी बोली।

"क्यों नहीं सोचना चाहिए? क्या काम है आपके पास?"

"वो ठीक है!" कहकर सरोजिनी हंसी। "मेरी सभी यादों को सोच नहीं कह सकते। कुछ खास काम किए हुए लोगों को सोचना चाहिए। मेरी सारी सोच एक सपने जैसी है। जो बिना अर्थ, बेमतलब की ।"

अरुणा हंसी।

"वह बिना अर्थ बेमतलब की सोच क्या है वही बता दीजिए!"

सरोजिनी के होंठों पर हंसी थी। परंतु उनकी आंखें दूर की बात को ढूंढ रही थी।

"वे सब कहने लायक यादें नहीं है । कुछ बिखरे हुए टुकडों-टुकडों में, सिनेमा के सीन जैसे याद आते है..."

थोड़ी देर अरुणा बिना बात किए गाड़ी को चला रही थी। उसके मौंन में एक सहानुभूति है ऐसा लग रहा था ऐसा सरोजिनी को लगा। किसके लिए इसे सहानुभूति सोच कर उसे हंसी आई।

"पुरानी बातों को सोचकर अभी आपको कैसा लगता है दादी? गुस्सा आता है या दुख होता है?"

सरोजिनी ने अपने होठों को पिचकाया।

"कुछ भी नहीं होता है। कोई दूसरी औरत की पिक्चर देख रहे हैं जैसे लगता है।"

"आप कैसे चुपचाप रहे दादी?" थोड़ी देर बाद अरुणा बोली।

"किसलिए?"

"दादा जी ने जो अन्याय किया था ?"

सरोजिनी धीमी आवाज में बोली।

"दूसरा कोई भी उपाय नहीं था बच्ची‌। उस समय बात करो तो पीठ पर मार पड़ती। खाना नहीं मिलेगा। नहीं तो अपने पीहर भेज देंगे। पीहर लौट के जाओ, भाभियों की गालियां सुनो दुनिया के लोग 'वारावेट्टी' (तमिल का शब्द जो औरत ससुराल में न रहकर पीहर में रहती है उसके लिए यह गाली जैसी प्रयुक्त में आता है) उसे समाज से अलग समझा जाता है। भले ही पति की गालियां और मार खाकर यही रहें ऐसा सोचने लगती हैं।"

"कितना ही अपमानित हो.."

सरोजिनी, दूर पीछे देखती हुई। "जोर से दबा कर मालिश कर बांझ, गधी हो इसके अलावा क्या काम है?" जंबूलिंगम की डांट और उसका बेशर्माई से शरीर को दिखाते हुए बैठे रहना और उसका व्यंगात्मक हंसी...

"कितना भी अपमान हो..."टूटे हुए शब्दों में बोली....

"अच्छा हुआ मैं 50 साल बाद पैदा हुई दादी!" कहकर अरुणा हंसी।

सरोजिनी कुछ नहीं बोली। थिएटर आ गया। गाड़ी को रोक के ताला लगाकर अरुणा सरोजिनी के हाथ को पकड़ कर चली।

सरोजिनी बड़ी दिलचस्पी से भीड़ को देखते हुए चली। अपने जैसा भाषा जाने बिना पिक्चर देखने कोई आया है क्या सोच कर उसे हंसी आई।

"भाषा न जानने वाले भी आते हैं" अरुणा बोली "कोई अंग्रेजी पिक्चर हो तो कोई मजेदार सीन होगा ऐसा सोच कर लोग आते हैं।"

उनके जाकर बैठते ही विज्ञापन शुरू हो गया। पिक्चर के शुरू होते ही उसके बारे में अरुणा ने बीच-बीच में उन्हें बताया। इससे दूसरों को परेशानी होगी सोच वह चुप हो गई। सरोजिनी को कुछ भी जानने की जरूरत नहीं थी पात्रों के चेहरे के भावों से ही कहानी को समझ सकी। एक स्त्री का मन न लगने के कारण दूसरे पुरुष से अपना शारीरिक संबंध बनाने के बारे में कहानी चल रही थी। पति उसे जानकर भी बिना कुछ बोले चुप रहता है ऐसा लग रहा है।

इंटरवल में अरुणा उसे देखकर हंसी।

"यह सब विदेशों में ही होता है। यहां पर आदमी कुछ भी कर सकता है। औरतें दूसरे पुरुष से साधारण ढंग से बात करें तो भी उसे चरित्रहीन बोलेंगे।"

"इस सिनेमा में पुरुष अच्छा ही तो दिखाई दे रहा है। वह महिला फिर क्यों दूसरे के पास जाती है ?"

अरुणा हंसते हुए धीमी आवाज में बोली "उससे उसे तृप्ति नहीं हुई होगी।"

सरोजिनी का चेहरा भी शर्म से लाल हुआ। पता नहीं कौन-कौन से विचार उसको बचाने वाले के द्वारा आए ।

अचानक अरुणा करडी हो गई सरोजिनी को लगा। कुर्सी से हाथों को जोर से पकड़ कर अपने को खींचा। वह जहां देख रही थी उसी तरफ सरोजिनी ने देखा।

प्रभाकर एक लड़की के कंधे को थामें हुए बैठा था।

'यह लड़की ऐसी क्यों उतावली हो रही है' सरोजिनी को दुख हुआ। उससे अपना संबंध अलग कर आने के बाद उसे कुछ भी करने दो हमें क्या करना ऐसे ही सोचना चाहिए ना?

फिर से फिल्म शुरू हो गई उसके बाद अरुणा का ध्यान पिक्चर में नहीं था इसे सरोजिनी ने महसूस किया। नौकरी लग जाने के बाद या विदेश जाने के बाद ही इसके मन में एक शांति आएगी ऐसा सरोजिनी ने सोचा।

फिल्म अजीब ढंग से दौड़ रही थी, आखिर में वह लड़की, ना पति की रही ना प्रेमी की कहीं अकेले चली गई।

फिल्म खत्म हुई तो थिएटर में एकदम से रोशनी हो गई। "भीड़ को जाने दो। हम आराम से जाएंगे दादी" अरुणा बोली।

प्रभाकर और उस लड़की के बाहर चले जाने के बाद अरुणा उठी। 'नलिनी के संकोच में और इसके संकोच में ज्यादा अंतर नहीं है।' ऐसा सोचकर सरोजिनी को दुख हुआ। इससे तो मैं ही अच्छी हूं यह सोच उसे हंसी आई।

मौन के साथ दोनों चलकर कार में बैठे। थोड़ी देर गाड़ी चलाने के बाद अचानक याद आया जैसे उनकी तरफ मुड़कर, "फिल्म अच्छी लगी दादी?" अरुणा ने पूछा।

"समझ में नहीं आने से पसंद आई। तुमने तो आधी फिल्म देखी ही नहीं ऐसा मैं सोचती हूं।"

"देखी दादी !" कमजोर आवाज में अरुणा बोली ।

थोड़ी देर मौन रहने के बाद सरोजिनी बोली "उससे रिश्ता तोड़कर आने के बाद भी उसे देखकर परेशान क्यों होती हो?"

"आपकी आंखें बहुत ही सूक्ष्म है दादी!" कुछ ठरकाते हुई सी अरुणा बोली ।

"परेशानी तो होती है दादी, क्यों पता नहीं। उसने मेरा जो अपमान किया वह सब याद आ जाता है।"

"उसे सहन नहीं कर सकते इसीलिए तो तुम अलग हुई! अब तुम्हें सिर ऊंचा करके चलना चाहिए अरुणा!"

"सिर तो मैंने ऊंचा किया हुआ है दादी। इस बारे में आपको संदेह करने की जरूरत नहीं। उसे देखते ही पुरानी बातें याद आ जाती है। एक आदमी का एक लड़की से घिनोने ढंग से व्यवहार करने का अधिकार किसने उसे दिया ऐसा सोच कर गुस्सा आता है। उसके घमंड को समाज स्वीकार करता है उस पर मुझे गुस्सा आ रहा है।"

"सब आदमी ऐसे नहीं है अरुणा। तुम्हारी अम्मा को देखो। वह तुम्हारे गुस्से के बारे में समझ नहीं सकेगी।"

"हां.... अप्पा अलग तरीके के हैं। आश्चर्य होता है दादी। दादा ने आपको भयंकर रूप से सताया हैं। अप्पा का उन पर ना जाना एक आश्चर्य की बात है।"

सरोजिनी जवाब ना देकर बाहर देखती रही।

"दादा आपको कैसे-कैसे अपमानित करते थे उसे देख-देख कर अप्पा उनके ठीक विपरीत बदल गए है ना दादी?"

"हो सकता है!" सरोजिनी मुस्कुराते हुए बोली।

"आपके जमाने में ऐसे ही रहना चाहिए ऐसे एक सोच के कारण ही आदमी लोग ऐसा करते थे। आपने भी मुंह बंद करके उसका समर्थन किया, पढ़ाई तो थी नहीं इसलिए। पढ़ाई करके बदले हुए इस जमाने में लड़कियों का इस तरह सहन करना संभव है?"

सरोजिनी सहानुभूति के साथ उसके हाथ को दबाया। "अप्पा-अम्मा बोल रहें थे इसलिए मैंने भी बहुत सहन करके देखा । एक दिन भी समय पर घर नहीं आया। आता तो भी कोई न कोई लड़कियों को लेकर आता मेरे सामने ही उससे प्रेम लड़ाता। इसके स्वभाव को जानकर उसके दोस्त मुझसे सहानुभूति से बात करें तो उसे संदेह होता! और मेरा उनसे रिश्ता है ऐसा कहता! कैसी उल्टी गंगा ?"

कितनी बार इसे कहकर परेशान होगी इस पश्चाताप से सरोजिनी ने धीरे से पूछा।

"यह कहानी तो मुझे पता है। जो मालूम नहीं है वह पूछ रही हूं। उस शंकर से तुमको सचमुच में घनिष्ठता थी क्या? अभी भी है?"

"प्रभाकर सोचता था वैसा नहीं" अरुणा गुस्से से बोली। "अभी भी नहीं है। परंतु दादी, प्रभाकर उस तरह संदेह करके मुझे अपमानित करता तो मुझे लगता ऐसा एक रिश्ता सचमुच में कर लूं गुस्सा आता। वही आगे भी रहती तो शायद कर भी लेती।"

सरोजिनी का दिल हल्का सा कांपा। मन की खिड़कियां खडकने लगी।

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