महेश कटारे-छछिया भर छाछ की धडकनें
रामगोपाल भावुक
हमारा देश कृषि प्रधान है। हिन्दी कहानी में मुंशी प्रेमचन्द्र ने सबसे पहले किसानों की व्यथा कथा कहना शुरू की थी। इसी नब्ज को पकड़कर भाई महेश कटारे चल पड़े हैं। वे मूलतः किसान हैं। उनकी किसानों की समस्याओं पर बचपन से ही गहरी दृष्टि रही है, उन्होंने आसपास के वातावरण को खंगाला है, इसी कारण उनके लेखन की दिशा और दशा ग्रामीण जीवन से स्वतः ही जुड गई हैं। रचनाकार का अपने आसपास के समाज से गहरा सरोकार रहता हैं।
देश के प्रसिद्ध कथाकार प्रिय भाई महेश कटारे की प्रसिद्ध कृति छछिया भर छाछ कथाकार भाई राजनारायण बोहरे के सौजन्य से हाथ में आई है। कटारे जी किसान जीवन के कथाकार हैं। आज इसी रूप में आप जाने जाते हैं। कृति के पिछले भाग में लीलाधर मंडलोई और कैलाश बनवासी की पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये टिप्पणी दी गई हैं। जिनकी जरूरत नहीं थी क्योंकि महेश कटारे जी तक पहुँचने के लिए किसी नाम के सहारे की जरूरत नहीं है।
महेश कटारे ऐसे पात्रों के कथानकों को चुनते है जिन्हांेने समाज में अपने तरह की अपनी पहचान बनाई हैं।
संकलन में तेरह कहानियाँ समाहित हैं। उनकी पहली कहानी छछिया भर छाछ ही है। इसमें वे एक भरे पूरे परिवार के रमैनी नाम के पात्र की कहानी हैं । वह हट्टा-कट्टा तो है लेकिन बचपन से ही उसकी पुरुष जननेन्द्रिय शंकास्पद है। यह बात उसके बचपन से ही सारा गाँव जानता है। वे अपने पशुओं की शाला में पड़े रहते हैं। बड़ी भौजी ने एक दिन उन्हें रूखीं रोटी खाने को दींं। वे पूछते हैं- ‘घी खत्म हो गया का भौजी?’
वे कहती - ‘खत्म ही समझो ।’
इस बात के उत्तर में वे कहते हैं-‘ तो मेरी रोटियाँ क्यों न घिसीं?’
उनकी भाभी का उत्तर तो देखिये-‘तुम्हें कौन सा रन चढ़ना है लल्लू?’
.......और इसी बात ने कहानी की धारा ही बदल दी। उन्होंने अपनी थरिया सरका दी और बोले-‘ अब मैं रन चढ़ के ही दिखाऊँगा भौजी।
इसके बाद तो रमैनी किसी दूसरी जाति की एक मजबूर औरत रामरती से ब्याह करके घर ले आते हैं। बड़े भइया इस बात पर उसकी पिटाई भी कर देते हैं। इस बात पर रमैनी घर से पृथक पशुशाला में पत्नी के साथ रहने लगता हैं।
कुछ ही दिनों बाद गाँव में हवा फैलती है कि रमैनी की पत्नी पेट से हैं। उसी गाँव की चतुर चालाक औरत बँधावाली इस बात का पता लगाने छाछ माँगने के बहाने उसके घर जाती है। रमैनी की पत्नी उसकी इस बात को ताड़ जाती है और उससे कहती है कि तुम तो अभी भी सुन्दर हो। इस बात पर बँधावाली पूछतीं है कि तू कहना क्या चाहती है?’
‘का कहूँ तुम भौजाई वे देवर। तुम न हेरोगी तो और कौन हेरेेगो।’
‘पर कैसे?’ बँधावाली के गौरख धन्धा समझ में न आया।
रमैनी कहती है-‘ नंगा कर देना उन्हें, मैं उनसे कह दूंगी और दर पै बैठ कें चैकीदारी करूँगी?
बचपन से जो कुप्रचार समाज के सामने था, कथावक्ता अपनी चतुराई से उसका सरल हल निकालकर उसे बाइज्जत सा बरी कर देता है। समाज में फैले ऐसे विकराल कुप्रचारों के हल तलाशने में माहिर हैं कटारे जी।
इस कहानी की भाषा गाँव की माटी की सुगन्ध से सराबोर हैं। वे वाक्य की क्रियाओं से छेड़ छाड़ नहीं करते जिससे देश भर के हिन्दी के पाठक आसानी से उनकी बातें समझ लेते हैं।
काँख में नदी झाँसी वाली भौजी की कहानी है। कथावक्ता झाँसी वाली भौजी के सम्पर्क में नौ- दस का होकर छटी कक्षा में पढ़ रहा था तभी से है। जिसके जीवन में सामाजिक जिबरिया की गाँस अपने आप ढीली पड़ जाती हैं। पहला पति राम स्वरूप तीन साल की जेल काटकर गवाह के अभाव में बरी होकर आया था। उसकी सर्प दंश से मृत्यु हो जाती है। कथावक्ता ने ढ़ाँक और ओंधीं थाली के सहारे कैसे- कैसे उसका जहर उतारने की कोशिश की थी लेकिन वे उसे बचा न पाये थे। भौजी ने पति के क्रियाकर्म पूरे मनोंयोग से निपटाये थे। उसके बाद वह काछी की घरवाली बन गई।
उसके बाद कथावक्ता अपने परिवार की गाथा कहने लगता हैं। कैसे उसका परिवार मंगता ब्रह्मणों में गिना जाता था-‘मैं आठवे- पन्द्रवे दिन गाँव आता तो दो-तीन घन्टे भौजी के यहाँ विताता। चुगल खोरों ने पिताजी के कान भर दिये तो पिताजी ने उन पर बंदिस लगाई लेकिन माँ ने कहा झाँसी वाली चोरी छिपे कुछ नहीं करेगी। वह जो करेगी डंके की चोट से करेगी।’
कथावक्ता इसी कहानी को आगे बढ़ातेे हुए कहता है-‘कहा जाता है कि कुँआरी के भाग से सुहागन मरती है।’ उनकी यह कहावत मेरी समझ में नहीं आई कि इस का कथावक्ता ने किस अर्थ में यहाँ प्रयोग किया है। रमदिला की दूसरी शादी भी नहीं होती। किसके भाग से रमदिला की पत्नी मरी।
प्रकारण में रमदिला तेली की पत्नी चल बसी। वह एक दुधमुंही बच्ची को छोड़ गईं। उसे कौन पाले तो झाँसी वाली भौजी उसे पालने लगी। उसकी घर की देख- भाल करने लगी। कथावक्ता ने लोकपवाद की बातें सुनकर झाँसी वाली भौजी से उसका घर पूरी तरह संभालने की कहा था तो वह बोली-‘रमदिले में आसमान की तासीर नहीं है सो नाता निभ न पावैगो।
इसका मतलव है झाँसी वाली बहुत ही समझदार औरत रही। उसके प्रति कथावक्ता को श्रद्धा हो गई थी और उनके चरण छूने को मन करता था।
जिसके जीवन में चार पति रहे। वह प्रत्येक साथ पूरी ईमानदारी से रही। जब उसका एक पति संन्यास लेकर चला गया तो वह उसके लौटने की दो साल तक प्रतीक्षा करती रही।
एक दिन कथावक्ता मौजी के यहाँ गया था, भौजी ने उससे पूछा-‘लल्लू तुम इस्कूल खुल गये,तुम नईं जाय रये?’
कथावक्ता अपनी स्थिति के बारे में क्या कहता? उसके आँसू आ गये। मौजी समझ गई उसने उसे समझाया और सौ सौ के पाँच नोट निकलकर उसे दे दिये। ऐसे व्यक्तित्व पर लिखी इस कहानी को पाठक कभी नहीं भूल पायेगा।
अब हम बकरबटा यानी बकरी चारक कहानी पर आ गये हैं-आपकी पहली दो कहानी महिला पात्रों के इर्द-गिर्द मड़राती रहीं। इस कहानी का पात्र जंडैल सिंह हैं। इसका निवास भी पशुओं की गो शाला है, उसका खाना बीस- बाइस रोटियाँ,कच्चाी प्याज, मुटठीभर मिर्च उसके खिरक में पहुँचा दी जातीं है। उसका घर में महत्व इसलिये है कि उसे कहीं भी झोंका जा सकता है। एक बार तो वह अपनी बकरी को बचाने रीछ से भिड़ गया था। रीछ ने उसे बुरी तरह घायल कर दिया था। उसको केवल बीस तक की ही गिनती आती हैं। उसे मुदगल मास्साब पूरा विश्वास है। वह सुनता है तो मास्साब की।
इकाई, दहाई कहानी में रामलखन पात्र के इर्द-गिर्द रची है। यह पात्र इकाई, दहाई के चक्कर में दिमाग से खिसक जाता है। पत्नी को भी दहाई के चक्कर में छोड़कर कोई ओर को ले आने की कहने लगता है।
‘प्रेत पग’ कहानी में दद््दू बलवंत सिंह पुलिस में हैं। वे कभी कभी घर में भी बैसे ही नजर आते हैं जैसे थाने में। वे अल्मारी से माचिस खोजते हुए दिखते हैं और माचिस की खोज में कहानी अपने आप सब कुछ उगलने लगती हैं। वे पूजा कैसे करते हैं? किस देवता के प्रति उनके क्या भाव रखते हैं, और कैसे छोटी छोटी बातें को लेकर उनके भाव बदलते जाते हैं। उनकी पत्नी का स्वभाव कैसा है? घर में बच्चे कैसे रहते हैं? कटारे जी ने पुलिस के चाल- चलन का दृश्यांकन करते हुए इस तरह वर्णन किया है कि वह पाठक की आँखों के सामने प्रत्यक्ष सा बना रहता है। कैसे बडे अफसरों को घी के टीन देकर सन्तुष्ट करना पड़ता है। उनके शहर में कोई घटना घट जाये जो पुलिस अपना बचाव कैसे करती है? प्रेत पग के माध्यम से कथावक्ता ने पुलिसिया पग को पाठकों के समक्ष रखा है।
गोद में गाँव कहानी सालिग्राम पात्र के माध्यम से पाठको के समक्ष रखी हैं। उसके गाँंव को कम्पनी ने गोद में लिया है। मजदूरी पाने के लिए लाइन में लगना पडता हैं। सालिग्राम सुबह जाकर लाइन में लग गया, उस समय तक लाइनखूब लम्बी हो चुकी थी। लाइन में लगने के वाद आपस में बोल-बतिया नहीं सकते। कुछ कहना है तो इसारें से कहो। जब भी कोई कम्पनी किसी जगह अपना पड़ाव डालती है, उस समय वह बड़ी- बड़ी सुविधायें देने की बातें कहती है। बाद में वहाँ के लोगों को पानी के लिये भी तरसा देती है। लोगों कांे वहाँ का पानी खरीद कर पीना पड़ता है। उसे पाने के लियें जुगाड़े बैठाना पड़तीं हैं। जब वह लाइन में लगे- लगे थक गया तो वह बिना नम्बर लगाये ही उसे लाइन से हटना पडता है। अकाल का समय है। वहाँ का सरपंच उसके यहँं आता है तो वह समझ जाता है कि वह किसी मतलब से आया है। सरपंच नहीं चाहता कि कोई किसी को इस कम्पनी के खिलाप भड़काये।
सालिग्राम ने अपने बेटे जै सिंह से पूछा- सरपंच आये हते का ? फिर कुछ सोचकर पूछा-‘ खेत के बारे में कही हती। ससुरा दलाल है।‘
सरपंच तो कम्पनी के काम गिना रहा था । सरकार तो दिवालिया है। कम्पनी ने स्कूल बनवाया हैं, सड़कंे बनवाई है। अस्पताल बनवाया हैं। सालिग्राम ने कहा-‘कम्पनी यहाँ का सब कुछ चूस कर चली जायेगी तब।’
जै सिंह ने कहा-‘तब की तब संे, अभी तो मोड़ी को ब्याह कन्नो है। अच्छे पइसा मिल रहे है तो खेत काये नहीं बेच देत।’
अन्त में सालिग्राम समझ जाता है कि कम्पनी का सामना तो उसे करना ही होगा। इसी सार्थक सन्देश के साथ कहानी समाप्त हो जाती हैं
बाधा- दौड़ में गोमती लगातार छीज रही थी। राकेश में काफी बदलाव हो गया था। वह शहर से बहुत दिनों में आया है। वह बहुत ही बदला हुआ है। उसकी वेश भूषा से माँ भी उसे पहचान नहीं पाती। उसकी पत्नी भी आ जाती है। वह शहर की अपनी ममी की बात करने लगता है। वे उससे पूछतीं है बहुत रुपया है तेरे पास? वह उत्तर देता है-‘मेरे पास ही समझो,..........उसकी ममी के पास है। मैं कुछ छिपाना नहीं चाहता।
अन्त में वह समझाता है। वे लोग सिर्फ एक बच्चा चाहते हैं।’
‘ और तू अपना कुल बेचेगा।;
‘ यह बेचना नहीं ,एडजेस्टमेंट है।.....’
‘अच्छा वह मुस्काई।’
इस तरह राकेश का चरित्र पढ़ते समय कटारे जी की इकाई- दहाई कहानी के पात्र राम लखन की याद आती रही।
‘आदि पाप’ कहानी में रेल्वे स्टेशन के चित्रण के साथ वहाँ मौजूद भीख मांगने वालें का बखूबी से चित्रण किया गया है। वहीं आमलेट बेचने वाले खजेरा का धन्धा स्टेशन के बाहर पन्द्रह बरस से खूब चल रहा है। इस कहानी का महत्व पूर्ण चरित्र बिरजू है। उसे यह अच्छा नहीं लगता कि पुलिस का दीवान भिखारियों से कमीशन वसूलता हैं। इतने तो मुझे भी नहीं मिलते दिनभर के कलेक्शन के। इसके बदले वह भिखारियों की समस्याओं को सुलझाने में लगा रहता हैं। वह खजेरू के पास आकर आमलेट खाता है और शराब भी गटक जाता है। उसके किसी घटना में दोनों पैर कट गये थे। वह हाथ साइकल से इधर उधर चक्कर लगाता रहता हैं।
इसी स्टेशन पर एक दिन उसकी मजूरन सावित्री से मुलाकात होती हैं वह सिकुड़ी सी बच्ची को दिखा- दिखा कर करुणा जगाती भीख मांगती रहती हैं। वह बहुत ही गन्दे कपड़े पहने रहती है। यह बात बिरजू को अच्छी नहीं लगती तो वह उससे पूछ लेता है। वह उत्तर देती है-इस गंदगी और बास पर भी मुंह मारने को तैयार रहते हैं लोग, चटक-मटक से रहूँ तो चीथ डालेंगे। वो तो अटठे भर से खजेरू भैया से हिम्मत बंधी है थोड़ी।’’ ऐसे कथनों ने इस पात्र के चरित्र को पूरी तरह उघाड़कर रख दिया हैं।
इसी तरह बिरजू अपनी हथ गाड़ी को लेकर सोते समय साबित्री के पास पहुँचा तो वह पूछती है-‘ इतें काये को आया?’
‘ऐसेई मन हुआ आय गया।’
‘सोवें चाहत है मेरे संग?’
इस बात पर वह डाँटते हुए कहता है-‘पास आने का क्या यही मतलब होता है। दो आदमी सुख- दुख नहीं बतरा सकते?’
कहानी के ऐसे वार्तालाप को पाठक कभी नहीं भूल पायेगा। इस तरह दोनों एक दूसरे के नजदीक आ जाते हैं। बिरजू उसके साथ रहने का वादा कर एक हप्ते के लिये अपने गाँंव चला जाता हैं, लौटकर आता है तो विदेशी पर्यटकों के आने से स्टेशन पर भीख मांगने वालों को कहीं दूर छोड़ दिया जाता हैं। वह लौटकर सावित्री को खोजता फिरता है। वह नहीं मिलती पर उसे आशा है वह जरूर लौट कर यहीं आयेगी।
कहानी की पर्तों को बहुत ही बारीकी से उकेरा गया है। इसमें पठनीयता तो कमाल की है। कटारे जी ऐसी कहानी कहने के लिए बधाई के पात्र हैं।
अब हम तूर्यनाद के पायदान पर आ गये हैं। एक दूसरे के जजमान रहे हैं। शब्द ने इसे पढ़ने का आकर्षण पैदा कर दिया। पंड़ित जी के बहुत से जजमान हैं। मैं अभी तक जजमान का अर्थ एक तरफा ही मानता था।
हीरालाल बराहर जाति का हैं। तुरही बजाने का उसका आदि काम हैं। दोनों के लड़के साथ-साथ पढ़ते हैं। हीरालाल की पत्नी गांव में प्रसव कराने का काम करती है।
यह कहानी पढ़ते समय बार बार मुझे अपनी कहानी -दुलदुल घोड़ी’ की याद आ रही हैंं। उसमें शम्मा बराहर और उसकी पत्नी का यही किस्सा है। शम्मा तुरही बजाने का काम करता है और उसकी पत्नी गाँव में प्रसव कराती है।
मेरी कहानी का पात्र शम्मा इस काम से उक्ताकर दूसरा कार्य दुलदुल घोड़ी का तलाश कर लेता हैं लेकिन कटारे जी का पात्र समाज के प्रतिबन्धों के खिलाफ भी राष्ट्रपति के सम्मान में तुरही बजा आता है। उसे दुवारा न चाहने पर मुख्य मंत्री और मंत्री जी के स्वागत में तुरही बजाने जाना पड़ता हैं। दोनों ही कहानियों में आत्म द्धन्द हैं। पन्नालाल की तुरही का स्वर तो अर्थी के आगे बजने वाले सुर बन कर निकल रहा हैं लेकिन दुलदुल घोड़ी का पात्र शम्मा तो अपना धन्धा ही बदल लेता है।
‘कोई पवित्र युद्ध’ कहानी आदमी की मनोवृति की कहानी है। आदमी अपनी स्मृतियों को पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चों के कन्धे पर टाँगते जाते हैं। पिता ने पीड़ा में डूबी बड़ी कठिन सांस ली।‘मैं अपने जीवन का पाथेय जुटाने की लड़ाई में ऐसा उलझ गया कि इन कतरनों के आगे अपने समय को नहीं जोड़ पाया।’ ऐसे गहरे चिन्तन पर भी वे कहानी लिख जाते हैं। निश्चय ही इस कहानी की गहरी तहांे तक पहँुचने के लियेे इसका अनेक वार पाठ करना पडे़गा।
अंक गणित में विदूषक में नम्बरों महत्व के बहाने इस व्यवस्था पर व्यंग्य करने का भी प्रयास किया हैं। अब तो आदमी नम्बरों के नाम से ही पुकारा जायेगा। आजकल आधार नम्बर की प्रणालीा इसी रूप में हमारे सामने आई हैं रचनाकार ने इस प्रणाली के शुरू होने से पहले ही इस कहानी के माध्यम से यह सेकेत दे ंदिया था। आज हम महसूस कर रहे है आदमी की पहचान अंकों से हो रही हैं।
कुकाल में हंटर एक लम्बी कहानी है। कहानी का प्रारम्भ रामकृपाल मास्टर की बेटी जनपद के प्रधान छक्कीलाल यादव के बालबच्चेदार बेटे के संग भाग गई है। प्राचार्य रामकृपाल मास्टर गंगादास को बुलाकर कहते हैं- दो माह पहले खेलकूँद प्रतियोगिता में तुम्हारी बेटी लाली ने ऊँची छलांग लगाई थी। वह छलांग कम्पनी के मालिक हंटर साहब को भा गई। वे उसे पुरस्कार देने विद्यालय में आ रहे हैं। गंगादास हंटर साहब को समझने के लिये इधर - उधर पूछता फिरता है। इसी सन्देह में कहानी लम्बी होती चली जाती हैं। अन्त में वे उसे पुरस्कार देने स्कूल में आते हैं उसे पुरस्कार देते हैंं और उसकी आगे की पढ़ाई की व्यवस्था का जुम्मा भी ले लेते हैं। लाली कें पिता को उसके साथ जाने से घर की व्यवस्था अस्त- व्यस्त हो रही हैं लेकिन सभी के कहने से उसे जाना पड़ता है।
सपना तेरे ंलिए नहीं। अकाल के समय में धनीराम अपना घर और जमीन छोड़कर मजदूरी करने शहर चला जाता है। एक किसान को जब मजदूरी करने निकलना पड़ता है तो उसके स्वाभिमान को बहुत ठेस लगती हैं। जब धनीराम के पास मजदूरी करके दों हजार इकटठा कर लेता है तो वह घर लौटने के सपने देखने लगता हैं लेकिन सुबह होते होते वह जान जाता है कि यह सपना उसके लिये नहीं हैं उसके लिये तो मजदूरी ही हैं। यह कहानी भी पाठक के जहन में बनी रहती है।
कटारे जी अपनी कहानियों में ऐसे शब्दों का प्रयोग करते है जिससे दृश्यांकन होता चला जाता हैं।
आपकी भाषा सहज सरल है। उनकी भाषा में ग्रामीण जीवन की बानगी होते हुए भी हिन्दी भाषा के पाठकों कोे ग्राह बनी रहती हैं।
आप किसान जीवन के समकालीन यथार्थ की कहानियाँ कहने में माहिर हैं। आपकी कहानियाँ पाठकों के मन में बैठती चली जाती हैं।
निश्चय ही कटारे जी आज के ग्रामीण जीवन के किस्सा गो बनकर हिन्दी साहित्य में मौजूद रहेंगे।
राम गोपाल भावुक
कृति का नाम- छछिया भर छाछ
कृतिकार का नाम- महेश कटारे
प्रकाशक- अंतिका प्रकाशन गाजियाबाद 201005 उ. प्र.
मूल्य- 100 रु
वर्ष- 2008
पता- कमलेश्वर कालोनी डबरा भवभूति नगर जिला ग्वालियर मण् प्रण् 475110
मो0 9425715707ए 8770554097
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