Yugantar in Hindi Moral Stories by prabhat samir books and stories PDF | युगान्तर

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युगान्तर

डॉ प्रभात समीर

मेरे घर के दरवाज़े पर कॉल बैल लगी हुई है, जिसके माध्यम से कोई भी आगन्तुक अपने आने की सूचना दे सकता है, लेकिन मेरी काम वाली बाई को तो ठक-ठक करके दरवाज़ा बजाने में ही आत्मिक सुख मिलता है । अपने तर्कों के सहारे वह इस तरह दरवाज़ा पीटने के सुख और कॉल-बैल के देर तक बजते रहने की अप्रियता को ऐसे प्रस्तुत करती है कि डाँटकर कुछ कहने की गुँजाइश ही नहीं रहती। 

आज सुबह-सुबह जब दरवाज़ा बजा तो मुझे आश्चर्य हुआ । बाई और इतनी सुबह ! आज तक तो मेरा गुस्सा, मान-मनुहार, तर्क-तथ्य—किसीका भी उस पर प्रभाव नहीं पड़ा । मेरे ऑफिस जाने की तैयारी और उसी समय उसके काम की खटर-पटर और ज़रूरत से ज़्यादा तेज़ी---दोनों साथ में चला करते हैं । काम पर देर से आने का वह लाभ भी खूब उठाती है । कब कहाँ की सफाई छूटी, कब कौनसे बर्तन सिर्फ़ पानी से धुल गये,, कब पर्दे से गीले हाथ पुँछ गये, कब कौनसी साड़ी जलाकर गुपचुप रख दी गयी, क्या टूटा, क्या बर्बाद हुआ—इस सबकी खुली छूट उसे मिल जाती है । 

मैंने असमंजस में दरवाज़ा खोला, बाई ही थी । उसके पीछे एक और चेहरा झाँक रहा था । खींचकर बाई ने उसे मेरे सामने खड़ा कर दिया- 

'मैडम, ये जमुना है, मेरी बहू । घर से निकलने का शौक चर्राया है। बाहर काम करके क्लेक्टरनी बनेगी । ‘

मुझे अच्छा नहीं लगा, भला यह कौनसा तरीका हुआ बोलने का । बाई को इस सबसे क्या, उसने अपनी बात जारी रखी-

'अब इसने घर से बाहर ही धक्के खाने हैं तो आपके यहाँ ही नौकरी कर ले । टाइम से आपका काम भी निबट जाएगा । ‘

बाई की आवाज़ में अपनी मेहनत और समय के प्रतिबंध से राहत पाने का पुट था, फिर भी अहसान बहू के सिर पर ही । 

मैंने गौर से जमुना को देखा। गोरा रंग, तीखे नाक-नक्श, भरा बदन, गालों पर झूलते उलझे, घने काले बाल उसकी मासूमियत से खिलवाड़ कर रहे थे । चेहरे पर सौंदर्य और अबोधपन दोनों बराबर की टक्कर में डेरा जमाए हुए थे । 

बाई ने जमुना की पीठ पर एक धौल जमाते हुए कहा-

'अब काम करने की ठानी है तो जाके रसोई तो देख ले, मैडम के लिए चाय ही बना दे । ‘ जमुना ने आँखों- आँखों में ही रसोईघर का रास्ता मालूम कर लिया और उस ओर बढ़ गयी । 

जमुना के चाय बनाकर ले आने तक बाई उसका पूरा चिट्ठा मेरे सामने खोल चुकी थी । माँ-बाप हैं नहीं । छोटी सी को उसके रिश्तेदारों के साथ मिलकर पाला-पोसा और फिर अपने बेटे के लिए ही ब्याहकर ले आयी । दो पोतियाँ हैं । अब पोता पाने की इन्तज़ार में सारा घर उसके नख़रे उठाता है, लेकिन महारानी किसीको भाव नहीं देती। 

चाय देकर जमुना फिर से रसोई में जा चुकी थी। बाई के पास अभी बताने को बहुत कुछ था, कहने लगी-

-'मैडम जी, देखने में भोली लगती है । बहुत ही भोली, पर अपने मतलब के लिए बहुत चालाक है । अब आप ही देख लो घर से बाहर काम करने की ठानी तो किसीकी नहीं सुनी । ‘ 

'मैं तो सास हूँ, इसने तो मेरी सास यानी अपनी दादी सास को भी नाकों चने चबवा दिए हैं'....'अपनी आवाज़ को और भी धीमा करके वह बोली । 

बाई पढ़ी-लिखी नहीं है, लेकिन मुहावरे, 

लोकोक्तियाँ बोलने में वह किसीको भी मात दे सकती है । 

‘दादी सास को क्या?’

‘अरे मैडम, पड़पोते की आस में बुढ़िया के प्राण नहीं निकल रहे । ज़िद्द ठान के बैठी है कि घर में पड़पोता आएगा तो बुढ़िया अपनी ज़मीन, पैसे, जे़वर पर से कब्ज़ा छोड़ेगी। '

 'पोता न हुआ तो.....? 'अनायास मेरे मुँह से निकल गया । 

 मैं यह भी पूछना चाहती थी कि अपने परिवार को आगे न बढ़ाने के सिर्फ़ एक निर्णय से बाई की नज़र में जमुना चालाक और अवज्ञाकारी बन गयी है या उसकी और भी कमियां हैं ? नहीं कह सकी। 

जमुना रसोई से आ चुकी थी । उसे देखकर अपनी शिकायतों का पुलिंदा कानों तक फैली मुस्कुराहट के नीचे छिपाकर बाई विदा हो ली । 

जमुना के आ जाने से मुझे बहुत राहत मिल गयी थी । मनमर्ज़ी से आना और ग़ैरसलीक़ा काम.... बाई के प्रति जो आक्रोश, असन्तोष बना रहता था, उससे मुक्ति मिल गयी। सभी काम समय पर, और ज़्यादा व्यवस्थित ढंग से होने लग गए, लेकिन एक नये प्रकार के असन्तोष और उद्वेलन से अब मेरा वास्ता पड़ने लगा । मेरे लाख प्रयत्न करने पर भी जमुना प्रायः मौन बनी रहती । ऐसा लगता कि बोलने में उसे बहुत तकलीफ़ होती है । आख़िर संकेतों और अस्फुट शब्दों से कोई कहाँ तक जूझता ? ऐसी संवादहीनता मुझे प्रभावित कर रही थी। उसकी बात समझने में अतिरिक्त श्रम के साथ-साथ कर्ई बार तो लगता कि मैं भी उसका अनुकरण करते हुए शब्दों के प्रयोग में बहुत मितव्ययी होती चली जा रही हूँ । 

उस दिन ऑफिस के लिए तैयार हो रही थी कि बाई आ धमकी । घुसने के साथ ही उसने पैसे की फरमाइश कर डाली-

’मैडम, जमुना का दो महीने का एडवांस अभी मुझे दे दो ।‘

दूर खड़ी जमुना ने पैसा न देने के लिए हाथ से वर्जना की । मैं भी जल्दी में थी, उसकी बात भी नहीं समझ पा रही थी, पैसा दिए बिना घर से निकल ली । पैसे की ज़रूरत और अपनी मज़बूरी गिनाती हुई बाई भी मेरे साथ चली । मैंने विषय बदला, पूछा-

-’ये जमुना हंसती-बोलती क्यों नहीं है?’

बाई तैश में आ गयी-

'सब जानती है—बोलना भी और हँसना भी । यही तो इसके प्रपंच हैं। सारा घर बेटे के लिए इसकी खुशामद करने में लगा है और ये है कि अपने मर्द को भी घास नहीं डालती…..'उसने जमुना को दो-चार गाली सुना डालीं । 

मैंने बाई को ही डाँट लगा दी-

’छोटी सी उम्र में दो बेटियों की मां बन गयी, कभी उसकी तबियतऔर मन को भी समझा है?’ 

‘सब समझ लिया’कहती हुई बाई अपने क्वार्टर की ओर मुड़ गयी । 

शाम की चाय पीते हुए मैंने जमुना का चेहरा देखा, लगा कि उसकी एक- एक अभिव्यक्ति सम्वाद के लिए आतुर है जिसे वह सप्रयास रोकने में लगी हुई है । मैंने पूछा-

’ बाई को ज़रूरत थी । अपनी पगार क्यों नहीं देने दी?’

 उत्तर दिए बिना वह चली गयी। कुछ देर बाद केतली और कप उठाने आयी तो स्वतः बोली-

’मेरी ननद के बेटा होगा ‘ 

‘ बेटा होगा! टैस्ट करा लिया क्या?’

उसने गर्दन हिलाकर मना किया । 

 ‘तो क्या गारंटी है कि बेटा होगा?’ मेरे मुँह से निकला । 

‘ पीर-फ़कीर सब तो कह रहे हैं, सास को भी पक्का भरोसा है....’ टुकड़ों-टुकड़ों में जमुना बोली और काम में लग गयी । 

कौन पड़े इन सास-बहू के पचड़े में?क्या हो रहा है और क्या नहीं, इस सबकी जानकारी लेकर मैं ही क्या इन्हें बदल पाऊंगी ? बेहतर है कि इस सबसे दूर ही रहा जाए; फिर भी रहा नहीं गया, पूछ ही लिया-

'सास से क्या झगड़ा है?’

जमुना मौन बनी रही । 

मुझे आशंका थी कि बाई फिर से पैसा मांगने आएगी ज़रूर। वही हुआ भी। जमुना अभी मेरे घर में ही बनी हुई थी कि बाई अपनी फरमाइश के साथ फिर आ धमकी । मैं अच्छी मुसीबत में फंँस गई थी । काम जमुना करेगी तो पैसा भी उसीका, लेकिन बाई थी कि पैसे पर अपना हक़ जताए जा रही थी । 

बाई को देखते ही गूंगी बनी रहती जमुना का चेहरा विकृत हो उठा। दूर बैठे हुए भी मुझे गालियों की बौछार के बीच ‘गरीबी’, पगार’ और 'घर से निकल जाने' जैसे शब्द सुनाई दे रहे थे। बाई जमुना की बेटियों को सतत कोसती चली जा रही थी। आश्चर्य था कि जमुना ने विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा, फिर भी लगा कि वह इतनी भी निरीह और दयनीय नहीं है; उसकी निःशब्दता में भी दृढ़ता की आवाज़ है। 

घर का काम लगभग निबटने को था । मैंने जमुना से कहा, ’तुम्हारी बेटियाँ…’ गुस्से मेंभरी बैठी वह‘बेटियां’ शब्द सुनते ही भड़क गयी और ' मरने दो बेटियों को...'कहती हुई अशिष्टता से घर से बाहर निकल गयी । 

जमुना का वाक्य 'मरने दो बेटियों को' मेरे कानों में गूंँज रहा था। इतनी नफ़रत बेटियों के लिए !मुझे विश्वास हो चला कि इसकी मनहूसियत और आक्रोश का कारण बेटियाँ ही हैं । क्या मालूम किन्ही कारणों से जमुना अब और बच्चा पैदा करने में समर्थ न हो और बेटा न होने का दुःख, चारों ओर से पड़ती गालियाँ और साथ में दादी सास की सारी सम्पत्ति से वंचित होने की भयंकर कसक ही उसके ऐसे व्यवहार का कारण होगी। मैंने जमुना के व्यक्तित्व का विश्लेषण कर डाला और इस प्रसंग को किनारे करकेअपनी किताबों में डूब गयी । 

दूसरे दिन से जमुना काम पर ही नहीं आयी । चारों ओर फैले हुए काम के विकराल रूप को देखकर मेरी रूह ही काँप गयी । सास-बहू के झगड़ों में फँसी हुई मैं अपने आपको ही कोसती जा रही थी। पैसे को लेकर तो सास-बहू की तकरार रोज़ की थी, तब काम छोड़ देने की नौबत तो नहीं आयी, इसका मतलब कि बेटियों के प्रसंग से ही वह इतनी चिढ़ गयी ! ज़रूर उसने समझा होगा कि मैं बेटे-बेटी की समानता का प्रवचन उसे दूँगी । मेरी शंका विश्वास में बदलने लगी । घर और ऑफिस में सामंजस्य न बिठा पाने से व्यथित मैं अकारण अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार लेने के अपराध को झेलते हुए जमुना की किसी खोज-ख़बर की तलाश में ही दिन निकाल रही थी । 

उस दिन थकी-टूटी ऑफिस से लौटी तो जमुना को सामने खड़ा पाया । उसे देखते ही मेरी तकलीफ़ें गायब हो गयीं और मेरे अहं ने सिर उठा लिया। मुझे लगा था कि उस दिन की अशिष्टता और बिना सूचना के इतनी छुट्टी लेने के कारण अफसोस और क्षमा पाने का भाव उसके चेहरे पर होगा । अपनी अस्फ़ुट भाषा में वह कुछ कहेगी और मैं उसकी बेटियों की पक्षधर बनकर उसे नारी समानता का छोटा सा प्रवचन दूँगी, लेकिन उसके चेहरे की मुर्दानगी तो एकदम गायब थी, उल्लास और खुशी उसके रोम-रोम से बिखर रहे थे । उसका गूंँगापन एक के बाद एक शब्दों के सैलाब के नीचे जा छिपा था । 

-‘मैडम, कल मेरी ननद के घर भी बेटी पैदा हो गयी। ‘ मुझे सुनाई दिया । 

शब्दों से होड़ करते उसके हाव-भाव भी जीवंत हो उठे थे । आज उसके चेहरे से व्यथा, करुणा, सन्ताप के चिन्ह गायब थे । उस दिन अपनी बेटियों के नाम भर से जमुना इतनी बिफ़र गयी थी, और आज ननद के घर में बेटी हो जाने से मानो उसका ईर्ष्या भाव लुप्त होकर उसकाआंतरिक सन्तोष और ख़ुशी किसी मंगलोत्सव का सा भाव दे रहे थे । ननद के घर में बेटा हो जाने से दादी सास की सम्पत्ति के हाथों से निकल जाने की आशंका ने ही जमुना को इतना रूखा और कटु बना दिया था क्या?

मैंने सोच ही लिया कि कैसे भी उस तक अपना असन्तोष पहुँचाना है और हो सका तो यह संकेत भी देना है कि बेटियों के प्रति उसकी ऐसी मानसिकता और दुर्भावना के साथ मैं शायद उसे काम पर भी न रख सकूँ । काम के बोझ से बोझिल दो दिन पहले की मेरी मनःस्थिति उसे देखते ही रंग बदल चुकी थी। नहीं चाहिए ऐसी बाई जो औरत होकर औरत का सम्मान न कर सके । 

लेकिन जमुना आज इतना कहकर शांत नहीं हो गयी । आज तो उसके शब्दों का सैलाब उमड़ा पड़ रहा था । हाव-भाव, अभिव्यक्ति में खुशी का ज्वार-भाटा उठ रहा था । मुझसे कहने लगी-

-'मैडम, मुझे भी तो ज़िंदा रहना है। मैं तोअब इनकी सुनने वाली नहीं हूँ ....’

ननद के घर बेटी होने के सुख से अपने ज़िंदा रहने का क्या मतलब! मैं उसे समझ ही नहीं पा रही थी, मैंने उपदेश दिया-

’जमुना, दूसरे की बेटी के लिए इतना जश्न मना रही हो, ज़रा अपनी बेटियों को भी तो...' अपनी बेटियों के नाम से ही खुशी से दमकता उसका चेहरा एकदम काला पड़ गया, वह फिर से भड़क गई, 

-'सारी मुसीबत की जड़ तो ये बेटियाँ ही हैं, कहें तो कहीं फेंकआऊँ क्या....?'

 न बोलने की कसम खाने वाली जमुना की आवाज़ ने आज सप्तम स्वर पकड़ रखा था, आंखों में आंसुओं का सैलाब था । ‘ हाँ, नहीं करती मैं बेटियों से प्यार! क्यों पैदा हो गयीं ये.... ?इसके बाद वह बोली ही नहीं, बस, रोती ही रही । 

मुझे उसके व्यवहार से हमेशा हैरानी ही होती रही है, आज भी हुई । पहले दिन से ही वह बड़ी रहस्यमय सी लगती रही है, आज भी लगी। । शायद वह आज बहुत बोलती, बहुत कुछ बताती लेकिन बेटियों का नाम आते ही उसकी मुखरता सिर्फ़ रुलाई में तबदील होकर रह गयी । जमुना जा चुकी थी। 

 जमुना के पैसे हड़पने की जुगाड़ में बाई आये दिन मेरे घर के चक्कर लगाने लगी थी। आज आयी तो पैसों का चर्चा ही भूल गयी, घुसते ही विलाप करने लगी । उसका रुदन कम हुआ तो बोली-

-’मैडम देख लिया, जमुना की बद्दुआएं कैसी लगीं । रात-दिन मेरी बेटी को कोसती थी कि उसके बेटा न हो जाए । बड़ी काली जुबान है इसकी । ‘

-'उसकी दुआ-बद्दुआ से बेटी-बेटा पैदा हो सकता तो वह भी एक बेटा पैदा कर लेती, सारा झगड़ा ही ख़त्म । ’ मैंने अपना रोष ज़ाहिर कर दिया । 

'अरे मैडम, आप भी उस डायन की भोली सूरत से धोखा खा गयीं? मैं भी तो इसके भोलेपन की भँवर में ही फँस गयी थी। अपना तो क्या, इसका वश चले तो किसीके घर में यह बेटा न होने दे .... । ' कहते हुए वह अपनी बेटी की पीड़ा से फिर द्रवित हो उठी औरअपनी सूखी आँखों को पल्लू से पोंछकर दयनीय बनने के आडम्बर में और भी हास्यास्पद लगने लगी । 

-'मेरी सास क्या कम घातिन है। बेटियों के लिए इसकी नफ़रत तो देखो। अब तो बेटी के भी बेटा न हुआ ....'बाई का गुस्सा अब अपनी सास पर उतरने लगा । 

-' टक्कर भी ले रही है तो जमुना से! जो ज़िद्द पर अड़ी है कि पैसा, ज़ेवर बेटियों को देना है तो दे, नहीं तो कुछ भी करे । मेरी मनहूस बहू से न जीत पाएगी मेरी सास । 'अपना माथा पीटती हुई बाई के रोम-रोम से लोभ और लालच की आवाज़ सुनाई दे रही थी। 

-' दोनों मक्कार हैं, दोनों। '

-'दोनों कैसे?'

-'सास मर गयी तो पता भी न चलेगा कि कहाँ-कहाँ दाब के रख डाला है पैसा, ज़ेवर?और ये मेरी बहू!...'

बाई ने एक भद्दी सी गाली जमुना को फिर दे डाली और बोली-

' दुश्मन है ये मर्द जात की । कसम खा के बैठी है, बेटा न लाएगी । '

'बेटा ले आना उसके वश की बात है क्या?अगर तीसरी बार भी बेटी हो गयी तो?'

मेरे ऐसे कुवाक्य से बाई की आँखों में अंगारे दिखाई देने लगे, लेकिन मुझसे कैसे तकरार करती, धीरे से बोली-

'बच्चे के लिए तैयार तो हो ये कुलनाशिनी, कुछ गंडा-तावीज करा लेंगे। कैसे भी करके बुढ़िया से तो पैसा निकलवाएं। ' 

मेरी तो खुशी का ठिकाना नहीं था, उसे दबाकर मैंने सुनिश्चित किया कि क्या सारी धन-सम्पत्ति को जमुना ठुकराने को तैयार है । 

-‘हाँ, यही तो । कहती है अब इस खानदान में जहाँ हो बेटी ही हो। '

-'पर ऐसा क्यों?बेटा हो या बेटी-दोनों ही बराबर हैं। बेटा हो जाता तो भी ठीक। 'मैंने अपने भाव दबाते हुए बाई को टटोला । 

बेटे और बेटी की बराबरी की बात उसे हज़म नहीं हुई । वह बिफ़र गयी-

-' बराबर कैसे हो गए दोनों ?मेरा वंश इसकी बेटियों से चलेगा क्या?'

तब तक जमुना आ चुकी थी । आज उसने किसीका लिहाज़ नहीं किया, वह बोलती चली गयी-

'चलेगा, इन बेटियों से ही वंश चलेगा । वर्षों से जो बेटियों का नाश कर डाला है इस खानदान ने, उसका बदला मेरी बेटियाँ, फिर इन बेटियों की बेटियाँ ही लेंगी । '

जमुना का मौन, खीज, झुंझलाहट, गुस्सा, घर से बाहर निकलकर पैसा कमाना और उसे सास की नज़रों से बचाना….सभी रहस्यों की गुत्थी सुलझ चुकी थी । मेरा सर उसके लिए श्रद्धा से झुक गया । 

प्रभात समीर