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अलविदा रंजीत
जिस दिन रंजीत को मुंबई की गाड़ी पकड़नी थी, गोलू उसे रेलवे स्टेशन पर छोड़ने गया। रंजीत का रास्ता उसे भले ही पसंद न हो, पर रंजीत के अहसान को वह कैसे भूल सकता था? पहली बार रंजीत ने ही उसके भीतर दिल्ली में जीने की हिम्मत और हौसला भर दिया था। उसी ने गोलू को हर हाल में सिर उठाकर हिम्मत से जीना सिखाया था। इसलिए उसी ने रंजीत से कहा था, “रंजीत भैया, मैं तुम्हें स्टेशन तक छोड़ने जाऊँगा।”
और आज वह फिर से एक बार पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर था।
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन।...खूब भीड़-भाड़। चहल-पहल। बत्तियों की जगर-मगर।...चारों तरफ आवाजें, आवाजें, आवाजों का शोर!...
पता नहीं क्या बात है, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आकर वह बिल्कुल सहज नहीं रह पाता। एक दूसरी ही दुनिया में जा पहुँचता है, जहाँ पता नहीं क्या-क्या याद आने लगता है।...लगता है, पता नहीं, कौन-कौन हाथ बढ़ाकर उसे अपनी ओर खींच रहा है। यहाँ आकर अजीब सा डर लगता है कि एक बार वह इधर से उधर भटका या खोया तो फिर कभी अपने आप से नहीं मिल पाएगा।
याद आया गोलू को वह दिन, जब पहली बार पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अपने डरते-काँपते पैर उसने रखे थे। मक्खनपुर से आकर यहीं उसने तीन-रात रातें ठिठुरते-काँपते बिताई थीं। तब उसके पास ओढ़ने के लिए एक चादर तक नहीं थी और वह घुटनों को मोड़कर पेट से लगाए-लगाए गठरी बना, किसी तरह पूरी रात काट देता था।
फिर याद आया, यहीं से कुछ कदम दूर कीमतीलाल का होटल। आह, कीमतीलाल ने उसे जूठे बर्तन साफ करने का काम देने से भी इनकार कर दिया था।
फिर याद आए मास्टर गिरीशमोहन शर्मा जिनका सामान उठाकर वह बाहर थ्री व्हीलर तक लाया था। मास्टर जी ने उसमें न जाने क्या देख लिया था कि सामान के साथ वह खुद भी उनके घर जा पहुँचा था। परिवार के एक सदस्य की तरह।
फिर याद आईं सरिता मैडम...मालती सक्सेना नाम की चंट और खुर्राट महिला। और शोभिता और मेघना। मास्टर जी की दो निश्छल बेटियाँ।
सचमुच मास्टर गिरीशमोहन शर्मा के घर काम उसे चाहे जो भी करना पड़ता हो, उसे बड़ा अपनापा मिला था। अगर मालती सक्सेना जहर न घोल देती तो वह अब तक उस परिवार का एक सदस्य बनकर अपनी आगे की पढ़ाई कर रहा होता। पर अफसोस! इस दुनिया में मालती सक्सेना जैसे क्रूर लोग भी हैं और खूब हैं।
और रंजीत...? क्या वह रंजीत को अब तक ठीक-ठीक समझ पाया है। वह भला-भला-सा भी है, मगर फिर भी उसमें कुछ है, जिससे गोलू को बराबर डर लगता रहता है।
‘अगर रंजीत न मिला होता तो मैं अब तक मास्टर गिरीशमोहन शर्मा के यहाँ ही काम कर रहा होता।’ गोलू ने सोचा, ‘पता नहीं, रंजीत का मिलना मेरे जीवन में शुभ रहा या अशुभ?’
‘रंजीत बहुत तेज है, बहुत तेज दौड़ना चाहता है। मैं इतना तेज नहीं दौड़ सकता।’ गोलू सोचता।
‘तो क्या एक बार मास्टर गिरीशमोहन शर्मा के यहाँ हो आऊँ?’ गोलू सोचने लगा। सोचते ही एक बार तो उसके मन में उत्साह आया, पर फिर उसका मन हिचकने लगा।
इस बीच घर की याद भी आई, ‘ओह! कितना समय हो गया मक्खनपुर को छोड़े हुए। मम्मी-पापा, कुसुम दीदी, सुजाता दीदी, आशीष भैया...सबने अब तक तो मुझे मरा मान लिया होगा। या फिर मुझे भूलने की कोशिश कर रहे होंगे। पता नहीं, उनसे अब कभी मुलाकात होगी कि नहीं? मिलना होगा कि नहीं?’
इतने में गाड़ी प्लेटफार्म पर आकर लगी। तो सवारियाँ हबड़-तबड़ करके उधर दौड़ने लगीं। रंजीत ने गाड़ी में सवार होने से पहले गोलू को छाती से लगाकर खूब प्यार किया। बोला, “गोलू, कोई मुश्किल हो तो बगैर किसी हिचक के लिख देना। अगर पैसों की जरूरत हो तो गल्ला मंडी वाले दलाल कालू से कहना, वह पहुँचा जाएगा। उसका-मेरा पुराना हिसाब चलता है। तुम किसी बात की चिंता न करना। दिल्ली से मन उखड़े तो सीधे गाड़ी पड़कर मुंबई चले आना। मैं वहाँ जाते ही अपना पता लिख भेजूँगा।”
जब तक गाड़ी नहीं चली, रंजीत ढेरों बातें करता रहा। गाड़ी छूटने के बाद देर तक रंजीत का हाथ हिलता रहा, गोलू का भी। फिर गोलू धप्प से पास की एक बेंच पर बैठ गया।
गोलू के मन की अजीब हालत थी। जैसे भीतर से रुलाई फूट रही हो, लेकिन बाहर निकल न पा रही हो। उसका मन हो रहा था, एकांत में जाकर खूब रोए, खूब! पता नहीं उसका कैसा दुर्भाग्य है कि उसे जो भी मिलता है, जल्दी ही छूट जाता है। रंजीत के रूप में एक अच्छा सहारा मिला था, पर...उसका दुर्भाग्य!
“यहाँ दिल्ली में आकर मैंने क्या खोया, क्या पाया?” गोलू मन ही मन सोचने लगा, तो मम्मी-पापा, कुसुम दीदी, सुजाता दीदी और आशीष भैया की प्यार से छलछलाती शक्लें एक बार फिर उसकी डब-डब, डब-डब आँखों के आगे आकर ठहर गईं। वह भीतर इस कदर व्याकुल हुआ कि लगा अंदर बहुत कुछ टूट-फूट जाएगा। जाने कब उसकी आँखें बंद होती चली गईं।
जाने कितनी देर वह ऐसे ही बैठा रहा, आधा सोया, आधा जागा।