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रंजीत मुंबई की राह पर
फिर एक दिन गोलू को पता चला, रंजीत ने अपना अच्छा खासा फैशन डिजाइनर का काम छोड़ दिया।
“क्यों?” गोलू ने हैरान होकर उससे पूछा।
“अब तो मुंबई जाएँगे, दिल्ली से मन भर गया।” रंजीत का सीधा-सपाट जवाब था।
“क्यों?...मुंबई क्यों? दिल्ली में क्या परेशानी है?” गोलू ने डरते-डरते पूछा।
“अरे, वहाँ मुंबई में बहुत काम है।” रंजीत ने हाथ लहराते हुए कहा, “फिर वहाँ तस्करी का धंधा कितने जोरों पर है, तुझे पता नहीं! आदमी चाहे तो रातोंरात लखपति बन जाए।...जितना दिल में जोश हो, उतना कमाओ। यहाँ जैसे नहीं कि रात-दिन बस, छप-छपाछप करते रहो। यहाँ तो बस हम जिंदगी भर छप-छपाछप करते हुए ही मर जाएँगे। फिर बड़े आदमी कैसे बनोगे? कब बनोगे?”
“और अगर पुलिस के हाथ पड़ गए तो?” गोलू ने पूछा।
“अरे! तू तो वही रहा डरपोक का डरपोक। पुलिस के हाथ पड़ गए तो चाँदी का जूता किसलिए है? चाँदी का जूता!...सब बड़े आदमी ही करते हैं। इसके बिना कोई बड़ा आदमी बन ही नहीं सकता।” रंजीत हँसा, “मैंने तो अपने छोटे-से जीवन में यही सीखा है कि जहाँ भी रास्ता बंद हो, एक चाँदी का जूता मारो। फट से रास्ता निकल आएगा।”
सुनकर गोलू सिहर उठा। बोला, “नहीं रंजीत भैया, यह गलत है, गलत! इस तरह बड़े आदमी बनने से तो जो हम हैं, वही क्या बुरा है? कम से कम चैन की रोटी तो खा रहे हैं।”
“अरे गोलू!” रंजीत ने हिकारत से कहा, “तू रहा वही बावला का बावला! सही-गलत क्या हम गरीब लोगों के लिए ही है। अमीरों के लिए सही-गलत क्या कुछ नहीं? इतने बड़े-बड़े महल क्या ईमानदारी की कमाई से ही बने हैं? सब झूठ की कमाई पर टिके हैं! तो हमीं क्यों बँधे रहें ईमानदारी की कमाई से?...ऐसे तो हमारी जिंदगी एक ही जगह पड़े-पड़े सड़ जाएगी।”
गोलू रंजीत की बातों का कोई जवाब नहीं दे पाता था। हारकार इसरार करते हुए वह बस इतना ही कहता था, “पर यह गलत है रंजीत भैया। मेरा मन कहता है, यह गलत है।...जो गलत है, सो गलत ही कहा जाएगा।” कहकर वह चुपचाप उसकी आँखों में देखने लगा।
थोड़ी देर बाद गोलू धीरे से कहता, “रंजीत भैया, यहीं दिल्ली में दूसरी नौकरी क्यों नहीं ढूँढ़ते? तुम्हारी तो इतनी जान-पहचान है। ढेरों नौकरियाँ मिल जाएँगीं।”
“नहीं, बस दिल्ली से मन उखड़ गया गोलू।” रंजीत तुनककर कहता, “अब तो मुंबई ही जाना है।”
“कब जाने का सोचा है?” गोलू ने एकाध बार डरते-डरते पूछ लिया।
“अरे, जल्दी क्या है! जिंदगी भर नौकरी ही की है न। बहुत पैसा है मेरे पास। दो-चार महीने आराम से खाएँगे, फिर देखेंगे।” कहकर रंजीत हँस पड़ा।
गोलू की तो इतवार को ही छुट्टी होती थी, उसी दिन घूमने जा सकता था। लेकिन रंजीत तो अब सब दिन खाली था। सारे-सारे दिन यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ घूमता, भटकता रहता। तरह-तरह के लोगों से मिलता रहता और शायद उसने शराब पीनी भी शुरू कर दी थी।
अजीब-अजीब तरह के लोग अब कमरे पर आने लगे थे। गोलू को उनमें से कुछ तो बहुत ही खराब लगते। उनकी आँखों का कांइयांपन देखकर ही वह समझ जाता कि ये अच्छे नहीं, बदमाश लोग हैं।
गोलू ने एक-दो बार इशारों-इशारों में रजीत को भी बताना चाहा, पर वह तो जैसे नशे में कुछ सुनने को तैयार ही नहीं था।
कभी-कभी गोलू के टोकने पर कहता, “तुझे पता नहीं गोलू, इन्हीं लोगों के बलबूते पर मैं एक दिन बहुत बड़ा धन्ना सेठ बन जाऊँगा, बहुत बड़ा! दाउद का नाम सुना है? अरे भोंदूमल, वह भी तो एक दिन मेरे ही जैसा था। फिर वह देखते ही देखते कितना बड़ा आदमी बना। बड़े-बड़े सेठ उसके आगे पानी भरते हैं, उसका नाम सुनकर काँपते हैं।...आज से आठ-दस साल बाद कभी रंजीत सेठ का नाम सुनो, तो समझ लेना वह मैं ही हूँ—मैं। बेधड़क मुझसे मिलने चले आना। मैं तुझे बढ़िया से बढ़िया काम दूँगा। मालामाल कर दूँगा।” कहकर रंजीत छतफाड़ ठहाका लगाने लगता।
फिर कुछ समय बाद गोलू की नौकरी भी छूट गई। वह जयंती गारमेंट फैक्टरी में जिस कारीगर की जगह काम कर रहा था, उसे चोट लग गई थी। पर अब वह ठीक-ठाक होकर वापस काम पर आ गया था।
पुराने कारीगर के वापस आते ही मालिक ने झट गोलू का हिसाब साफ कर दिया। बोला, “ये लो, सात सौ सत्ताईस रुपए तुम्हारे बनते हैं। तुम आदमी शरीफ हो। काम भी ठीक-ठाक जानते हो। बीच-बीच में आकर पूछ जाना। आगे काम होगा तो बुला लेंगे।...या अपने घर का पता दे दो, वहाँ संदेश भिजवा देंगे।”
सुनकर गोलू को धक्का तो लगा, पर उसने हिम्मत नहीं हारी। सोचा, ‘चलते-चलते यहाँ तक चला अया तो आगे भी कोइ न कोई रास्ता तो मिलेगा ही।’
जयंती गारमेंट फैक्टरी में साथ-साथ काम करने वाले भी गोलू को प्यार करने लगे थे। उन लोगों ने कहा, “गोलू, जैसे ही कहीं कोई काम पता चलेगा, हम तुझे झट बुला लेंगे।...तू बिल्कुल चिंता न कर।”
गोलू ने घर आकर रंजीत को भी बताया। यह सोचकर कि रंजीत की इतनी जान-पहचान है, वह किसी से कह देगा तो काम मिलने में मुश्किल नहीं आएगी। लेकिन रंजीत तो हवा में उड़ रहा था। वह मानो दूसरी ही दुनिया में था। उसने रट लगा ली, “गोलू, अब तो तू खाली है।...तो अब चल मेरे साथ। छोड़ सारा तंबूरा, अब दिल्ली में कुछ नहीं रखा। मुंबई में हम अपनी दुनिया बसाएँगे।”
“नहीं रंजीत भैया, यह गलत है।” गोलू धीरे से कहता।
“क्या गलत है? क्या...?” रंजीत चिढ़कर फुफकारने लगता।
“यही कि...तस्करी...!” गोलू शांत स्वर में जवाब देता।
“किसने कहा कि मैं मुंबई में तस्करी करने जा रहा हूँ?” रंजीत चीखने लगता।
“तुम्हीं कह रहे थे रंजीत भैया।” गोलू धीरे से कहता, “फिर मुझे मुंबई नहीं, दिल्ली में ही रहना है, दिल्ली में ही।”
“तो मर यहीं!” रंजीत तुनककर कहता, “यहीं मर। तुझे किसी ने रोका है?”
फिर कुछ ठंडा पड़कर रंजीत ने समझाया, “देख गोलू, मैं तो अगले हफ्ते मुंबई जा रहा हूँ। कल ही रिजर्वेशन कराने जा रहा हूँ। अपने रहने का अलग इंतजाम कर ले या फिर इस कमरे का पूरा किराया अब तुझी को देना पड़ेगा।...सात सौ रुपए महीना! दे पाएगा?”
गोलू ने उसी दिन भाग-दौड़कर अपने लिए तीन सौ रुपए महीने पर एक छोटा-सा कमरा किराए पर ले लिया। पेशगी पैसे दे आया और कुछ सामान भी रख दिया।
यह कमरा पहले वाले कमरे के पास ही था। इसलिए कोई मुश्किल नहीं आई। फिर वह भी नौकरी की तलाश में लग गया।
तीसरे ही दिन जयंती गारमेंट फैक्टरी में उसके साथ काम करने वाले एक नेक सज्जन रामउजागर चचा उसे ढूँढ़ते हुए आए। बोले, “मालिक ने बुलाया है। काफी सारा अर्जेंट काम आ गया है। चल गोलू, अभी मेरे साथ।”
गोलू उसी समय रामउजागर चचा के साथ चल दिया। फैक्टरी मालिक उसके काम से खुश था। फौरन बात पक्की हो गई। उसने गोलू को कल से काम पर आने के लिए कहा। बोला, “अब तुम्हारी नौकरी पक्की!” गोलू खुश था। आज पहली बार दिल्ली में उसे कुछ ठीक-ठाक ठिकाना मिला। पैर रखने की जगह मिली। इसी तरह चलता रहा, तो अपनी मेहनत से आज नहीं तो कल, कुछ न कुछ जगह तो बना ही लेगा।...उसने पहली बार दिल्ली में सुकून भरी साँस ली।