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कथा पागलदास की!
“अच्छा...! दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर आए, फिर क्या किया?...क्या खाने वगैरह के लिए, गुजारा करने लायक पैसे थे तुम्हारे पास?” गोलू ने उत्सुकता से पूछा। उसकी निगाहें बराबर रंजीत के चेहरे पर जमी हुई थीं।
“कुछ अजब ही मामला हुआ मेरे साथ तो।” रंजीत बोला। और फिर उसने अपनी पूरी कहानी सुनाई :
“पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरा था बिना टिकट। भीड़ के रेले के साथ बाहर आ गया। सोच रहा था कि किधर जाऊँ? इतने में देखा, एक जगह पर खासी भीड़ लगी हुई है। मैं भी चलकर वहीं खड़ा हो गया। देखा, एक दाढ़ी वाला आर्टिस्ट है। बड़े ही कमजोर बदन का, दुबला-पतला। लेकिन आँखें बड़ी-बड़ी...भावपूर्ण। चमकदार। वह एक सड़क के किनारे रंगों से हनुमान जी का चित्र बना रहा है। उसके हाथों में बड़ी कला है, हुनर है, जिसे देख-देखकर सब मुग्ध हो रहे हें। लोग उस पर पैसे चढ़ा रहे हैं, लेकिन आर्टिस्ट बगैर परवाह किए अपना चित्र पूरा करने में लगा है।...जैसे समाधि लग गई हो।
“मैं देखता रहा, देखता रहा और सोचता रहा कि ऐसे चित्र तो मैं भी बना सकता हूँ। बाद में सब चले गए। अकेला मैं ही खड़ा रहा। आर्टिस्ट ने सब पैसे एक थैली में इकट्ठे किए। फिर हनुमान जी को प्रणाम करके कुछ बुदबुदाया और चलने को हुआ। तभी अचानक उसकी निगाह मुझ पर पड़ी। मुझे गौर से देखता हुआ पाकर बोला, ‘सीखेगा?’ मैंने कुछ नहीं कहा। चुपचाप गरदन नीचे कर ली। बोला, ‘लगता है, तू भी मेरी तर दुर्दिन का मारा है। आ चल, मेरे साथ रह।’
“फिर मैं उसी के साथ रहने लगा। कोई दो-तीन साल तक रहा। वह ऐसा बेहतरीन कलाकार था गोलू, कि कुछ न पूछो। नाम न जाने उसका क्या था, मगर वह खुद को पागलदास कहता था। अगर उसकी कला का सम्मान होता तो वह न जाने कहाँ से कहाँ पहुँचता।...लेकिन जिंदगी में कदम-कदम पर मिलने वाले दुख और अपमानों ने उसे तोड़ डाला। वह इतनी शराब पीता, इतनी कि समझो दिन भर पीता ही रहता। अंदर ही अंदर वह घुल रहा था। लेकिन उसकी चित्रकला में कोई कमी नहीं आई। हफ्ते में सिर्फ एक या दो बार वह चित्र बनाया करता था। कभी हनुमान का, कभी राम का, कृष्ण का, कभी भारत माता का, कभी चंद्रशेखर आजाद और कभी भगत सिंह। जिस दिन पागलदास चित्र बनाता, उस दिन शराब की एक बूँद तक नहीं पीता था और सारे दिन ख्यालों में खोया रहता। हाँ, चित्र बनाने के बाद जो पैसे मिलते, उससे बस शराब खरीदता और पीता।
“मैं साथ रहने लगा तो उसने क्रम थोड़ सा बदला। शराब थोड़ी कम की। मैं गरम रोटी बनाता तो मेरे साथ वह भी खा लेता। पर वह अंदर ही अंदर कुछ इस कदर घुल रहा था...कि मैं कुछ भी न कर सका। टुकड़ों-टुकड़ों में उसने अपनी कहानी सुनाई थी। उसे सुनकर मैं भी रोया, वह भी। और एक दिन...एक दिन...वह चला गया हमेशा-हमेशा के लिए और मैं फिर अकेला हो गया। उस दिन मुझे लगा, मेरा पिता आज मर गया...!”
कहते-कहते रंजीत की आँखों में आँसू झलमला आए। बोला, “मेरे लिए तो वह पागलदास सब कुछ था, मेरे बाप से भी बढ़कर। उसने दिल्ली में आते ही मुझे सहारा दिया। अपनी बाँहों में बाँध लिया। वरना तो...वरना तो आज मेरा न जाने क्या होता।”
यह कहानी सुनाते हुए रंजीत लगभग रोने ही हो आया। सुनकर गोलू भी उदास हो गया। देर तक दोनों में से कोई भी नहीं बोल सका।
“फिर...? उस आर्टिस्ट पागलदास के मरने के बाद?” गोलू ने पूछा।
“हाँ, मेरा रोना सुनकर आसपास के लोग दौड़े आए। बोले, ‘क्या हुआ रंजीत? क्या हुआ?’ मैंने कहा, ‘मेरा बाप मर गया।’ दुखी होकर लोगों ने पैसा इकट्ठा किया, जिससे पागलदास का दाह-संस्कार हुआ। कुछ रोज बाद जो उसका काम था, वही मैं करने लगा। जैसे चित्र वह बनाता था, मैं भी बनाने लगा। किसी तरह रोटी की जुगाड़ हो जाती।
“फिर एक फैक्टरी वाले बाबू ने एक दिन मुझे चौराहे पर महात्मा गाँधी का चित्र बनाते देखा, तो पास आकर बोला, ‘अरे, तू तो अच्छा चित्रकार लगता है। मेरे साथ चलेगा?’
“मुझे भला क्या आपत्ति थी? कोई ढंग का ठौर-ठिकाना तो मुझे भई चाहिए था। उस आदमी की फैक्टरी में कपड़े के नए-नए डिजाइन बनाकर रँगने का काम था। मैंने वहाँ काम किया भी, सीखा भी। और अब तो इतने पैसे कमा रहा हूँ कि मुझे किसी की परवाह नहीं है।” रंजीत ने अपनी बात पूरी की।
*
गोलू मंत्रमुग्ध-सा रंजीत की कहानी सुन रहा था। सुनते-सुनते वह न जाने कब फफकने लगा। रंजीत ने प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “क्यों, क्या हुआ गोलू?”
“कुछ नहीं रंजीत भैया!” गोलू ने अपने आँसू पोंछते हुए कहा, “मैं तो समझता था, मैंने ही कष्ट झेले हैं पर तुमने जो कुछ झेला है, उसके आगे तो मेरे दुख-तकलीफें कहीं नहीं ठहरतीं।...तुममें सचमुच बड़ी हिम्मत है!”
रंजीत बोला, “गोलू, तुम या मैं अलग-अलग नहीं हैं...और न हमारे दुख अलग-अलग हैं। देखा जाए तो सब भागे हुए बच्चों की एक ही कहानी है। उन्हें अपने घर में ठीक से समझा नहीं गया, ठीक से प्यार-दुलार नहीं मिला। वरना अपना घर छोड़कर भला कौन भागकर बाहर सड़क पर आ जाता, जहाँ कल की रोटी तक का तो ठिकाना नहीं है! तुम बता रहे हो कि तुम भागकर आए थे, तो तुम्हारे पास बदलने के लिए दूसरी जोड़ी कपड़े तक नहीं थे। नहाने के लिए एक गिलास या तौलिया तक नहीं था। ठंड से बचने के लिए एक चादर तक नहीं थी।...बस, वही हालत मेरी भी थी। और मेरी ही क्यों, घर से भागकर आने वाले हर बच्चे ही यही हालत होती है।”
गोलू कुछ देर चुप रहा, जैसे मन ही मन रंजीत की बातों को गुन रहा हो। फिर बोला, “रंजीत भैया, तो क्या अब उन्हीं साहब की फैक्टरी में काम कर रहे हो, जो तुम्हें सड़क से उठाकर लाए थे?...तुम्हारी चित्रकला देखकर प्रभावित हुए थे!”
रंजीत मुसकराकर बोला, “नहीं, भाई, नहीं। वह सज्जन तो इतने भले और दयालु थे कि मैं जन्म-जन्मांतर तक उनके यहाँ काम कर सकता था। वैसा कोई दूसरा आदमी तो मैंने अपने जीवन में देखा ही नहीं। ‘लक्खा बादशाह!’ सब उन्हें इसी नाम से पुकारते हें। पर वे जितने भले हैं, उनके भाई उतने ही चंट, खुर्राट हें। सबका साझा काम है। जब उन लोगों ने देखा कि यह आदमी लक्खा बादशाह के बहुत नजदीक है, तो बस चाल चलकर सबने मिलकर मुझे बाहर निकाल दिया। मुझ पर आरोप लगाया गया कि मैंने फैक्टरी में चोरी की है। और फिर लक्खा के भाइयों ने जबरदस्ती इस्तीफा लिखवा लिया। जबकि चोर वे खुद थे और लक्खा बादशाह के सीधेपन का फआयदा उठा रहे थे...!”
रंजीत एक क्षण के लिए रुका। उसका चेहरा गुस्से से दहकने लगा था। फिर अपने पर काबू पाकर बोला, “मुझे तो बड़ी देर तक यह समझ में ही नहीं आया कि यह क्या चक्कर है और क्या गड़बड़झाला हो गया मेरे साथ! फिर एक एक करके चीजें साफ होती गईं। तब मालूम पड़ी पूरी असलियत कि यह मेरे खिलाफ ही मामला नहीं है। ये लोग तो लक्खा बादशाह की की भी आँख में धूल झोंक रहे हैं।...तो एक बार तो मेरे मन में आया भी कि लक्खा बादशाह को कहकर सारी बात साफ कर दूँ। पर फिर सोचा, इससे उन भाइयों का आपस का झगड़ा बढ़ेगा, रहने ही दूँ। यों भी मेरे ऊपर लक्खा बादशाह का यह अहसान ही कौन कम है कि उन्होंने मुझे सड़क से उठाकर एक ऐसी दुनिया में पहुँचा दिया, जहाँ मेरे काम की इज्जत है, पैसा है, और कम से कम भूखा मैं नहीं मर सकता!”
“तो अब किस फैक्टरी में काम कर रहे हो रंजीत भैया?” गोलू ने जानना चाहा।
“एक दूसरी फैक्टरी है कपड़ों के डिजाइनिंग की। उसमें मैं एक डिजाइनर हूँ। खूब पैसा है, इज्जत है, किसी चीज की कमी नहीं है।” रंजीत ने कहा, “आदमी योग्य हो तो काम की यहाँ कोई कमी नहीं है। बस उसमें सीखने की लगन होनी चाहिए।”
कुछ देर बाद रंजीत ने पूछा, “गोलू, तू सीखेगा यह काम?”
“हाँ।” गोलू ने कहा, “पर पता नहीं, मैं सीख पाऊँगा कि नहीं। मुझे तो तुम्हारी तरह चित्रकला आती नहीं है।”
“तो ठीक है, छोटा-मोटा जो काम मिलता है, पहले वह कर। बाद में बदल लेना।” रंजीत ने समझाया।
गोलू क्या कहता? उसके लिए तो यह बिल्कुल नई दुनिया थी, जिसका क-ख-ग भी उसे पता नहीं था।
बहरहाल तय यह हुआ कि रंजीत गोलू के लिए कोई छोटा-मोटा काम तत्काल ढूँढ़ेगा और गोलू रंजीत के साथ ही रहेगा। रंजीत ने यह भी तय किया कि वह अपना घर बदल लेगा, क्योंकि यहाँ मास्टर गिरीशमोहन शर्मा का घर पास ही पड़ता था। गोलू उन्हें देखेगा, तो बेकार मन में कचोट पैदा होगी।
अगले ही रोज रंजीत ने शाहदरा में एक ठीक-ठाक कमरा किराए पर ढूँढ़ लिया। उसमें गोलू और रंजीत मिलकर रहने लगे। घर की सारी जरूरी चीजें, चारपाई, बिस्तर, चद्दर और जरूरी बर्तन भी खरीद लिए गए।
जल्दी ही रंजीत की कोशिशों से गोलू को गाँधी नगर की ‘जयंती गारमेंट फैक्टरी’ नाम की एक फैक्टरी में काम मिल गया। यह रेडीमेड गारमेंट्स की फैक्टरी थी और गोलू का काम था कपड़ों की कटाई-सिलाई का। शुरू में पंद्रह दिन उसे ट्रेनिंग दी गई। फिर तो अपने काम में वह इतना परफेक्ट हो गया कि उसके साथ के लोग ही नहीं, बल्कि मालिक भी उसके काम की खुलकर तारीफ करने लगे।
यों समय धीरे-धीरे कट रहा था। गोलू को लगा, चलो, एक रास्ता तो मिला। दिल्ली आना एकदम बेकार नहीं गया। यहाँ वह कम से कम किसी पर निर्भर तो नहीं है। खुद अपनी कमाई से अपना पेट तो भर सकता है। फिर रंजीत जैसा भला दोस्त उसे मिल गया था, जो उसका बहुत खयाल रखता था।
रंजीत ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था, पर जीवन की पाठशाला में उसने कामगार शिक्षा प्राप्त की थी, इसलिए वह हर काम में परफेक्ट था। उसके साथ होने से गोलू को बड़ा सहारा मिलता। साथ ही साथ रंजीत खाना बनाने में भी उस्ताद था। जल्दी ही उसने गोलू को भी खाना बनाना सिखा दिया। अब तो दोनों मिलकर बातें करते-करते चटपट खाना बना लेते ओर मजे में टहलते हुए अपने काम पर निकल जाते।
रात को आकर खाना बनाने के बाद घंटे-दो घंटे के लिए टहलना और बातें करना उनका शौक था। रंजीत के पास रहकर गोलू को इतनी बातें पता चल रही थीं कि उसे लग रहा था, वह तो अभी तक कुछ जानता ही नहीं था। उसका जीवन तो अब शुरू हुआ है।
लेकिन रंजीत में बस एक ही कमी थी। अगर उसका कहना न मानो, तो वह बिगड़ जाता था। और ज्यादा गुस्से में हो तो गालियाँ भी देने लगता था। फिर फिल्में देखने और घूमने का वह इतना शौकीन था कि गोलू कई बार उकता जाता। कभी-कभी गोलू इसरार करता हुआ कहता, “रंजीत भैया, क्या जरूरत है नौ से ग्यारह पिक्चर देखने की? आज हम कमरे में बैठकर ही गपबाजी करते हैं!”
पर रंजीत पर तो फिल्में देखने और घूमने का जुनून ही सवार था। वह गोलू को लताड़ते हुए कहता, “अरे गोलू, तू तो घरघुसरा है, डरपोक है। बाहर निकलकर देख, वरना तो पिंजरे का चूहा बनकर रह जाएगा।...फिर कैसे दिल्ली में जीना सीखेगा?”
कई बार अजब नाटक हुआ। रात को बारह-साढ़े बारह बजे वे पिक्चर देखकर व मस्ती से बतियाते हुए वापस आ रहे होते तो रास्ते में कोई पुलिस का सिपाही डंडा घुमाते हुए आगे आ जाता। और पूछता, “कौन हो? कहाँ से आ रहे हो?”
ऐसे हालात में मामला सुलझाने की पूरी जिम्मेदारी रंजीत पर ही होती। पर गोलू ने देखा, वह पुलिस को देखकर जरा भी नहीं डरता था। खूब अकड़कर कहता, “पिक्चर देखकर आ रहे हैं। कहिए तो हवलदार साहब, उसकी पूरी स्टोरी सुना दें।” इस पर पुलिस का सिपाही खीजकर एक ओर निकल जाता।
गोलू को रंजीत का यह आत्मविश्वास अच्छा लगता, पर उसे लगता, रंजीत जैसा वह शायद कभी नहीं बन पाएगा। दोनों एक होकर भी कहीं न कहीं अलग-अलग थे।
फिर रंजीत को नए-नए लोगों से मिलने और उनसे दोस्ती करने का एक जुनून-सा था। वह एक जगह काम करते-करते उकता जाता और उसे छोड़कर झट दूसरी जगह की तलाश में निकल जाता। रंजीत गोलू को भी समझाया करता था, “एक जगह कभी भी ज्यादा टिककर मत बैठो। नहीं तो जिंदगी भर बैठे ही रहोगे और डरपोक बन जाओगे। जल्दी से एक काम को छोड़कर दूसरा पकड़ो, दूसरे को छोड़कर तीसरा।...तब तुम्हें दुनिया का पता चलेगा। जल्दी-जल्दी तरक्की भी करोगे।”