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गोलू ने देखी दिल्ली
दो दिन। खूब चहल-पहल, गहमागहमी और चुस्ती-फुर्ती वाले दो दिन। घुमक्कड़ी के आनंद से भरे दो दिन।
दिल्ली की सुंदरता को नजदीक से देखने-जानने के दो दिन।
ये दो दिन दिल्ली आने के बाद गोलू के सबसे अच्छे दिन थे। सारी चिंताएँ, सारी फिक्र भूलकर वह घूम रहा था। सिर्फ घूम रहा था। लालकिला, कुतुबमीनार, राजघाट, शांतिवन, तीनमूर्ति, गाँधी स्मृति, गुड़ियाघर, अप्पूघर, चिड़ियाघर...कनॉट प्लेस, चाँदनी चौक!...कोई ऐसी मशहूर जगह न थी, जो इन दो दिनों में गोलू ने न देखी हो।
और वह इन सबसे अछूता ही रह जाता, अगर रंजीत साथ न होता। एक तरह से तो रंजीत ने ही उसे यह सब देखने-जानने के लिए भीतर से तैयार किया था, बल्कि उकसाया था। वरना वह दिल्ली से लौटता तो कोरा ही लौटता। दिल्ली में रहने का क्या फायदा, अगर कोई लालकिला, कुतुबमीनार जैसी दर्शनीय चीजें भी न देखे?
सबसे बड़ी बात यह थी कि रंजीत को इन सारी जगहों के बारे में बड़ी जानकारी थी। दर्जनों बार वह यहाँ आकर घूम चुका था। और खूब पास से उसने सब कुछ देखा था। कहाँ जाने के लिए कौन-सी बस पकड़नी चाहिए, इसकी भी उसे पूरी जानकारी थी। रंजीत ने दिल्ली को इतनी बार घूम-घूमकर देखा था कि जब वह उसके किस्से सुनाने लगता, तो गोलू भौचक्का सा उसकी ओर देखता ही रह जाता।
रंजीत कह रहा था, “मैं तो भई, हर संडे को घर से निकल जाता हूँ। जब छुट्टी है तो उसे घर में बिताने से क्या फायदा? ऐसे ही सेकेंड सैटरडे और महीने के आखिरी शनिवार की छुट्टी होती है, तो ये दोनों दिन भी सुबह से रात तक घूमने के लिए निकल जाते हैं। देर रात को घर लौटना होता है...!”
गोलू रंजीत के साथ लालकिला, कुतुबमीनार, राजघाट, शांतिवन समेत ढेरों जगहों पर घूमता हुआ, मन ही मन सोच रहा था कि, ‘मेरी देखी हुई दिल्ली से यह दिल्ली कितनी अलग है। काश! मैंने पहले ही इसे देखा होता। लेकिन मुझे दिखाता कौन? न मास्टर जी और सरिता मैडम और न कोई और। यह तो रंजीत ही है जो मुझे हाथ पकड़कर पतली, ऊबड़-खाबड़ गलियों से निकालकर इतिहास के गलियारों तक ले आया है...!’
लालकिले में तो गोलू को इतना अच्छा लग रहा था कि उसका मन होता कि दौड़-दौड़कर यहाँ की सब दीवारों और खंभों को छू ले। गोलू की यह बेकली देखकर रंजीत जोरों से हँसता रहा, हँसता रहा।
कुतुबमीनार में दोनों दोस्त खट-खट सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचे और वहाँ से बड़ी हैरानी हैरानी से देखा कि ऊपर खड़े होकर नीचे की दुनिया कैसी लगती है! रंजीत ने कहा, “तू इस बुरी तरह काँप क्यों रहा है गोलू? जरूर तूने भी किसी बुरे क्षण में यह सोचा होगा, मैं समझ गया हूँ।”
इस पर गोलू की आँखों से टप-टप आँसू बहने लगे। बोला, “हाँ, सोचा था। शुरू-शुरू में। जब बहुत परेशान हो गया था और भूखा था कई दिनों से, तब...।”
“तू बहुत सीधा है!” कहकर रंजीत ने प्यार से उसके आँसू पोंछ दिए।
ऐसे ही राजघाट, शांतिवन और गाँधी स्मृति देखते हुए रंजीत गाँधी जी और बच्चों से प्यार करने वाले चाचा नेहरू के बारे में बहुत-सी बातें बताता रहा। गोलू यह सब किताबें में पढ़ चुका था। पर उसे हैरानी हुई, रंजीत तो ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है। फिर वह इतनी सारी चीजें कैसे जानता है।
पर रंजीत यही नहीं, और भी बहुत कुछ जानता था। यह चिड़ियाघर और गुड़ियाघर जाकर पता लगा। चिड़ियाघर में उसने बाघ, हाथी, गैंडा, हिरन, बारहसिंगा, ऊदबिलाव, जेबरा, हिप्पो आदि के बारे में ऐसी-ऐसी कमाल की बातें बताईं कि गोलू हैरानी से सुनता रह गया। बीच-बीच में कभी हँसकर पूछ लेता, “रंजीत, क्या तुम बचपन से इन जानवरों के बीच ही रहे हो?” इस पर रंजीत बड़ी बेफिक्र हँसी हँस देता।
ऐसे ही गुड़ियाघर में अलग-अलग देशों के गुड्डे-गुड़ियों के बारे में रंजीत ने ऐसी मजेदार बातें बताईं कि गोलू दिल खोलकर हँसता रहा। चीनी और जापानी गुड़िया की क्या पहचान है। इंगलैंड और फ्रांस की गुड़ियाँ कैसी नखरीली होती हैं। हंगरी की गुड़ियों की शक्ल और रंग-ढंग कैसा होता है—ऐसा होता है, वैसा होता है। कनाडा की गुड़ियाँ कैसी होती हैं, रंजीत ने इसके बारे में इतने विस्तार से बताया कि गोलू बोला, “तुम गुड्डा-गुड़िया एक्सपर्ट तो नहीं हो रंजीत?”
तो ये दो दिन ऐसे बीते कि कुछ पता ही नहीं चला। गोलू को लगा, जैसे उसका बचपन लौट आया हो, जिसे किसी ने पत्थर मार-मारकर भगा दिया था। इन दो दिनों में वह इतना हँसा, इतना हँसा जितना पिछले कई बरसों में भी मिलकर नहीं हँसा था।
पर उसके भीतर एक सूखापन भी था, जो हरियाली के बीच बार-बार किसी उजाड़ की तरह शक्ल दिखाने लगता। ऐसे में रंजीत की बातें उसे तसल्ली देतीं।...बातें-बातें, ढेरों बातें।
रंजीत को वह पहले भी जानता था, पर इन दो दिनों में जितना जाना, उससे तो वह और भी प्यारा लगने लगा था।
शुरू में वह थोड़ा रूखा भी लगता था, पर फिर जैसे गोलू ने उसे समझना शुरू किया, वह और प्यारा लगने लगा। गोलू को हैरानी होती, ‘भला इस छोटी-सी उम्र में कितनी जिंदगी देखी है इसने?’
उसे कई बार हैरानी होती कि इतनी छोटी उम्र में इतना समझदार कैसे हो गया रंजीत। और तब रंजीत की पूरी कहानी उसकी आँखों के सामने फैलकर छा जाती। गोलू ने इन दो दिनों में ही टुकड़ों-टुकड़ों में इसे पूरा जाना था।
*
रंजीत भी गोलू की तरह कभी घर से भागकर आया था। और घर से उसके भागने का कारण था उसकी सौतेली माँ, जिन्हें वह ‘नई माँ’ कहता था। नई माँ जितनी सुंदर थीं, उतनी ही कठोर भी। पिता के सामने उनका बर्ताव कुछ और होता और पिता के पीछे कुछ और।
रंजीत ने कई बार सोचा कि वह अपने अच्छे बाबू जी को इस बारे में कुछ बताए। पर धीरे-धीरे उसे लगने लगा कि पिता उसकी बात सुनेंगे ही नहीं। वे इस कदर नई माँ के जादू की लपेट में हैं। और फिर रंजीत घर छोड़कर निकला, उसके बाद उसने पीछे मुड़कर देखा ही नहीं।
रंजीत को कभी-कभी याद आता है, कितना खुश था वह नई माँ को देखकर। माँ के न होने की उदासी काफी कुछ छंट गई थी। नई माँ ने शुरू में बहुत लाड़ भी जताया, पर जब उनका अपना बेटा हो गया, तो उन्होंने एकाएक ऐसा रंग बदला कि रंजीत हक्का-बक्का रह गया। और अंत में उसे घर छोड़कर तो जाना ही था।
हालत यह थी कि उस नन्हे बालक को गोदी में उठाते समय रंजीत के हाथ काँपते थे। नई माँ उसे जहर बुझे तीरों से छेदने लगतीं, “रहने दे रंजीत, रहने दे, नजर लग जाएगी। तू गिरा देगा इसे! वैसे भी तू कौन कम अभागा है, पहले अपनी माँ को खा गया और अब...!”
शुरू में तो नई माँ पिता के पीछे ही ऐसा करती थीं। कम से कम पिता के सामने तो प्रेम का दिखावा ही करती थीं। पर जब पिता के सामने ही उन्होंने झिड़कना शुरु कर दिया और जब पिता ने चुपचाप अनसुना करना शुरू कर दिया, तो रंजीत समझ गया, अब यह घर उसके लिए घर नहीं रह गया है।
एकाध बार रंजीत के पिता ने समझाने की भी कोशिश की, पर नई माँ तो अब तक रणचंडी बन गई थीं। उन्हें डाँटकर बोलीं, “तुम चुप रहो जी! तुम्हें कुछ पता भी है? सहना तो मुझे पड़ता है। एकदम आवारा, निठल्ला है। रोटियाँ तोड़ने के सिवा कुछ काम नहीं है।”
रंजीत को लगा, बस अब दीवार खिंच गई। अब यह घर उसका घर नहीं रह गया। और एक दिन वह घर छोड़कर निकला और गोलू की तरह ही पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर...
रंजीत को आज भी वे बातें खूब अच्छी तरह याद हैं। और बताते समय उसकी जबान में अजब-सी कड़वाहट घुल जाती है। आँखें जलने लगती हैं!