Golu Bhaga Ghar se - 12 in Hindi Children Stories by Prakash Manu books and stories PDF | गोलू भागा घर से - 12

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गोलू भागा घर से - 12

12

कहीं तू बदमाशी तो नहीं कर रहा?

फिर एक दिन सरिता शर्मा की सहेली मालती सक्सेना आईं। वह भी शायद सरिता मैडम के स्कूल में ही पढ़ाती हैं। बड़ी ही खुर्राट महिला हैं।

गोलू उनके लिए चाय बनाकर ले गया तो मालती सक्सेना ने अजीब-सी निगाहों से उसे ऊपर से नीचे तक देखा। ऐसे, जैसे किसी चोर को देखा जाता है। और फिर अजीब-अजीब-से सवाल पूछने लगीं, बड़ी खराब, अपमानपूर्ण भाषा में।

गोलू उन पर एक नजर डालते ही समझ गया कि यह बड़ी चालाक और खुर्राट किस्म की महिला हैं। लेकिन वे इतनी क्रूर भी होंगी, यह उसे पता न था। मालती सक्सेना न सिर्फ गोलू से अजीब-अजीब सवाल पूछ रही थीं, बल्कि उसके हर सवाल को संदेह की तराजू पर भी तोल रही थीं।

जब गोलू ने कहा कि उसके माता-पिता नहीं हैं तो मालती सक्सेना ने मुँह टेढ़ा करके कहा, “क्या सबूत है कि तेरे माँ-बाप मर गए हैं? कहीं तू बदमाशी तो नहीं कर रहा?”

गोलू ने कुछ कहा नहीं। चुपचाप वहाँ से उठकर दूर चला गया। तब भी सरिता मैडम और मालती सक्सेना की मिली-जुली आवाजें सुनाई देती रहीं।

“ये नौकर भी ऐसे ही होते हैं—बेईमान, चोर, बदमाश किस्म के...लफंगे! तू कहाँ फँस गई सरिता?” मालती सक्सेना की फटी हुई, कर्कश आवाज गोलू को साफ सुनाई दे रही थी।

इस पर सरिता मैडम ने क्या कहा, यह तो नहीं सुनाई पड़ा। पर दोबारा मालती सक्सेना की आवाज जरूर सुनाई पड़ी, “साफ लग रहा है, यह बदमाश लड़का है। हो सकता है, किसी गैंग से भी इसका संबंध हो! इसकी आँखें बता रही हैं कि यह झूठा और बदमाश है।...इन लोगों के लिए तो सरिता, किसी को मारना खेल है, खेल!”

इस पर सरिता शर्मा की आवाज सुनाई दी, “अच्छा, अब तो मैं भी खयाल रखूँगी। वैसे देखने में तो यह शरीफ लगता है।”

“अरे! ये सब शरीफ ही लगते हैं देखने में, पर किसी को मारने में इन्हें एक पल भी नहीं लगता।” मालती सक्सेना कह रही थी, “ये सारे नौकर आपस में मिले होते हैं। न जाने कहाँ से बड़ा वाला चाकू या छुरी ले आते हैं और मिनटों में काम खत्म। अब आप देखिए, क्या हुआ हमारे पड़ोस में...!”

और मालती सक्सेना सुनाने लगीं कि उनके पड़ोस में एक सोलह-सत्रह  बरस का नेपाली नौकर कैसे मकान मालकिन को अकेली पाकर उसे जान से मारकर भाग गया। साथ ही घर में जितने भी गहने और नकदी थी, वे भी गायब!

सुनकर सरिता शर्मा मानो दहल गईं। डरी हुई आवाज में बोलीं, “मैं कल ही इनसे कहूँगी। तुमने तो मालती, मेरी आँखें खोल दीं।”

इसके बाद फिर सरिता शर्मा की दबी-दबी-सी आवाज सुनाई दी, “हम दोनों तो सुबह ही चले जाते हैं। अब पीछे से तो घर में यही बच रहता है, मुस्टंडा! जो मर्जी करे। बच्चियाँ तो आपको पता है, दोनों छोटी हैं। पता नहीं, कब क्या इसके मन में आ जाए!”

“इसीलिए तो मैं कहता हूँ सरिता, इसे घर से निकाल बाहर कर। दो-दो छोटी बच्चियाँ घर में हैं। ऐसे में इस लड़के का होना तो बिल्कुल ठीक नहीं।...झाड़ू मारकर निकाल दे कल सुबह ही!”

*

और उस दिन के बाद मैडम सरिता शर्मा का व्यवहार इतना रूखा-रूखा और क्रूरता भरा हो गया, जैसे वह सचमुच कोई चोर या हत्यारा हो। जब देखो, तब वे मास्टर जी के पीछे पड़ जातीं, “मेरी मानो, तो इसे छोड़कर आओ कहीं...या फिर बोल दो कि चला जाए, जहाँ जाना चाहे!”

“कहाँ?” मास्टर गिरीशमोहन अचकचाकर पूछते।

“यह तो मैं भी नहीं जानती। पर चाहे जहाँ छोड़कर आओ।...यह इस घर में नहीं रहेगा।”

“पर इसने ऐसा किया क्या है, जो तुम इतनी नाराज हो?” मास्टर गिरीशमोहन के माथे पर बल पड़ जाते।

“यह मैं कुछ नहीं जानती। बस यह इस घर में नहीं रहेगा।” मैडम सरिता शर्मा का गुस्सैल स्वर।

इस पर गिरीशमोहन थोड़ा करुणा उभारने की कोशिश करते, “तुम इतना भी नहीं देखतीं, कितनी सर्दी पड़ रही है। यह बेचारा बगैर माँ-बाप का लड़का! इसके पास तो एक चादर तक नहीं है ढकने को! ढंग का कोई स्वेटर तक नहीं! सर्दी में कुछ हो गया तो क्या हम अपने आप को माफ कर पाएँगे?”

“हमें इससे कुछ मतलब नहीं। यह जिए या मरे, मगर यह इस घर में नहीं रहेगा।” सरिता मैडम की वही तान।

“लेकिन मुझे तो मतलब है।” गिरीशमोहन जिद ठान लेते। “यह जो पढ़ाई-लिखाई में इतना होशियार है, आगे चलकर कुछ बन सकता है। सोचो, कितना अच्छा होगा अगर एक अनाथ लड़के का जीवन हम सँवार दें। जरा सोचो!”

‘अनाथ लड़का, अनाथ लड़का...अनाथ!’

‘बेचारा...!!’

ये आवाजें गोलू के कान में पड़तीं तो वह मन ही मन आँसू घोंटता रहता। उसे लगता, ये शब्द नहीं, उसकी छाती को छलनी-छलनी कर देने वाली गोलियाँ हैं। इससे तो अच्छा था, वह घर से बाहर निकलता ही नहीं।

क्या वह घर से भागकर इसीलिए आया था कि एक अनाथ लड़के के रूप में दया बटोरकर घरेलू नौकर हो जाए। और वहाँ चोर या हत्यारा समझा जाए! रात को एक कोने में फटा हुआ मैला गद्दा बिछाकर सो जाए? ऊपर से फटा-पुराना कंबल? और फिर रात-दिन कानों में पड़ने वाले अपमान भरे जहरीले तीर!...अपने घर में कम से कम इतना दुख, इतना अपमान तो नहीं था!

‘तो क्या अब लौट चलूँ?’ गोलू अपने आपको ठकठकाकर कहता।

‘नहीं-नहीं, नहीं...!’ उसके भीतर आवाजें सुनाई देतीं। ‘गोलू देखता रह...सहता रह, शायद यहीं से आगे के लिए कोई रास्ता...!’

आवाजें...आवाजें और आवाजों का जंगल!

गोलू बुरी तरह घिर गया था। वह कई बार दोनों कानों पर हाथ रख लेता, तो भी आवाजें सुनाई पड़ती रहतीं।

*

मालिक-मालकिन की आपसी नोंक-झोंक को अनसुना करता गोलू घर के सारे काम बदस्तूर करता रहा। सुबह छह बजे उठकर सबके लिए चाय बनाता। तब उसे भी एक कप चाय पीने को मिल जाती। फिर वह रात के थोड़े-बहुत बर्तनों को साफ करके पूरे घर की झाड़ू-बुहारी और साफ-सफाई में जुट जाता। बीच में ही नन्ही मेघना को सँभालना, दूध पिलाना और इधर-उधर टहलाकर बहलाना, खिलाना। साथ ही रोज सुबह बड़ी बेटी शोभिता, गिरीशमोहन और सरिता मैडम के जूते-सैंडिल पॉलिश करना।

मालिक, मालकिन और शोभिता के चले जाने पर थोड़ी राहत मिलती। तब वह मेघना से प्यारी-प्यारी बातें करता। उसे छोटी-छोटी कहानियाँ बनाकर सुनाता। तितली की, खरगोश की, नटखट चूहे और ऊधमी बंदर की कहानियाँ। कुछ देर बाद फिर दूध गरम करके पिलाता और इसी बीच बातों-बातों में ए-बी-सी-डी और कुछ नर्सरी राइम भी याद करा देता।

गोलू अपने भीतर अजब-सा परिवर्तन महसूस कर रहा था। कहाँ तो हालत यह थी कि वह एक भी चुभती हुई बात बर्दाश्त नहीं कर पाता था, और कहाँ अब यह हालत थी कि वह रात-दिन हिकारत सहता रहता और उसके बाद भी खुशी-खुशी अपने काम करता रहता।

उसे इस बात की खुशी थी कि मैडम कुछ भी कहें, लेकिन मास्टर गिरीशमोहन शर्मा बुरे नहीं थे। वे उसे अपने बेटे की तरह ही खूब प्यार करते थे। दुनिया के बारे में ढेरों ज्ञान और समझदारी की बातें बताते थे। कभी-कभी उसकी किसी बात से खूब खुश होकर जोर से पीठ ठोंकते थे। तब यह फर्क गायब हो जाता था कि वे मालिक हैं और गोलू नौकर।

दोनों बच्चियाँ भी अब खूब अच्छी तरह गोलू से हिल-मिल गई थीं और उन्हें लगता था वह सच में उनका बड़ा भाई है। बड़ी शोभिता भी जब-जब मुश्किल आती, उससे साइंस, मैथ्स और इंगलिश के सवाल पूछ लिया करती थी। बाद में वह मम्मी से कहती, “मम्मी...मम्मी, मुझे होमवर्क में बड़ी मुश्किल आ रही थी। लेकिन गोलू भैया ने सब ठीक-ठीक बता दिया। वे तो बड़े ही समझदार हैं मम्मी। फिर उनसे तुम नौकर का काम क्यों लेती हो?”

“जा...जा, सिर न खा। बड़ी आई दादी कहीं की!” सरिता शर्मा रूखे ढंग से उसे झिड़क देतीं।

ये आवाजें गोलू के कानों में भी पड़तीं। उसे लगता, कहाँ आ गया मैं? यहाँ तो मेरी किसी चीज का कोई मोल ही नहीं।