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नए जीवन की खुलीं खिड़कियाँ
वह अधेड़ सज्जन थे गिरीशमोहन शर्मा। दिल्ली के एक सरकारी स्कूल के अध्यापक थे। साइंस पढ़ाते थे। उनकी पत्नी भी अध्यापिका थीं। पास के एक मॉडल स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाती थीं...
थोड़े दिनों में ही गोलू ने जान लिया कि यह परिवार सचमुच अच्छा है। मालकिन यानी सरिता शर्मा थोड़े सख्त स्वभाव की थीं, पर दिल की बुरी नहीं थीं। गोलू जल्दी ही उनके स्वभाव से परच गया। वह जान गया कि मास्टर जी तो भले हैं। उनसे कोई मुश्किल नहीं आएगी, पर अगर यहाँ टिकना है तो मास्टरनी जी का दिल जीतना होगा।
गोलू ने मन ही मन निश्चय किया कि मैं खूब मन लगाकर काम करूँगा तो इनका दिल भी जीत लूँगा। यह कौन-सा मुश्किल काम है। कहीं न कहीं उसके दिल में उम्मीद थी कि शायद यहीं से निकले कोई राह और फिर वह अपने रास्ते पर बढ़ता ही चला जाए। दोनों बेटियाँ शोभिता और मेघना से भी वह जल्दी ही हिल-मिल गया। छोटी बेटी मेघना को दूध पिलाने और खिलाने का जिम्मा गोलू का ही था। बड़ी बेटी शोभिता को होमवर्क कराने से लेकर बाकी घर-परिवार के सारे काम भी वही करता था।
गोलू के जिम्मे मुख्य काम था घर की साफ-सफाई का। चाय वगैरह भी अकसर वही बनाता। फिर दोनों बच्चियों को सँभालना और उनके लिए बाजार से चीजें और दूसरा सामान लाना भी उसी की जिम्मेदारी थी।
कभी-कभी सब्जी, फल वगैरह भी वही लेकर आता और खाना बनाने में सरिता जी की मदद भी करता था। मैडम कभी खुश होतीं तो गोलू को खाना और तरह-तरह के व्यंजन बनाना सिखातीं। गोलू बड़े मजे में सीखता। कभी खुद भी तरह-तरह की डिश बना लिया करता था। इस पर मास्टर जी पीठ थपथपकर उसे शाबाशी देते। सरिता जी भी हँसकर कहतीं, “देखना, इस घर में तू कुछ साल रह गया, तो बंदा बनकर निकलेगा। बंदा!”
दोनों पति-पत्नी सुबह-सुबह काम पर निकल जाते। बड़ी बेटी शोभित भी पढ़ने चली जाती। पीछे से गोलू का काम होता छोटी बेटी मेघना की सँभाल करना। उसे समय पर दूध पिलाना। रोए तो थोड़ा खिलाकर या इधर-उधर घुमाकर उसे चुप कराना। साथ ही झाड़ू-पोंछा और घर की साफ-सफाई तो उसे करनी ही होती थी।
धीरे-धीरे गोलू बड़ी होशियारी से सारे काम करने लगा। उसे लगता था, एक घर छूटा तो क्या, मुझे अब नया घर मिल गया है।
हालाँकि वह घर उसका अपना घर था और इस घर में चाहे वह जो भी कर दे, यह घर उसका नहीं हो सकता था। उसे कभी भी यहाँ से निकलने के लिए कहा जा सकता था। यह फर्क वह जानता था।
इस घर के लिए वह कितना ही काम करे, पर यहाँ उसकी हैसियत एक अदने घरेलू नौकर की है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। यह फर्क भी वह बहुत अच्छी तरह जानता था।
कभी-कभी अपनी हालत देखकर उसे रुलाई आ जाती। पर वह बड़ी सख्ती से अपने आपको बरज देता, “गोलू जो बीता, वह बीत गया। अब उसे भूल जा।...अब यही तेरा घर है, अब यही तेरा जीवन है।”
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जल्दी ही गोलू घर में अच्छी तरह हिल-मिल गया। गिरीश जी ही नहीं, सरिता मैडम भी उसके काम से खुश लगती थीं और कभी-कभी जी खोलकर तारीफ करती थीं। दोनों बच्चियाँ शोभिता और मेघना तो एक क्षण के लिए भी उसके पास से हटने को तैयार नहीं होती थीं। वे दोनों बड़े प्यार से खुश होकर उसे ‘गोलू भैया’ कहकर बुलाती थीं, तो गोलू खुशी से झूम उठता था। बस, एक ही कसक उसके मन में रह जाती थी...कि पता नहीं, उसकी अपनी सुजाता दीदी कैसी होंगी? उसे याद कर-करके उनकी कितनी बुरी हालत हो गई होगी!
फिर मम्मी-पापा के उदास चेहरे आँखों के सामने आ जाते और उसके मन में भूचाल-सा आ जाता। आशीष भैया और कुसुम दीदी की शक्लें भी दिखाई पड़तीं, मानो वे शिकायत कर रहे हों, “गोलू, तुझसे तो यह उम्मीद नहीं थी। तू ऐसा कैसे हो गया। हमारे प्यार का कोई मोल नहीं?”
गोलू की आँखें भर आतीं। उसे लगता, आँखों पर हाथ रखकर वह भागे और भागता चला जाए। और किसी ऐसी जगह पहुँच जाए, जहाँ यह दुख और परेशानियाँ न हों।...जहाँ वह सचमुच एक नई जिंदगी शुरू कर सके।
जल्दी ही गोलू अपने आप पर काबू पाकर सख्ती से पिछला सब कुछ भुलाने की कोशिश करता, ‘अब तो यही मेरा घर है—यही...यही-यही...!’ गिरीशमोहन शर्मा कभी-कभी खुश होते, तो गोलू को साइंस और गणित पढ़ाया करते थे। जाने क्या बात थी, गोलू को यह विषय अब मुश्किल नहीं लगते थे। जो सवाल पहले घंटों में नहीं निकलते थे, अब वे झटपट निकल आते। समय कम था, लेकिन सीखने की ललक बहुत बढ़ गई थी। गिरीशमोहन शर्मा खुश होकर कहते, “शाबाश गोलू, दो साल बाद तू हाई स्कूल का इम्तिहान देना। मैं तेरी अच्छी तैयारी करा दूँगा, चिंता न कर।”
गोलू को पढ़ता देख गिरीशमोहन शर्मा इतने खुश होते, मानो गोलू कोई और नहीं, उन्हीं का बेटा है। कहते, “गोलू, पढ़ाई जारी रखना। तू इंटेलीजेंट लड़का है। देखना, फर्स्ट आएगा, फर्स्ट!”
हालाँकि गिरीशमोहन शर्मा उसे पढ़ता देख, जितना खुश होते, सरिता मैडम उतना ही चिढ़ती थीं। कभी-कभी खीजकर वे पति से कहतीं, “आप इसे पढ़ाने के लिए लाए हैं या घर का काम कराने के लिए?...पढ़ाना चाहते हैं तो खूब पढ़ाइए। पर फिर मुझे घर का काम करने के लिए कोई दूसरा लड़का ला दीजिए।”
मास्टर गिरीशमोहन जी बार-बार उसे समझाते कि अगर यह लड़का पढ़-लिख जाएगा, कुछ बन जाएगा, तो हमें कितना पुण्य मिलेगा, यह तो सोचो! विद्या-दान से बड़ा कोई दान है इस दुनिया में?...इस पर सरिता मैडम का सपाट, इकहरा स्वर सुनाई देता, “देखिए जी, इस मामले में मैं आपकी तरह भावुक नहीं हूँ। आदमी को थोड़ा प्रैक्टिकल भी होना चाहिए। यह लड़का घर में खाता-पीता है, रहता है। एक आदमी का खर्च कोई मामूली नहीं होता। रहने के साथ-साथ अगर यह काम करेगा, तभी हमें पुसेगा। वरना मैं तो इसे घर में नहीं रखने की! ऐसे कौन से हमारे घर में लाखों रुपए पड़े हैं हंडिया में, जो अब दानखाता शुरू कर दें!”
कभी-कभी यह तर्क-वितर्क बढ़कर आपस की गरमागरमी तक पहुँच जाता। मास्टर जी और सरिता मैडम के जोर-जोर से बोलने की आवाजें आने लगतीं। सुनकर गोलू सिहर उठता। मास्टर जी का जोर का स्वर उसे सुनाई देता, “तुम तो लालची हो, परले दर्जे की लालची। किसी का जरा-सा सुख तुमसे बर्दायत नहीं होता।”
इस पर मैडम की और भी ऊँची, पाटदार आवाज सुनाई देती, “कुछ भी कहो, मैं अपना घर नहीं लुटवा सकती। मैंने कोई दानखाता नहीं खोल रखा। कल ही ले जाओ इस लड़के को और जाकर अनाथालय में दाखिल करवा आओ।”
गोलू सुनता तो उसका कलेजा फटने लगता। सोचता, ‘आह, मेरा भाग्य ही खराब है। तभी तो दुर्भाग्य की छाया यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ रही। लगता है कि यह डेरा भी छूटेगा!’