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पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अब रात के साढ़े ग्यारह बजे हैं। गोलू कुछ-कुछ हक्का-बक्का सा, यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ धक्के खाता-सा घूम रहा है।
उसका दिमाग जैसे ठीक-ठीक काम नहीं कर रहा।
इतना बड़ा स्टेशन। इतनी बत्तियाँ...इतनी जगर-मगर। इतनी भीड़-भाड़। देखकर गोलू भौचक्का सा सोच रहा है—यहाँ भला सोने की जगह कहाँ मिलेगी?...और सोऊँगा नहीं, तो कल काम ढूँढ़ने कैसे निकल पाऊँगा?
लेकिन धीरे-धीरे लोग कम होने लगे, तो एक बेंच पर उसे बैठने की जगह मिल गई। वह बैठे-बैठे ऊँघने लगा।
थोड़ी देर बाद बेंच खाली हो गई तो वह पैर फैलाकर लेट गया। उसे खासी ठंड लग रही थी। टाँगें कुछ-कुछ काँपने लगी थीं। एक चादर भी होती तो काम चल जाता। पर अब क्या करे गोलू?
अगर कोई यही पूछ ले कि मक्खनपुर से वह अकेला यहाँ क्यों चला आया है? उसके मम्मी-पापा कहाँ हैं? तब...? और अगर कोई आकर टिकट चेक करने लगे, तब तो आफत ही हो जाएगी न!
डर के मारे गोलू के भीतर एक सिहरन-सी पैदा हो गई थी। और इन्हीं ख्यालों में भटकते-भटकते न जाने कब, वह गहरी नींद सो गया।
बीच-बीच में सर्दी के मारे उसका पूरा शरीर काँप उठता था। तब वह नींद में ही और ज्यादा सिकुड़कर, एकदम गठरी बना-सा, खुद को ठंड से बचाने की जुगत में लग गया।
पहले पता होता तो घर से एक चादर ही ले आता। कुछ तो बचाव होता। थैले में एक-आध जरूरी सामान डालकर भी लाया जा सकता था। एक गिलास, अँगोछा या तौलिया...अगर कहीं नहाना हो, तो क्या करेगा वह?
रात भर गाड़ियों के आने-जाने की घोषणा होती रही।
सोते-सोते भी गोलू को सब सुनाई पड़ता रहा। और गाड़ियों के जो-जो नाम उसने सुने, उसे वह अपने चिर-परिचित भूगोल के ज्ञान में फिट करता रहा...कि अच्छा यह गाड़ी तमिलनाडु से आ रही है, यह कर्नाटक से, यह केरल से...!
और मजे की बात यह कि ये सारी की सारी गाड़ियों के नाम कुछ चमकदार टुकड़ों की तरह उसके सपनामें में आकर अजब-अजब तरह का खेल रचते रहे। कालिंदी...जनता...! अमृतसर...हावड़ा...! दादर...बरौनी...! देखते ही देखते ये चंचल, नटखट बच्चों में बदल गए और शुरू हो गई मजेदार आँख-मिचौनी! गोलू यह तक भूल गया कि वह जाग रहा है, या सपने में है...!
रात के बाद दिन। दिन के बाद रात...!
फिर दिन...फिर रात...फिर...?
हर दिन गोलू का एक ही काम था, टिकट खिड़की पर जाकर प्लेटफार्म टिकट खरीद लेना और सारे दिन यहाँ से वहाँ घूमते रहना। शाम होते ही किसी बेंच पर कब्जा कर लेता और रात होते-होते वहीं लुढ़क जाता। इस बीच उसने सिर्फ डबलरोटी से काम चलाया था और चाय पी थी। वह ज्यादा से ज्यादा पैसे बचाकर रखना चाहता था बुरे दिनों के लिए। एक उम्मीद भी थी, कोई न कोई भला यात्री उसे देखकर जरूर उसके मन की हालत समझ जाएगा और थोड़ा सहारा देगा। पर अभी तक उम्मीद की कोई किरण दिखाई नहीं दी थी।
और तीसरे दिन तो सचमुच गोलू की हिम्मत टूट गई। अब तो कुछ न कुछ करना ही होगा। दिन तो किसी न किसी तरह कट जाता, पर रात की सर्दी।...बाप रे बाप! ऐसे तो जान निकल जाएगी। जैसे भी हो, एक चादर तो खरीदनी ही पड़ेगी। पर उसके लिए पैसे कहाँ से लाए? कहाँ ढूँढ़े काम?
एक दिन चलते-चलते वह एक होटल के पास से निकला। मन में आया, कुछ और नहीं तो वह होटल में काम करके ही गुजारा चला सकता है।
वह छोटा-सा ढाबा-कम-होटल था। बाहर बोर्ड लगा था—कीमतीलाल का होटल। उसने एक बैरा-टाइप लड़के से पूछा, “क्यों भाई, मुझे यहाँ कुछ काम मिल सकता है?”
वह लड़का गौर से उसे ऊपर से नीचे तक देखता रहा। अजीब निगाहों से। फिर मालिक की ओर इशारा करके बोला, “इनसे बात कर लो।”
मालिक एक मोटा, काला आदमी था। बड़ी-बड़ी मूँछों वाला। दोनों हाथों में चाँदी के कड़े, अँगूठियाँ। उसने सफेद कुरता-पाजामा पहन रखा था। चेहरा जरूरत से ज्यादा बड़ा, नाक मोटी।
गोलू ने समझ लिया, यहीं आदमी कीमतीलाल होगा। उससे बात करते हुए जाने क्यों उसे कुछ झिझक भी हुई। कुछ हकलाते हुए सा बोला, “क्या मेरे लिए कुछ काम होगा आपके यहाँ?”
“क्या काम कर सकते हो तुम?” कीमतीलाल ने उसे घूरकर देखा।
“कोई भी, कुछ भी...!” गोलू की दीनता उसके स्वर में आ गई थी।
“जूठे बर्तन साफ कर सकते हो?” कीमतीलाल ने पूछा।
“हाँ।” कहते-कहते गोलू का स्वर रुआँसा हो गया।
“कितना पढ़े हो?”
“आठवीं तक।”
“ठीक है।...अभी तो काम नहीं है हमारे पास। बाद में आकर पूछ जाना।” कीमतीलाल ने कहा।
“कितने दिन बाद?” गोलू ने पूछा।
“कोई हफ्ते, दस दिन बाद।” कहकर कीमतीलाल कागजों पर हिसाब-किताब लगाने में डूब गया।
गोलू को ऐसा लगा कि जान-बूझकर ही उसे ‘न’ कहा गया है। आखिर ऐसा क्या है उसमें?
‘क्या देखने में मैं कोई खराब-सा लड़का लगता हूँ?’ गोलू ने सोचा। उसे ठीक-ठीक कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।
‘या फिर हो सकता है, इस आदमी ने सोचा हो, कहीं यह लड़का घर से भागकर तो नहीं आया? कहीं बैठे-बिठाए कोई मुसीबत गले न पड़ जाए।’
इस बीच गोलू का ध्यान अपने कपड़ों की ओर गया। कपड़े वाकई काफी मैले हो गए थे। पैंट सलेटी रंग की थी, इसलिए ज्यादा मैल उसमें पता नहीं चलती थी। पर सफेद शर्ट का तो बुरा हाल था। उसमें सफेदी नाम मात्र को भी नहीं बची थी। गोलू को खुद ही अपने आप पर शर्म आ रही थी। उसकी मम्मी तो उसे एक दिन भी इस हालत में न रहने देती, पर...
अब पुरानी चीजों को याद करने से क्या फायदा?