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कहाँ जाओगे बेटा?
साथ वाली सीट पर एक परिवार था। खुशमिजाज से दिखते पति-पत्नी। सात-आठ बरस का एक छोटा बेटा। एक छोटी सी चंचल बेटी, कोई तीन-साढ़े तीन बरस की। दोनों बच्चे खूब मगन मन बातें करते जा रहे थे। कभी-कभी आपस में झगड़ भी पड़ते, फिर खिल-खिल हँस पड़ते। उनके मम्मी-पापा भी उनकीह बातें सुन-सुनकर खुश हो रहे थे।
खुश तो गोलू भी बहुत हो रहा था, पर अंदर एक टीस, एक दर्द की लकीर सी उठती। उसे अपने मम्मी-पापा की बहुत-बहुत याद आ रही थी। बार-बार एक भय उसे सिहरा देता—पता नहीं, अब मम्मी-पापा से फिर कभी मिलना हो या नहीं?
अँधेरा घिरते ही उन लोगों ने खाने का डिब्बा खोल लिया था। आलू की सब्जी, पूरियाँ और आम का अचार।...उन बच्चों की मम्मी ने पहले अखबार के टुकड़ों पर रखकर चार-चार पूरियाँ और सब्जी बच्चों को दीं। फिर गोलू से कहा, “तुम भी खा लो बेटा!”
“नहीं आंटी, भूख नहीं है।” गोलू के मुँह से निकला। पर उन लोगों को खाना खाते देख, उसकी भूख एकाएक चमक गई थी।
अब पता नहीं, घर का खाना कब नसीब होगा? सोचते-सोचते उसकी आँखें भर आई थीं।
‘यह क्या हो रहा है मुझे? बार-बार आँसू क्यों उमड़ आते हैं आँखों में?’ गोलू अपने आप से पूछ रहा था।
आज इस समय घर होता तो मम्मी कितने प्यार से उसे गरम-गरम रोटियाँ बनाकर खिला रही होतीं!
मम्मी तो बहुत प्यार करती हैं उसे—बहुत! उसका जरा भी दुख नहीं देख सकतीं। अभी कुछ दिन पहले उसे बुखार आया था, तो मम्मी रात हो या दिन उसके पास से हिलती तक नहीं थीं। कभी उसे मौसम्मी का जूस पिला रही हैं, मनुहार कर-करके अंगूर या अनार खिला रही हैं, तो कभी सिर दबाने लग जातीं।...या फिर बातें कर करके उसका जी बहलातीं। बार-बार उसकी बलैया लेतीं, “अरे बेटा, तेरा तो चेहरा चार दिनों में कुम्हला गया है, आँखें बुझी-बुझी लगती हैं। अब जल्दी से ठीक हो, तो खिला-पिला करके पहले जैसा तगड़ा बना दूँगी!”
उफ, मम्मी पर न जाने क्या बीत रही होगी? क्यों मैंने यह बेवकूफी भरा कदम उठा लिया?...अब पता नहीं क्या होगा, क्या नहीं? गोलू रह-रहकर पछता रहा था।
“लो बेटा, ले लो...!” सामने वाली स्त्री ने अब जिद करके उसके हाथ में भी चार पूड़ियाँ रख दी हैं। साथ में आलू की सब्जी और आम का अचार। गोलू का प्रिय नाश्ता।
गोलू को लगा, मम्मी ने ही चुपचाप इस स्त्री को उसकी मदद करने भेजा है, ताकि उसका बेटा भूखा न रहे।
वह इस बार इनकार नहीं कर पाया। सच तो यह है कि उसवे बहुत जोरों की भूख लग रही थी। चुपचाप सिर झुकाकर वह खाने लगता है।
“कहाँ जाओगे बेटा?” अब इस दयालु स्त्री ने पूछा।
“दिल्ली...!”
“वहाँ कोई रिश्तेदार है क्या बेटा?”
“हाँ आंटी, मेरी मौसी हैं।” गोलू ने झूठ बोला। वह नहीं चाहता था कि किसी को उस पर खामखा शक हो।
“दिल्ली में कहाँ रहती हैं तुम्हारी मौसी, बेटा...?”
“जनकपुरी।” गोलू ने साफ झूठ बोला और डर गया।
अगर इन्हें पता चल गया कि वह झूठ बोल रहा है, तो कैसा लगेगा? और अगर आगे काई और सवाल पूछा तो झूठ यकीनन खुल जाएगा। कुछ और नहीं, अगर इतना ही पूछ लिया कि जनकपुरी में तुम्हें कहाँ जाना है बेटा, हम भी उधर ही जा रहे हैं!...तब?
गोलू का चेहरा देखते ही देखते पीला पड़ गया था। बड़ी मुश्किल से अपने अंदर के भय पर वह काबू पा सका था।
“मौसी के घर अकेले ही जा रहे हो बेटा?” अब उस स्त्री ने पूछा है। यों ही। स्नेहवश।
“हाँ, आंटी। मैं तो अकसर चला जाता हूँ। मुझे डर नहीं लगता।” गोलू बोला।
एक क्षण के लिए वह स्त्री चुप रही। फिर कुछ सोचती हुई बोली, “हमें मोतीनगर जाना है। अगर कहो तो तुम्हें जनकपुरी पहुँचा देंगे। या चाहो तो रात हमारे ही घर रुक लेना। सुबह चले जाना। ये किसी आदमी को भेज देंगे तुम्हारे साथ...!”
“नहीं आंटी, आप परेशान न हों, मैं चला जाऊँगा।” गोलू ने अटकते हुए स्वर में कहा।
अंदर-अंदर गोलू को उस स्त्री की ममता देखकर अच्छा लग रहा था। पर बाहर से वह अपने को सख्त बनाए हुए था।
“क्या कोई जनकपुरी से तुम्हें लेने आएगा बेटा?” उस स्त्री की चिंता छिप नहीं पा रही थी।
“नहीं आंटी, मुझे पता है। ऑटो में बैठकर आराम से पहुँच जाऊँगा।” गोलू ने उन्हें दिलासा दिया, तब उन्हें कुछ शांति पड़ी।
इधर गोलू सोच रहा था, ‘ये आंटी हैं तो बहुत दयालु! क्या मैं इन्हें सब कुछ सच-सच बता दूँ? ये जरूर मेरी कुछ मदद कर देंगी!’
फिर लगा, यह सब बताकर कहीं फंदे में न फँस जाऊँ? तब तो ये जरूर मेरे मम्मी-पापा को यहीं बुला लेंगी और मुझे वापस घर लौटना पड़ेगा।
‘चलो, ठीक है! वैसे जनकपुरी वाला किस्सा भी ठीक रहा!’
‘और मोतीनगर लगता है, जनकपुरी के पास ही है। तभी तो ये आंटी कह रही थीं कि...’
‘उफ, बड़ी गलती हो गई! दिल्ली के लिए चले तो गोलू यार, दिल्ली का एक नक्शा तो साथ रखना ही चाहिए था न!’
‘पर इतना होश ही कहाँ था? कल तक क्या पता था कि दिल्ली आना पड़ेगा। सो भी यों भागकर...सभी से मुँह छिपाकर!’ सोचकर गोलू फिर उदास हो गया।
उसने चुपके से फिर साथ वाले यात्री की घड़ी पर निगाह डाली। रात के आठ बजे थे।
‘अब तो घर के सब लोग खूब ढुँढ़ाई करके वापस आ गए होंगे!’ गोलू ने सोचा।
‘क्या कह रहे होंगे वे मेरे बारे में...?’ गोलू ने अंदाजा लगाने की कोशिश की।
‘जरूर सबके सब मिलकर मेरी बुराई कर रहे होंगे। कह रहे होंगे, नालायक लड़का था, उससे हमें यही उम्मीद थी। बस, एक माँ रो रही होंगी। या फिर सुजाता दीदी...!’
हो सकता है, मन्नू अंकल को भी अब तक पता चल गया हो। उन्हें कितना धक्का पहुँचेगा! उन्हें कितनी ज्यादा उम्मीदें थीं मुझसे। पीठ थपथपाकर कहा करते थे, ‘गोलू उर्फ गौरवकुमार! तुम मुझसे लिखवाकर ले लो, एक दिन तुम जरूर बड़े आदमी बनोगे!’ उफ! मैंने कुछ और नहीं, तो मन्नू अंकल की उस भावना का ही खयाल किया होता!
और माँ, दीदी और मन्नू अंकल को याद करके फिर उसकी आँखें छलछला आईं।
*
दिल्ली...आने वाला है, दिल्ली रेलवे स्टेशन!
पुरानी दिल्ली का रेलवे स्टेशन...
पूरे डिब्बे में हलचल है। हर कोई अपना सामान ठीक से पैक कर रहा है। जो थोड़ी देर पहले ऊँघ रहे थे, वे भी अब चेत गए हैं। सरककर इधर-उधर चले गए जूते, चप्पल ढूँढ़े जा रहे हैं। ऊपर से अटैचियाँ, बैग उतारकर सँभाले जा रहे हैं...धप-धप धम्म!...धप-धप धम्म!
अब सब सरककर गेट की ओर बढ़ रहे हैं।
गोलू के पास तो कोई सामान है नहीं। उसे कुछ भी नहीं सँभालना।
वह भी चुपचाप उतरने वाले यात्रियों की भीड़ में खड़ा हो गया। और पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन आते ही, भीड़ के साथ, भीड़ का हिस्सा बना, वह भी एक हलचल भरे विशालकाय रेलवे प्लेटफार्म पर उतर पड़ा।
सचमुच...विशालकाय प्लेटफॉर्म!
यहाँ सब ओर इतना शोर, इतनी हलचल, इतनी बत्तियों की जगर-मगर और इतनी ठसाठस भीड़ थी कि बहुत देर तक गोलू की समझ में ही नहीं आया कि वह आ कहाँ गया है? और अगर आ ही गया है तो वह जाए कहाँ? करे क्या?