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दिल्ली की तरफ कौन-सी गाड़ी जाएगी अंकल?
फिरोजाबाद बस अड्डे पर उतरते ही गोलू को पहला जरूरी काम लगा, गोवर्धन चाचा की नजरों से बचना। ताकि वे यह न पूछ लें कि ‘गोलू बेटे किधर जाना है, कौन-सी किताब लानी है? आओ, मैं खुद चलकर दिलवा दूँ, तुम्हें तो ठग लेगा!’
गोलू तेजी से पानी पीने के बहाने प्याऊ की ओर चला गया और उसके बाद एक बस के पीछे खड़ा हो गया। तभी उसका पैर पानी से भरे एक गड्ढे में पड़ा। छपाक...! सारी पैंट गीली हो गई। जल्दबाजी में उसका ध्यान इस गड्ढे पर गया ही नहीं था। यह तो अच्छा हुआ कि मोच नहीं आई, वरना आफत हो जाती।
वह एक हाथ से उठाकर पैंट को हलके से झाड़ने लगा। जब उसे पूरा यकीन हो गया कि गोवर्धन चाचा बस अड्डे से बाहर चले गए हैं, तो वह चुपके से बाहर आया और पैदल ही रेलवे स्टेशन की राह पर चल पड़ा।
स्टेशन पर आकर उसने एक कोने में खड़े होकर जेब में पड़े पैसे निकालकर गिने। कोई डेढ़-सौ रुपए। उसकी गुल्लक में कुल इतने ही पैसे थे। पिछले कई महीनों के जेब खर्च की बचत।
“क्या मैं जाकर दिल्ली का टिकट ले लूँ?” गोलू ने सोचा।
फिर उसके मन में आया, टिकट लिया तो सारे पैसे उसी में खर्च हो जाएँगे। फिर खाऊँगा क्या? दिल्ली में काम मिलने में कुछ समय लग सकता है, तब...?
‘ठीक है, बिना टिकट यात्रा ही सही।’
‘लेकिन...अगर टिकट चेकर आ गया तो?’ गोलू के भीतर खुदर-बुदर थी।
‘देखा जाएगा...!’
गोलू ने किसी तरह मन को समझाया और तेजी से चलकर रेलवे प्लेटफार्म पर आ गया। वहाँ उसने एक यात्री से पूछा, “दिल्ली की तरफ कौन सी गाड़ी जाएगी, अंकल?”
उसने कहा, “अरे, यह सामने खड़ी तो है। इसमें बैठ जाओ।”
गोलू को भीतर एक कँपकँपी-सी महसूस हुई। वह डरते-डरते गाड़ी में चढ़ा और किनारे वाली सीट पर बैठ गया—खिड़की के एकदम पास। दिल तेज से धुक-धुक कर रहा था।
उस सीट पर किसी और आदमी का सामान रखा था, पर उसने हड़बड़ी में यह देखा ही नहीं।
“अरे, अरे...तुम!” चौड़े चेहरे वाले उस नाटे आदमी ने दूर से घूरकर कहा, “मेरी सीट पर तुम कैसे?”
गोलू डरकर एक ओर खिसक गया।
थोड़ी देर में गाड़ी चल दी, तो गोलू को चैन पड़ा। नहीं तो उसे लग रहा था, अभी-अभी कोई गाड़ी में चढ़ेगा और टिकट पूछता हुआ हाथ पकड़कर उसे गाड़ी से नीचे उतार देगा।
पर नहीं, अब तो गाड़ी चल दी है।
और अब पेड़...! कतार-दर-कतार पेड़ तेजी से भागने लगे थे, जैसे वे गाड़ी पर चलने पर हमेशा खुश हो-होकर छुआछाई खेलते हुए भागते हैं। और साथ ही गोलू का मन भी उछल रहा था। एक साथ भय, सिहरन, आनंद...! गोलू के मन की अजीब हालत थी।
फिर इस सबको काटती हुई दुख की एक तेज लहर उठी और गोलू अंदर ही अंदर विकल हो उठा। आज पहला दिन होगा, जब अँधेरा घिरने पर वह घर में नहीं होगा। वरना तो वह कहीं भी हो, अँधेरा घिरते ही घर पहुँचने के लिए व्याकुल हो उठता था।
ट्रेन की खिड़की से बाहर झाँककर गोलू ने देखा। आसपास हलके अँधेरे की एक चादर-सी नजर आने लगी थी।
उसने चोर निगाहों से पास बैठे आदमी की घड़ी की ओर देखा।...साढ़े छह। ‘अरे, साढ़े छह बजते ही बिल्कुल रात जैसा दृश्य लगने लगा।’ गोलू ने सोचा।
अक्तूबर का महीना। सर्दियों की शुरुआत हो चुकी थी। कुछ देर बाद गोलू को हवा की हलकी ठंडक से कुछ कँपकँपी-सी महसूस होने लगी।...
गोलू को लगा, कुछ गलती हो गई। वरना एकाध मोटा कपड़ा तो साथ ले ही लेना चाहिए था। और उसके पास तो बदलने के लिए कपड़े तक नहीं थे। एक चादर या छोटा-मोटा तौलिया तक नहीं। कैसे काम चलेगा?
खैर, देखा जाएगा। जब घर से निकल ही आया हूँ तो इन छोटी-छोटी चीजों की क्या चिंता? उसने जैसे अपने आप से कहा।