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देखिए, मैं तो यहीं हूँ!
गोलू क्यों भागा घर से?...गोलू घर से क्यों भागा?
एक यही सवाल है जो मुझे इन दिनों लगातार तंग कर रहा है—रात-दिन, दिन-रात! ‘गोलू, गोलू, गोलू...।’ मैं गोलू की यादों के चक्कर से बच क्यों नहीं पा रहा हूँ? अचानक जब-तब उसका भोला-सा प्यारा चेहरा आँख के आगे आकर ठहर जाता है जैसे कह रहा हो कि ‘मन्नू अंकल, मैं तो कहीं गया ही नहीं। मैं तो यहीं हूँ। देखिए, ऐन आपकी आँख के आगे...!’
और मैं हाथ बढ़ाकर जैसे ही छूने की कोशिश करता हूँ कि गायब, एकदम गायब...उसी तरह हँसते-हँसते। चारों तरफ हँसी की चमक बिखेरकर गायब हो जाता है गोलू और मुझे पुराने दिन याद आने लगते हैं।
वे दिन जब गोलू अकसर मुझसे पढ़ने के लिए किताबों और पत्रिकाएँ ले जाता था। खासकर बच्चों की छोटी-छोटी कहानियाँ पढ़ना उसे पसंद था। और गरमी की छुट्टियों में तो हालत यह होती कि वह हर दिन एक किताब पूरी करके अगले दिन फिर मेरी स्टडी में टहल रहा होता कोई नई किताब माँगकर ले जाने के लिए। मेरे पास किताबों—किस्से-कहानी की किताबों का अकूत खजाना था। मगर गोलू भी कोई कम पढ़ाकू थोड़े ही था। एक-एक कर उसने ढेरों किताबें पढ़ डालीं और सभी किताबें बिल्कुल ठीक-ठाक हालत में वापस भी कर गया।
कहानियों के बाद उसे महापुरुषों के जीवन चरित्र पढ़ने का शौक लगा और सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, महात्मा गाँधी, रानी लक्ष्मीबाई, राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, प्रेमचंद, रवींद्रनाथ ठाकुर आदि की जीवनियाँ मुझसे माँग-माँगकर ले जाने लगा। इन जीवनियों को पढ़कर आता तो मुझसे ढेरों सवाल करता, अंकल ऐसा क्यों हुआ, वैसा क्यों हुआ?...ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए था? वगैरह-वगैरह। क्रांतिकारियों की जीवनियाँ उसे खासतौर से अच्छी लगने लगी थीं और वह कहता था, “अंकल, अब मैं समझ गया हूँ कि एक आदमी चाहे तो पूरी दुनिया बदल सकता है।”
फिर उसे प्रेमचंद की कहानियों का चस्का लगा और प्रेमचंद की ‘गुल्ली डंडा’, ‘बड़े भाई साहब’, ‘ईदगाह’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘पंच परमेश्वर’ जैसी कहानियाँ पढ़कर वह खूब तरंगिता होता और मुझसे आकर कहा करता था, “अंकल, क्या मैं चाहूँ तो मैं भी बन सकता हूँ लेखक। आखिर कैसे होते हैं लेखक?”
इस पर मैं हँसकर उसकी पीठ थपथपा दिया करता, “हाँ भई, क्यों नहीं! अगर तुम लेखक बनना ही चाहते हो तो भला तुम्हें कौन रोक सकता है? पर लेखक बनने के लिए भी पहले लिखाई-पढ़ाई तो जरूरी है न? पढ़ोगे-लिखोगे नहीं, तो अपनी बात अच्छे ढंग से कहना कैसे सीखोगे?...अच्छा लेखक तो वही होता है न जो अपनी बात अच्छी ढंग से कह पाए! तो उसके लिए पहले सीरियसली पढ़ाई करो।”
“हाँ अंकल, वह तो है...बिल्कुल!” बुदबुदाता हुआ गोलू अकसर चला जाता था। पर उसके चेहरे पर एक जाला अकसर मुझे साफ दिखाई पड़ता था, चिंता का जाला। कई बार मेरा मन होता था, उस जाले को हटाकर उससे मिलूँ और कहूँ कि, “ओ गोलू, बता तो, तेरी मुश्किल क्या है! क्या कुछ है जो तेरे अंदर चल रहा है। कौन-सा अंधड़...?”
पर मैं सोचता, सिर्फ सोचता ही रहा और वह हो गया जो नहीं होना चाहिए था। गोलू घर से भाग गया।
हाँ, तो फिर वही सवाल—गोलू घर से क्यों भागा? गोलू क्यों भागा घर से?
इसका एक जवाब तो शायद यह हो सकता है कि कुछ पढ़ाई-वढ़ाई का चक्कर रहा होगा। गोलू खासा पढ़ाकू था और जैसा मैंने पहले कहा था, मेरे घरेलू पुस्तकालय की करीब आधी किताबें वह चट कर गया था। मगर फिर भी स्कूली पढ़ाई का जो एक खास तरह का चौखटा था, उससे वह घबराता था और उसे चक्कर आने लगते थे।
फिर एक मुश्किल और थी, जो सब मुश्किलों से बड़ी थी और अब तो गोलू को किसी दावन जैसी लगने लगी थी—मैथ्स। यानी गणित की पढ़ाई। अब यह तो सबको पता था...खुद गोलू ने मुझे भी कई दफे परेशान होकर बताया था कि उसका गणित जरा कमजोर है और गणित के मैथ्यू सर से उसे थोड़ा-थोड़ा डर लगने लगा है।
इस पर मैं तो उसे ढाढ़स ही बँधा सकता था और वही मैंने किया भी। मैंने कहा कि, “देखो भाई, यह सारा चक्कर तो हाई स्कूल तक ही है। दसवीं तक जैसे भी हो, सजा समझकर इसे झेल लो, फिर आगे मैथ्स नहीं चलता, तो छोड़ो। और बहुत-सी चीजें हैं पढ़ने को!...और तुम तो गोलू, जरूर जीवन में आगे निकलोगे। लाओ, मैं आज ही तुम्हारी डायरी पर यह बात लिखता हूँ। बाद में तुम खुद चलकर देखना!”
इस पर गोलू एक फीकी सी हँसी हँस दिया था। और मैं भी कुछ-कुछ चिंतामुक्त हो गया था।
लेकिन...तब कहाँ पता थी पूरी बात। गोलू जो झेल रहा था, वह तो शायद गोलू ही झेल रहा था। गणित की वजह से शायद वह कक्षा में कई बार अपमानित भी हुआ था और इस बात से हर समय दुखी भी रहता था। उसके गणित के मास्टर मैथ्यू सर उसे जब-तब बेंच पर खड़ा कर देते और हर बार फूले हुए मुँह से फूत्कार कर कहते थे, “तुम्हें यह भी नहीं आता...मूर्ख कहीं के, ईडियट!”
अकसर गणित के होमवर्क में गोलू का सिर चक्कर खाने लगता था। फिर जब कुछ भी नहीं सूझता था तेा गलत-सलत कुछ भी करके ले जाता और डाँट खाता था।...और मन ही मन रात-दिन डरा रहता था। अकसर सपने में वह चौंक जाता, जैसे एक सींग वाला कोई जानवर लगातार उसके पीछे दौड़ रहा है और वह लगातार अपनी जान बचाने के लिए हाँफता-हाँफता भागा चला जा रहा है।...या ठोकर खाकर किसी गड्ढे में गिर गया है और वह एक सींग वाला विकराल जानवर उसकी जान के लिए उसके पास खिसक आया है।
ऐसे में कई बार वह सोते-सोते चीख पड़ता था। मगर असली बात किसी से कहते हुए उसे शर्म आती थी। कभी-कभी बहुत परेशान होने पर वह मम्मी से सिर्फ इतना ही कहता था कि, “मम्मी, मैंने एक डरावना सपना देखा है। बहुत डरावना!”
लेकिन एक सींग वाला वह डरावना पशु असल में गणित की उसकी मुसीबत है, इस बात को शायद उसने किसी को नहीं बताया था। हाँ, एक किताब के पिछले पन्ने पर उसने ऐसी कोई बात लिखी थी, जिसे पढ़कर उसके भय का थोड़ा-थोड़ा अंदाजा मैं लगा पाया था।
ठीक है, गणित गोलू के लिए मुसीबत था, लेकिन उससे दूर भागते-भागते उसने उसे खुद ही दानव बना लिया था। यह बात कभी मैं उसे समझाना चाहता था, पर इसका मौका ही नहीं मिल सका।
घर पर हमेशा गोलू को ‘पढ़ो-पढ़ो’ का नसीहत भरा शोर ही सुनाई पड़ता था। फिर चाहे मम्मी-पापा हों या सुजाता दीदी या आशीष भैया—किसी के व्यवहारा में कोई फर्क नहीं था। मगर कैसे पढ़े गोलू, यह कोई नहीं सोचता था।...यों भी आखिर कौन उसकी मुश्किलों को हल कर सकता था! मम्मी को तो ज्यादा मैथ्स आता नहीं था। पापा को आता था। मगर वे दुकान के काम से ही इतना लदे रहते थे कि घर पर भी दुकान के हिसाब-किताब की कॉपियाँ ले आते थे। सुजाता दीदी को अपने रिसर्च के काम से फुर्सत नहीं थी। फिर गणित कभी भी उनका प्रिय विषय नहीं रहा। हाँ, आशीष भैया जरूर उसकी मुश्किलें हल कर सकते थे।...पर वे यहाँ थे कहाँ? वे तो इलाहाबाद में थे और गाहे-बगाहे यहाँ आया करते थे।
तो अगर गोलू की यह हालत हुई है, तो क्या उसके लिए वही अकेला जिम्मेदार है, कोई और नहीं?
मजे की बात यह है कि गणित के सिवा गोलू के बाकी सब विषय खूब अच्छे थे। इनमें भी हिंदी, अंग्रेजी तो खूब अच्छे थे और उसका दिल करता था, वह सारे-सारे दिन इन्हीं को पढ़ता रहे। इतिहास और विज्ञान भी उसे प्रिय थे।...लेकिन गणित? उफ, यही मुसीबत है। क्या गणित पढ़ना इतना जरूरी है? क्या गणित के बगैर दुनिया का काम नहीं चलता। उफ, किसने यह मुसीबत पैदा की? क्यों की?
गोलू मन ही मन सोचा करता था।
कभी-कभी वह सोचता कि ‘अगर गणित जरूरी है तो क्या वह इस तरह से नहीं पढ़ाया जा सकता कि सबको खूब दिलचस्प लगे। हमारे सिर पर एक भारी सी सिल की तरह न पड़ा रहे!’
गोलू को याद है, गणित के शाक्य मास्टर जी थे। शायद राजाराम शाक्य उनका पूरा नाम था। वे जब गणित पढ़ाया करते थे, तो गणित गोलू को दुनिया की सबसे प्यारी चीजों में से एक लगता था। सबसे बड़ी बात थी शाक्य सर की मुसकान। पढ़ाते वक्त लगातार एक मुसकान खेलती रहती थी उनके होंठों पर। बस, तभी कुछ समय के लिए मैथ्स के प्रति प्यार पैदा हुआ था गोलू के मन में। पर वे मुश्किल से एक-डेढ़ महीने ही रहे थे, फिर वे चले गए। और उनके साथ गोलू का सुख-चैन भी!