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रग्घू खिलौने वाला
ठुनठुनिया की तारीफ तो सब ओर से हो रही थी, पर उसकी एक मुश्किल भी थी। पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता था। पढ़ाई के अलावा बाकी सब चीजें अच्छी लगती थीं। इधर-उधर घूमना-घामना, खेल-कूद, ड्राइंग, गपशप, किस्से-कहानी हर चीज में उसे मजा आता था। बस, पढ़ाई के नाम पर उसकी जान सूखती थी।
माँ कभी-कभी आजिज आकर कहती, “बेटा, पढ़-लिख लेता तो तेरा जीवन सुधर जाता। मुझे भी चैन पड़ता।”
ठुनठुनिया हँसते हुए जवाब देता, “माँ, पढ़ाई खाली किताबों से थोड़े ही होती है। मैं तो जीवन की खुली पाठशाला में पढ़ना चाहता हूँ। वहाँ नई-नई बातें सीखूँगा। किताबों में रोज वही-वही बातें पढ़ना क्या अच्छा लगता है?”
इस तरह ठुनठुनिया स्कूल की पढ़ाई तो कर ही रहा था, साथ ही साथ जब भी मौका मिलता, घुमक्कड़ी के लिए निकल पड़ता। या फिर इधर-उधर जो भी नई चीज दिखाई पड़ती, उसे सीखने की कोशिश करता था।
एक दिन शाम के समय वह घूमने के लिए निकला। दीवाली को कुछ ही दिन बाकी थे। इसलिए बाजार में खूब चहल-पहल थी। ठुनठुनिया भीड़ में आसपास की चीजें देखता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था।
अचानक उसका ध्यान खिलौनों की एक दुकान की ओर गया। खिलौने तो उसने खूब देखे थे। पर इतने सुंदर, कलात्मक और रंग-बिरंगे खिलौने वह पहली बार देख रहा था। लग रहा था, जैसे अभी बोल पड़ेंगे।...और चिड़ियाँ-तोते तो ऐसे सजीव कि बस अभी उड़ना ही चाहते हैं।
ठुनठुनिया की आँखें जैसे उन खिलौनों से ही चिपक गईं। देखकर उसका मन भरता ही न था। पास ही खिलौने वाला भी खड़ा था। वह बड़े ध्यान से ठुनठुनिया की ओर देख रहा था।
ठुनठुनिया से रहा नहीं गया तो उसने पूछ ही लिया, “ये इतने सुंदर-सुंदर खिलौने तुम बनाते हो भाई?”
“हाँ!” खिलौने वाले ने मुसकराकर कहा, “लेकिन तुम यह क्यों पूछ रहे हो?”
सुनकर ठुनठुनिया के पाँव वहीं ठिठक गए। उसने पूछा, “जरा बताओ तो भाई, तुम खिलौनों में जान कैसे डालते हो? ये तो बिल्कुल असली मालूम पड़ते हैं...!”
इस पर गले में गमछा डाले अधेड़ खिलौने वाला हँसा। बोला, “बेटा, ये क्या इतनी छोटी बात है, जो मैं जरा देर में बता दूँ?...कभी घर आओ तो खुद देख लेना, कैसे बनाता हूँ मैं ये खिलौने!” और फिर उसने अपने गाँव का पता बता दिया। कहा, “पास के गाँव द्वारकापुरी में रग्घू खिलौने वाले का घर पूछ लेना। सब जानते हैं मुझे। कोई भी बता देगा।”
अगले दिन इतवार था। ठुनठुनिया सुबह-सुबह गाँव द्वारकापुरी की ओर चल पड़ा। वहाँ रग्घू खिलौने वाले का घर पूछा, तो सचमुच कोई मुश्किल नहीं आई। रग्घू इस समय खिलौनों पर रंग करने में लगा था। ठुनठुनिया को देखा तो बोला, “आओ, पास बैठकर देखो, खिलौनों पर रंग कैसे करते हैं!”
ठुनठुनिया बड़े गौर से रग्घू को खिलौनों पर रंग करते देखता रहा। फिर बोला, “तुम्हारे पास एक और ब्रश होगा भाई? मैं भी रंग करके देखता हूँ।”
रग्घू हँसकर बोला, “क्यों नहीं? जितने ये खिलौने पड़े हैं, यह सबकी सब चिड़ियाँ हैं। इनकी पूँछ पर नीला रंग करना है। वो पड़ा है नीला रंग। पास में ब्रश भी है। फटाफट कर डालो।”
ठुनठुनिया शुरू में झिझक रहा था। हाथ काँपते थे, पर जल्दी ही उसकी कला निखर आई।...और सचमुच ठुनठुनिया ने एक के बाद एक मिट्टी की चिड़ियों में रंग भरना शुरू किया तो रग्घू पुलकित हो गया। खुशी से छलछलाती आवाज में बोला, “तुम तो बड़े काबिल हो बेटा। पहले दिन से ही कितने अच्छे रंग भरने लगे!”
“तुम सिखाओगे तो सीख जाऊँगा, रग्घू चाचा।” ठुनठुनिया ने कहा, और फिर और भी होशियारी से रंग भरने में जुट गया।
रग्घू ने देखा, ठुनठुनिया ने तो सचमुच उसे भी मात दे दी थी। इतने अच्छे रंग भरे थे कि खुद रग्घू के भरे हुए रंग उसके आगे हलके जान पड़ते थे।
अब तो रग्घू ने खिलौने बनाने की कला की सारी बारीकियाँ ठुनठुनिया को समझानी शुरू कीं। उसे हर चीज के बारे में खूब जमकर बताया कि पहले मिट्टी कैसे तैयार की जाती है...उसे अच्छी तरह गूँधकर कैसे साँचे से खिलौने बनते हैं। फिर उन्हें आँच में कैसे पकाया जाता है। खिलौने पर एक के बाद एक तरह-तरह के रंग किए जाते हैं...फिर रंग सूखने पर कैसे सावधानी से टोकरे में डालकर बाजार ले जाकर बेचना होता है।...वगैरह-वगैरह।
“पैसे तो इस कला में कोई ज्यादा नहीं आते ठुनठुनिया, पर मन का आनंद बहुत है।” रग्घू ने कहा, “हमारे घर तो पुरखों से यह कला चलती आई है। दादा जी बहुत अच्छे खिलौने बनाते थे और बापू का तो जवाब ही नहीं! उसके हाथों में तो ईश्वर की दी हुई कोई नियामत ही थी। मैं चाहूँ भी तो वैसे सुंदर खिलौने नहीं बना सकता। हाँ, याद पड़ता है, एक दिन बापू ने कहा था, ‘रग्घू, तू खिलौने छोड़कर कोई और काम कर। इस कला की अब इज्जत नहीं रही। पैसे भी नहीं हैं। फिर तू करेगा क्या, खाएगा क्या...!’ पर मैंने कहा, नहीं बापू, मुझे तो अच्छा लगता है, खिलौने बनाना। जब तक जान में जान है, यही काम करूँगा। फिर चाहे पैसे मिलें, न मिलें।”
सुनकर ठुनठुनिया ने कहा, “रग्घू चाचा, अगर तुम कहो तो मैं भी तुम्हारी मदद करूँ। एक से दो भले। हो सकता है, यह काम कुछ और अच्छा चमक जाए।”
रग्घू चाचा ने बड़े ढंग से ठुनठुनिया को सिखाया—पहले आसान-आसान चिड़ियाँ, तोते, मोर, बतख...फिर दूसरे खिलौने। ठुनठुनिया की उँगलियों में पहले इतनी लोच न थी, पर खिलौने बनाने सीखे तो हाथों में भी लय आती गई। खुद उसके अंदर से जैसे अनोखी खुशी, अनोखा प्रकाश फूट पड़ा था।
और सचमुच जब ठुनठुनिया ने खिलौने बनाने शुरू किए, तो रग्घू चाचा की छाती शीतल हो गई। बोले, “बस, तू अब यह कला सीख गया! तू चाहे तो अब अलग से भी यह काम कर सकता है। तेरे खिलौने तो मुझसे भी ज्यादा बिकेंगे।”
“नहीं रग्घू चाचा, मैं तो तुम्हारी ही मदद करूँगा। तुमसे यह कला सीखी है, तो तुम मेरे गुरु हुए। अभी तो मैं कोई गुरुदक्षिणा भी कहाँ दे पाया?” कहते-कहते ठुनठुनिया की आवाज भर्रा गई।
ठुनठुनिया के साथ ने रग्घू चाचा में सचमुच नई जान डाल दी। ठुनठुनिया ने रग्घू चाचा के साथ मिलकर नए-नए रंग-डिजाइन के खिलौने बनाने शुरू किए, तो जैसे खिलौनों की एक नई रंग-बिरंगी दुनिया ही बस गई।
ठुनठुनिया का खिलौने बेचने का अंदाज भी नायाब था। जोकर जैसी एक लंबी ऊँची-सी टोपी पहनकर वह आता और बच्चों से हँस-हँसकर कहता, “अले-अले-अले, मेले प्याले बच्चो! अपने जैसे प्याले-प्याले खिलौने ले लो, खिलौने...!” सुनते ही बच्चों की हँसी छूट जाती। वे उसी समय घर की ओर दौड़ पड़ते, ताकि जल्दी से पैसे लाकर खिलौने खरीद लें। बच्चों से ठुनठुनिया इतने प्यार से बातें करता कि हर बच्चे से उसकी दोस्ती हो जाती। जिस गली में वह जाता, बच्चों की भीड़ लग जाती। सब उससे बातें करने के लिए तरसते।
इसी तरह ठुनठुनिया जब शहर में जाकर चौराहे के पास खड़ा होकर सुरीला गाना गाकर आवाज लगाता, तो देखते-ही-देखते बाजार की सारी भीड़ उसके इर्द-गिर्द जमा हो जाती। सब ठुनठुनिया से हँसी-मजाक करते, खूब बातें करते और झटपट दो-चार खिलौने खरीद लेते। बात की बात में ठुनठुनिया के सारे खिलौने बिक जाते और वह उसी तरह सुरीला गाना गाते हुए रग्घू चाचा के घर की ओर चल पड़ता।
रग्घू चाचा के आगे ठुनठुनिया जब पैसों की थैली निकालकर रखता तो वे गद्गद होकर कहते, “ओ ठुनठुनिया! तू तो सचमुच कोई जादूगर है, जादूगर!” और वे उन पैसों में से एक-एक के पाँच सिक्के निकालकर ठुनठुनिया की हथेली पर रख देते।
ठुनठुनिया हँसकर पैसे जेब में डाल लेता। फिर कहता, “हाँ चाचा, मैं हूँ तो जादूगर, पर यह जादू मैंने सीखा तो तुम्हीं से है।”
और यों रग्घू चाचा और ठुनठुनिया दोनों के जीवन में सचमुच कुछ नए रंग छा गए थे। ये रंग जीवन के रंग थे...सच्ची खुशी के रंग!
गोमती भी खुश थी। हर दिन एक-एक रुपए के पाँच सिक्के ठुनठुनिया बिला नागा माँ के आगे रख देता। माँ हँसकर कहती, “तेरी कमाई के ये रुपए मैं अलग संदूकची में रखती जा रही हूँ रे ठुनठुनिया! बड़ा होने पर तेरी बहू भी तो लानी है।...ये पैसे तब काम आएँगे।”
सुनकर ठुनठुनिया शरमा जाता। फिर अपनी झेंप मिटाने के लिए जोर से कहता, “जल्दी खाना लाओ न माँ! भूख लगी है।”