Ek tha Thunthuniya - 13 in Hindi Children Stories by Prakash Manu books and stories PDF | एक था ठुनठुनिया - 13

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एक था ठुनठुनिया - 13

13

कहाँ गया खाना?

ठुनठुनिया जब स्कूल जाने के लिए घर से निकलता, तो उसकी माँ दोपहर में खाने के लिए या तो उसे अचार-रोटी देती या फिर केला-अमरूद। कभी-कभी मूँगफली या लाई-चने भी देती। आधी छुट्टी होने पर जो कुछ माँ टिफन में रख देती, उसे खाकर ठुनठुनिया झट खेलने चला जाता।

क्लास के दूसरे बच्चे भी ज्यादातर यही करते थे। पर क्लास में एक अमीर बच्चा था मनमोहन।...एकदम साहबजादा! वह सेठ दुलारेलाल का बेटा था। स्कूल में आधी छुट्टी में खाने के लिए वह घर से रोज नए-नए पकवान लेकर आता था। फिर एक-एक चीज निकालकर सबको दिखाकर ललचा-ललचाकर खाता। कभी कलाकंद, कभी रसगुल्ले, कभी दही-बड़े, कभी आलू की टिक्की...या गोभी के पराँठे। कभी पेठा और दालमोठ, कभी मक्खन और डबलरोटी!...

दो-एक बच्चे ललचाकर उससे माँग भी लेते। तब मनमोहन बड़ा अहसान करके थोड़ा-बहुत दे देता और फिर घमंड से भरकर अपने बढ़िया खाने की डींगें हाँकने लगता।

मनमोहन का एक ही दोस्त था, सुबोध। मनमोहन हर चीज बस उसी से बाँटकर खाता। दोनों खूब चटखारे लेते हुए खाते और बार-बार कहते जाते कि ऐसी कमाल की चीज शायद ही किसी ओर ने खाई हो!

ठुनठुनिया को ही नहीं, क्लास के सब बच्चों को यह बुरा लगता, पर आखिर कहें क्या!

एक दिन की बात है। मनमोहन सुबह से ही उछल-उछलकर कह रहा था, “सुबोध, आज मेरी माँ ने ऐसा बढ़िया खाना दिया है कि खाएगा तो तू भी याद करेगा।”

अगला घंटा गणित का था। पहाड़े याद करने के लिए पूरी क्लास बाहर गई थी। पहाड़े याद करने के बाद आधी छुट्टी की घंटी बजी। लौटकर सब बच्चे क्लास में आए और अपने-अपने टिफिन में से खाना निकालकर खाने लगे।

घमंड से भरे मनमोहन ने भी अपना चम-चम करता स्टील का बढ़िया टिफन निकाला और सुबोध को पास बुलाकर कहा, “आ जा सुबोध, आज मेरी माँ ने आलू के पराँठे और मटर-पनीर की सब्जी रखी है खाने के लिए...मजा आएगा। आ जा...आ जा झटपट!”

पर जैसे ही मनमोहन ने अपना टिफन खोला तो उसका मुँह खुला का खुला रह गया, “अरे, यह क्या! मेरे इतने अच्छे आलू के पराँठे कहाँ गए और मटर-पनीर की सब्जी? बदले में किसी ने टिफन में भूसा भर दिया और मटर-पनीर की सब्जी की जगह गोबर कैसे आ गया?”

गुस्से में मनमोहन अपने बाल नोंच रहा था और जोर-जोर से चिल्लाकर कह रहा था, “जिसने भी मेरे टिफिन में गोबर भरा है, उसे छोड़ूँगा नहीं, बिल्कुल छोड़ूँगा नहीं!”

‘गोबर...! क्या सचमुच गोबर?’ क्लास के सारे बच्चे हक्के-बक्के।

‘ऐँ, भूसा और गोबर...!’ सुनकर सब खूब हँसे।

अब तो हालत यह थी कि सारी क्लास खाना खा रही थी और सबको दिखाकर, ललचा-ललचाकर खाने वाले मनमोहन और सुबोध पैर पटक रहे थे। धमकी दे रहे थे, “जिसने भी हमारे बढ़िया-बढ़िया पराँठे चुराकर खाए हैं, उसे मास्टर जी से कहकर पिटवाएँगे।...और पिटवाएँगे ही नहीं, स्कूल से भी निकलवा देंगे। और देखना...और देखना...!”

अगले पीरियड में मास्टर भोलानाथ जी आए तो मनमोहन ने शिकायत की, “मास्टर जी, किसी चोर ने मेरा खाना चुराकर खा लिया है। बदले में मेरे टिफन में भूसा और गोबर भर दिया है।”

सुनते ही सब बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े। पीछे से एक शरारती बच्चे नटवरलाल ने चटखारे लेते हुए कहा, “अरे वाह! भूसा—हाउ टेस्टी, गोबर हाउ टेस्टी...!”

“ये क्या कह रहे हो तुम?” मास्टर जी ने गुस्से में आकर कहा, “भूसा—हाउ टेस्टी, गोबर हाउ टेस्टी...! क्या मतलब है इस बात का?”

“मास्टर जी, यह मनमोहन और सुबोध रोजाना अपरा खाना निकालकर सबको ललचा-ललचाकर खाते हैं कि पूरी हाउ टेस्टी, अचार हाउ टेस्टी। इसी तर्ज पर मैंने कहा कि भूसा—हाउ टेस्टी, गोबर हाउ टेस्टी!...”

इस पर सब बच्चे फिर जोरों से हँसे। लेकिन मनमोहन रुआँसा हो गया। बोला, “मास्टर जी, लगता है, इसी ने मेरा खाना चुराया है, ऊपर से चिढ़ा भी रहा है!”

“नहीं मास्टर जी, चोर का मैंने पता लगा लिया है।...स्कूल के बाहर एक गधा खड़ा है। थोड़ी देर पहले मैंने उसे आलू के पराँठे और पनीर की सब्जी खाते देखा है। हो सकता है, यह खाना मनमोहन का हो। चलकर देख लिया जाए, तब तो यह पक्की तरह साबित हो जाएगा कि वह गधा ही चोर है।” ठुनठुनिया ने कहा।

मनमोहन ने बाहर जाकर देखा, वाकई गधा उसी के पराँठे खा रहा था। पास ही पनीर की सब्जी भी जमीन पर बिखरी पड़ी थी।

एक बच्चे ने हँसकर कहा, “गधे, ओ गधे! तुम खाना चुराने भी लगे?”

दूसरे बच्चे ने कहा, “और ऐसे स्वाद से खाने भी लगे?”

तीसरे बच्चे ने कहा, “खाना भी ऐसा-वैसा नहीं, बल्कि अंग्रेजी ढंग का...हाउ टेस्टी!”

सुनकर मनमोहन कटकर रह गया। समझ गया, क्लास के सब बच्चे मेरे खिलाफ हैं। ज्यादा गरमी दिखने से किसी का कुछ बिगड़ेगा तो नहीं, उलटे मेरा मजाक बनेगा।

मनमोहन क्लास में आकर चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया। यही हालत सुबोध की थी। मास्टर जी तब तक पाठ पढ़ाने में लीन हो चुके थे। किसी को उसके टिफर की याद नहीं आई।

उस दिन मनमोहन और सुबोध भूखे ही रह गए। दोनों के पेट में बुरी तरह चूहे कूद रहे थे! पर क्लास के हर बच्चे की आँखों में उन्हें अपने लिए उपहास नजर आया, जैसे वे मन-ही-मन हँसकर उनसे बदला ले रहे हों।

अलबत्ता अगले दिन से मनमोहन और सुबोध की सबको दिखाकर ललचा-ललचाकर खाने की आदत खत्म हो गई। किसी ने कुछ कहा नहीं, पर सब जानते थे कि भूसे और गोबर वाला यह कमाल ठुनठुनिया का है।

मनमोहन और सुबोध ने मन-ही-मन तय कर लिया कि अब जरा ठुनठुनिया को ही देखना है, यह अपने को कुछ ज्यादा ही ‘हीरो’ समझने लगा है! पर...ऐसे नहीं, होशियारी से! पहले दूसरे बच्चों से दोस्ती करनी होगी, तब करेंगे ठुनठुनिया की ठिन-ठिन...!

जी हाँ, ठुनठुनिया की ठिन-ठिन!...और लो जी, उन्हें मौका भी मिल गया।