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आया...आया एक भालू!
एक दिन ठुनठुनिया जंगल में घूम रहा था कि उसे एक अनोखी चीज दिखाई दी। पास जाकर देखा, वह काले रंग का एक मुखौटा था जिस पर काले-काले डरावने बाल थे।
ठुनठुनिया को बड़ी हैरानी हुई, जंगल में भला यह मुखौटा कौन छोड़ गया? क्या किसी नाटक-कंपनी के लोग यहाँ से गुजरे थे और गलती से इसे यहाँ छोड़ गए। या फिर जंगल का कोई जानवर इसे शहर से उठा लाया और यहाँ छोड़कर चला गया?
जो भी हो, चीज तो बड़ी मजेदार है! ठुनठुनिया ने उस मुखौटे को उठाया और अपने चेहरे पर पहनकर देखा। मारे खुशी के चिल्ला उठा, “अरे रे, यह तो मुझे बिल्कुल फिट आ गया!”
ठुनठुनिया का मन हो रहा था, अभी दौड़कर घर जाए और शीशे के आगे खड़े होकर देखे कि यह अनोखा मुखौटा पहनकर वह कैसा लगता है? पर उसे तो उतावली थी, सो दौड़ा-दौड़ा गया नदी के किनारे। वहाँ पानी के पास सिर झुकाकर देखने लगा और सचमुच खुद अपनी शक्ल देखकर वह डर गया कि ‘अरे, यह भालू कहाँ से आ गया?’
चौंककर वह दो कदम पीछे हट गया। फिर खुद-ब-खुद अपने इस रूप पर ठठाकर हँस पड़ा।
सिर्फ ठुनठुनिया की आँखें ही थीं, जिनसे वह थोड़ा-बहुत पहचान में आता था। वरना तो वह एकदम ऐसे बदल गया था, जैसे वह ठुनठुनिया न होकर अभी-अभी जंगल से भागकर आया कोई जंगली भालू हो।...कोई एकदम जंगली भालू!
अचानक ठुनठुनिया के मन में एक आइडिया आया और वह खुद अपनी सोच पर खुश होकर उछल पड़ा। उसने सोचा, ‘अभी नहीं, मैं रात में यह मुखौटा पहनकर गाँव वालों के पास जाऊँगा, तब आएगा मजा!’
यह सोचकर ठुनठुनिया ने वह मुखौटा जतन से एक पुराने कपड़े में लपेटकर गाँव के पास वाले बरगद की डाल में छिपा दिया।
रात के समय ठुनठुनिया ने पेड़ की डाली से वह मुखौटा उतारा और पहन लिया। वह एक दोस्त से काले रंग के कपड़े भी माँग लाया था। उन्हें पहनकर वह चुपके से चलता हुआ गाँव की चौपाल तक आ गया और खूब झूमते हुए आगे बढ़ा। वहाँ दो-चार लोग बैठे आपस में कुछ बातचीत कर रहे थे। उन्होंने एक भालू को झूमते-झामते पास आते देखा तो चिल्लाते हुए सिर पर पैर रखकर भागे।
फिर ठुनठुनिया आगे बढ़ा तो रामदीन चाचा नजर आ गए। वे घर के बाहर चारपाई डालकर सो रहे थे। ठुनठुनिया ने जाते ही हाथ से हिलाकर उन्हें जगाया। नींद खुलते ही काले रंग के विशालकाय भालू पर उनकी नजर पड़ी तो वे भी चीखते-चिल्लाते हुए भाग खड़े हुए।...
अब तो पूरे गाँव में जगार हो गई। लोग चिल्लाकर एक-दूसरे से कह रहे थे, “पकड़ियोs रे, भागियो रे...पकड़ियोs रे, भागियो रे, भालूs आ गया, भालूsss! सब हाथ में एक-एक लाठी पकड़ लो और मिलकर चलो।...जरा एक आदमी आग जलाकर जलती मशाल पकड़ ले। आग देखकर भालू भागेगा, तब उसे दबोचना।”
ठुनठुनिया समझ गया, अब तो वह जरूर पकड़ा जाएगा। इसलिए उसने मुखौटा उतारकर झटपट कहीं छिपा दिया और फिर घूमता-घामता घर आकर सो गया।
सुबह ठुनठुनिया उठा तो गोमती ने कहा, “अच्छा हुआ बेटा, तू जल्दी आ गया और सो गया, वरना गाँव वालों पर तो कल बहुत बुरी बीती। सब रात भर जागते रहे।...एक बड़ा-सा जंगली भालू न जाने कहाँ से आ गया! गाँव में कितने ही लोगों ने उसे देखा पर कोई पकड़ नहीं पाया। अच्छा हुआ कि गाँव में जगार हो गई, नहीं तो क्या पता, एक-दो बच्चों को वह पकड़कर ही ले जाता और...!”
“ठीक है माँ, पर तेरे ठुनठुनिया का तो वह बाल बाँका नहीं कर सकता था।” ठुनठुनिया ने मंद-मंद हँसते हुए कहा।
“क्यों, ऐसा क्यों कह रहा है बेटा?” गोमती ने चौंककर कहा, “क्या तू जंगली भालू से भी बढ़कर है?”
“हाँ-हाँ, क्यों नहीं?” ठुनठुनिया हँसा, “मैं ठुनठुनिया जो हूँ, ठुनठुनिया! माँ का लाड़ला बेटा। ऐसे बहादुर लड़के पर हमला करने की हिम्मत है भला किसी भालू या चीते की? मेरा तो कोई बड़े से बड़ा दुश्मन भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता।...फिर भालू तो बेचारा आलू माँगने लगता! मैं उसे आलू खिलाता और झट से पकड़कर पिंजरे में बंद कर लेता।”
गोमती ने सुना तो बलैयाँ लेते हुए बोली, “अच्छा बेटा, अगर वह भालू आता तो क्या तू उससे लड़ लेता?”
“क्यों नहीं माँ, क्यों नहीं! मैं तो एक झटके में उसका मुखौटा...!” कहते-कहते ठुनठुनिया रुक गया।
“कैसा मुखौटा, बेटा?” गोमती की कुछ समझ में नहीं आया।
“मुखौटा मतलब...मुँह!” ठुनठुनिया ने समझाया, “माँ, तेरे कहने का मतलब यह था कि जैसे ही वह भालू आता, मैं तो सबसे पहले उसका मुँह रस्सी से बाँध देता। फिर उस पर ठाट से वो सवारी करता, वो...कि बच्चू याद रखता जिंदगी-भर!”
फिर हँसता हुआ बोला, “और हाँ, माँ, मैं उस भालू पर बैठकर तेरी सात परिक्रमा करता, पूरी सात!”
“चुप...!” गोमती हँसकर बोली, “ज्यादा बढ़-चढ़कर बातें नहीं किया करते।”
और ठुनठुनिया अँगड़ाई लेता हुआ उठ खड़ा हुआ, ताकि अब चलकर गाँव वालों से रात भालू के आने की गरमागरम खबरें सुनकर पूरा मजा ले सके।