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जंगल में बाँसुरी
ठुनठुनिया के घर के आगे से एक बाँसुरी बजाने वाला निकला। बाँसुरी पर इतनी प्यारी-प्यारी मीठी धुनें वह निकाल रहा था कि ठुनठुनिया तो पूरी तरह उसमें खो गया। वह सुनता रहा, सुनता रहा और फिर जैसे ही बाँसुरी वाला चलने को हुआ, ठुनठुनिया माँ के पास जाकर बोला, “माँ, ओ माँ, मुझे एक बाँसुरी तो खरीद दे!”
माँ से पैसे लेकर ठुनठुनिया ने बाँसुरी वाले से चार आने की बाँसुरी खरीदी और बड़ी अधीरता से बजाने की कोशिश करने लगा।
उसने बाँसुरी को होंठों के पास रखा। फिर उसमें जोर से फूँक मारकर बार-बार उँगलियाँ नचाते हुए, बाँसुरी बजाने की कोशिश की। पर वह बजी नहीं।...तब ठुनठुनिया ने और भी तेजी से उँगलियाँ नचाईं। ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर। सारे जतन कर लिए। पर बाँसुरी न बजनी थी, न बजी। ठुनठुनिया निराश हो गया।
इस पर बाँसुरी वाले ने हँसकर समझाया, “देखो ठुनठुनिया, ध्यान से देखो। बाँसुरी बजाते समय कहाँ हाथ रखना है, कैसे मुँह से फूँक मारनी है...ये सारी चीजें जाननी जरूरी हैं। अरे बुद्धू, यह भी एक कला है, कला! इसके लिए खूब अभ्यास चाहिए।”
अब के ठुनठुनिया ने बाँसुरी बजाई तो उसमें से थोड़ी-थोड़ी धुन निकली, भले ही वह कितनी ही अटपटी हो। उसके बाद ठुनठुनिया अकेले में कुछ देर बाँसुरी बजाता रहा। अब धुन कुछ साफ निकल रही थी, पर उसे ज्यादा मजा नहीं आया।
‘क्यों न जंगल में जाकर बाँसुरी बजाने का अभ्यास करूँ? वहाँ ज्यादा अच्छा लगेगा।’ ठुनठुनिया ने सोचा और जंगल की ओर निकल पड़ा।
जंगल में एक जगह नदी बहती थी। पास ही हरी-भरी घास थी। फूल, पेड़-पौधे भी थे। ठुनठुनिया वहीं घास पर बैठकर बाँसुरी बजाने लगा। धीरे-धीरे उसे रस आने लगा। मन में आनंद का झरना बह उठा। उसे लगा, ‘अब बनी बात...अब बन गई! वाह जी वाह, अब इस बाँसुरी में से वही जादुई स्वर फूटा है, जो बाँसुरी वाले की अपनी बाँसुरी में था।’
यहाँ तक कि जंगल की हरी-हरी घास, फूल-फल, पेड़-पौधे सब सिर हिला-हिलाकर कह रहे थे, ‘हाँ-हाँ ठुनठुनिया, अब बनी बात...अब बन गई! वाह, अब इस बाँसुरी में से वही जादुई स्वर फूटा है, जो बाँसुरी वाले की अपनी बाँसुरी में था।’
जब बाँसुरी बजाते हुए काफी देर हो गई, ठुनठुनिया थककर घास पर लेट गया। थोड़ी देर में ही उसे नींद आ गई और वह खर्राटे भरने लगा। बाँसुरी अब पास की हरी घास पर पड़ी थी।
थोड़ी देर में ठुनठुनिया की नींद खुली तो उसने चौंककर इधर-उधर देखा, बाँसुरी नदारद थी। ठुनठुनिया सन्न रह गया, ‘अरे, मेरी प्यारी बाँसुरी...! कौन ले गया उसे?’
ठुनठुनिया व्याकुल होकर चारों तरफ निगाहें घुमा रहा था। तभी अचानक उसकी निगाह सामने के पीपल के पेड़ की ओर गई। उस पेड़ के नीचे एक गिलहरी ठुनठुनिया की वही बाँसुरी थामे, बजाने की कोशिश कर रही थी।
जो भी हो, बाँसुरी में से हलकी-हलकी धुन निकल रही थी। इस पर हरे रंग का एक शरारती टिड्डा अपना नाच दिखा रहा था। दूर आम की डाली पर बैठी एक गौरैया यह सब देखकर तीखी चैं-चैं की आवाज कर रही थी।
“अरे-अरे, बाँसुरी ऐसे थोड़े ही बजाई जाती है! लाओ, मैं बजाकर दिखाता हूँ।” ठुनठुनिया बोला और गिलहरी से बाँसुरी लेकर वह खुद मगन होकर बजाने लगा।
ठुनठुनिया के बाँसुरी बजाते ही सचमुच जंगल में जादू हो गया। बहुत-सी गिलहरियाँ आईं और ठुनठुनिया के पास आकर मुग्ध आँखों से उसे देखने लगीं।
बहुत-सी चिड़ियाँ आईं और वहीं कतार बनाकर बैठ गईं। बड़े मजे से वे बाँसुरी सुन रही थीं। बहुत-सी मछलियाँ भी तट पर आ-आकर ठुनठुनिया की बाँसुरी की अनोखी धुन सुनने लगीं।
“आओ चलो, नौका-यात्रा करें। तुम वहीं अपनी बाँसुरी बजाना।” एक नन्ही गिलहरी ने कहा तो सबने खूब तालियाँ बजाईं। कहा, “वाह-वाह! इसमें तो खूब मजा आएगा।”
ठुनठुनिया नाव में बैठा तो गिलहरियाँ, गौरैयाँ, तोते और यहाँ तक कि हरा शरारती टिड्डा, सब उस नाम में आकर बैठ गए। नाव लहरों पर खुद-ब-खुद चल पड़ी। पानी पर ठुनठुनिया की बाँसुरी की धुन इतनी मीठी लग रही थी कि सारा जंगल मानो संगीत से सराबोर हो गया।
‘रुन-झुन...जंगल में, बजी बाँसुरी रुनझुन रे...!’ ठुनठुनिया की बाँसुरी का सुर हवा में हौले-हौले थरथराहट पैदा कर रहा था।
फिर थोड़ा आराम करने के लिए ठुनठुनिया ने बाँसुरी बजाना रोक दिया। बाँसुरी एक ओर रखकर वह नौका-यात्रा का आनंद लेने लगा। ‘सामने पहाड़ों पर शाम के सूरज की झिलमिल-झिलमिल! दूर-दूर तक बिखरी लाली।...आहा, कैसा अद्भुत दृश्य है! आसमान में सुनहरी किरणों का सुंदर झूला सा बन गया है। काश, मैं इस पर झूल पाता तो कितना मजा आता, कितना...!’
ठुनठुनिया इसी कल्पना में खोया था कि तभी नाव जोर से हिली और एकाएक ‘गुड़ुप’ के साथ बाँसुरी पानी में...!
“ओह!” ठुनठुनिया उदास हो गया। उसकी इतनी अच्छी बाँसुरी! अब वह कैसे मिल पाएगी?
उसने नाव में बैठे-बैठे ही हाथ बढ़ाकर बाँसुरी पकड़ने की भरसक कोशिश की, पर वह उलटी धारा में बहकर तेजी से दूर निकल गई और किसी भी तरह हाथ नहीं आ रही थी। नाव में बैठी गिलहरियाँ, गौरैयाँ, तोते और यहाँ तक कि हरा शरारती टिड्डा भी उदास था—यह क्या, जंगल का खूबसूरत संगीत ही चला गया!
एक-दो तोतों ने कोशिश भी की कि बाँसुरी को चोंच में पकड़कर नाव में ठुनठुनिया के पास ले आएँ। पर बाँसुरी उनकी चोंच से बार-बार फिसल रही थी।
आखिर नाव किनारे लगी तो ठुनठुनिया गिलहरी, गौरैया, तोतों और हरे टिड्डे से विदा लेकर घर चलने के लिए तैयार हो गया। उसके चेहरे पर उदासी थी।
गिलहरियों में से बड़ी-बड़ी आँखों वाली एक भोली-भाली गिलहरी रानी ने कहा, “तुम चिंता न करो ठुनठुनिया। कभी-कभी रामू मल्लाह यहाँ आता है। उससे कहकर हम तुम्हारी बाँसुरी जरूर पानी से निकलवा लेंगे। अगले इतवार को तुम आओगे तो तुम्हें मिल जाएगी।...तुम बिल्कुल दुखी मन होना ठुनठुनिया!”
पर अभी ठुनठुनिया घर की ओर कुछ कदम चला ही था कि अचानक उसे शोर सुनाई दिया, “मिल गई बाँसुरी, मिल गई! यह रही...अरे ठुनठुनिया, ओ ठुनठुनिया!”
ठुनठुनिया उलटे पैरों दौड़ पड़ा और उसने देखा, एक अचरज भरा दृश्य! ढेर सारी मछलियाँ कतार-की-कतार आकर किनारे पर जमा हो गई थीं। उन्हीं के बीच में थी उसकी गुलाबी रंग की सुंदर-सी बाँसुरी! मानो कोई खूबसूरत कलाकृति हो। ये मछलियाँ ही आपस में मिलकर ठेलती-ठेलती उसे पानी के बीच से किनारे तक तक ले आई थीं।
धीरे-धीरे मछलियाँ बाँसुरी को किनारे की ओर लुढ़का रही थीं। लुढ़कते-लुढ़कते बाँसुरी एकदम किनारे पर आ गई, तो ठुनठुनिया ने झट आगे बढ़कर बाँसुरी उठा ली और नाचने लगा। उसकी खुशी देखकर गौरैयाँ, तोते, मछलियाँ, हरा टिड्डा और गिलहरियाँ सबके सब मिलकर नाचे, खूब नाचे!
फिर ठुनठुनिया सबको ‘राम-राम’ कहकर बाँसुरी बजाता हुआ मजे से घर की ओर चल दिया।
पीछे से उसे सुनाई दिया, “टा-टा...टा-टा!” हरा टिड्डा जोर-जोर से हँसता और नाचता हुआ उसे टा-टा कर रहा था।