प्रकाश मनु
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सच...पगला, बिल्कुल पगला है तू!
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एक था ठुनठुनिया। बड़ा ही नटखट, बड़ा ही हँसोड़। हर वक्त हँसता-खिलखिलाता रहता। इस कारण माँ का तो वह लाड़ला था ही, गाँव गुलजारपुर में भी सभी उसे प्यार करते थे।
गाँव में सभी आकर ठुनठुनिया की माँ गोमती से उसकी बड़ाई करते, तो पुलककर गोमती हँस पड़ती। उस हँसी में अंदर की खुशी छलछला रही होती। वह झट ठुनठुनिया को प्यार से गोदी में लेकर चूम लेती और कहती, “बस, यही तो मेरा सहारा है। नहीं तो भला किसके लिए जी रही हूँ मैं!”
गोमती के पति दिलावर को गुजरे चार बरस हो गए थे। तब से एक भी दिन ऐसा न गया होगा, जब उसने मन ही मन दिलावर को याद न किया हो। वह धीरे से होंठों में बुदबुदाकर कहा करती थी, “देखा, हमारा बेटा ठुनठुनिया अब बड़ा हो गया है! यह तुम्हारा और मेरा नाम ऊँचा करेगा।...”
ठुनठुनिया अभी केवल पाँच बरस का हुआ था, पर गाँव में हर जगह उसकी चर्चा थी। जाने कहाँ-कहाँ वह पहुँच जाता और अपनी गोल-मटोल शक्ल और भोली-भाली बातों से सबको लुभा लेता। सब गोमती के पास आकर ठुनठुनिया की तारीफ करते तो उसे लगता, अब जरूर मेरे कष्ट भरे दिन कट जाएँगे!
ठुनठुनिया अकेला होता तो माँ से भी खूब बातें करता। एक दिन उसने माँ से कहा, “माँ, माँ, सभी कहते हैं कि मैं लोगों को हँसाने के लिए पैदा हुआ हूँ। क्या यह सच है?”
“मैं क्या जानूँ, बेटा?” गोमती मंद-मंद मुसकराते हुए बोली।
“और माँ, लोग तो यह भी कहते हैं कि मैं इतना हँसोड़ हूँ कि हँसते-हँसते ही पैदा हुआ हूँ। क्या यह ठीक है माँ?”
“चल बुद्धू!” इस पर गोमती ने उसके सिर पर एक चपत लगा दी, “कोई हँसते-हँसते भी पैदा होता है...? तू तो बिल्कुल पगला है!”
“सच! पगला, बिल्कुल पगला!!” कहकर ठुनठुनिया ताली बजाकर हँसने लगा। हँसता रहा...हँसता रहा—बड़ी देर तक।
माँ ठुनठुनिया की मस्ती देखकर खुश थी। पर अंदर ही अंदर कहीं डर भी रही थी शायद। वह सोचती, ‘हाय कितना भोला, कितना लाड़ला है मेरा बेटा! राम करे, कहीं आगे चलकर इसकी राह में कोई मुश्किल न आए।’
‘मेरा तो यही अकेला बेटा है...लाड़ला! इसी के सहारे शायद बुढ़ापा पार हो जाए।’ सोचते हुए गोमती की आँखों में रह-रहकर आँसू छलक आते।