वो फिर नही आते
आज पूनम के पाँव धरती पर नही पड़ रहे थे, उम्र से लंबा इन्तजार आज समाप्त हुआ था, उसकी लाडली मिनी के विवाह का दिन आया था. मेहमानों के चलते घर भर में चहल पहल थी, घर छोटा पड़ गया था. घर में रोशिनीयाँ बिखरी पडी थी, संगीत की मधुर आवाजे गूंज रही थी. दुल्हन मिनी पर निगाहें ठहरती ही ना थी. बारात हमेशा की तरह लेट आयी थी, पर सब सकुशल निपट गया था, पूनम की नजरें बार बार आसमान की तरफ उठ रही थी, जेसे वो उपर वाले की रहमतों का ऋण शुक्रिया की किश्तों से उतार रही थी. वरमाला हो चुकी थी, मिनी व् उसका दुल्हा जय फेरों पर बेठे आपस में मुस्करा कर भविष्य के सपनों का ताना बाना बुन रहे थे, पंडित जी यंत्रवत विवाह की रस्में पुरी कर रहे थे. पिछले दिनों और खासतोर पर पिछले दो दिनों से वह एक पाँव पर घूम रही थी, उसे पलभर की फुर्सत ना थी, सभी कुछ उसके ही जिम्मे था. हालांकि सब कुछ पूनम की इच्छा के अनुसार हुआ था, वह खुश तो थी, पर उसके चेहरे पर वो चमक ना थी, जो लाडली के विवाह के समय एक माँ के चेहरे पर होती है, उसका दिल बेचेन था, बेकरार था, शकुन जेसे चला गया था.
“कन्या के माता पिता को बुलाओ“ पंडित जी की आवाज़ सुन कर वो चोंक पडी .
पिता को बुलाओ- ये शब्द उसे अन्दर तक बींध गये, पूनम की आँखे और बर्दाश्त ना कर सकी, कई जमानों से रुका हुआ सब्र का बाँध अचानक सभी सीमायें तोड़ता हुआ सेलाब बन गया, और उसकी धुंधली आखों में भी अतीत जीवित हो कर,चलचित्र की तरह चलने लगा.
उसकी शादी को सात आठ साल हो चुके थे और मिनी लगभग चार पांच वर्ष की रही होगी, तब उसका अपने पति रमण के साथ एक पति पत्नी में आम चलने वाली नोक झोंक जिन्दगी भर की उलझन बन जायेगी सोचा ना था, और झगडा भी क्या था, वह अपने छोटे भाई की शादी में कानपूर से मेरठ आई थी. शादी में रमण ने रोनक लगा दी थी, चारों और उसका ही जलवा था, ये देख कर वह अपनी सहेलियों और रिश्तेदारों की तरफ विजयी नजरों से देख रही थी, मानो जता रही हो, कि देखो उसका पति केसे उसके इशारों पर नाचता है. विवाह संपन्न होने के बाद जब पूनम का भाई दुल्हन लेकर घर आ गया, तो रमण ने वापिस चलने को कहा. पूनम ने अभी काम बाकी है, का वास्ता दे कर और कुछ दिन रुकने की जिद की तो रमण एक दिन के लिए और रुक भी गया था, पर अब उसे काम धन्धे की चिंता सताने लगी थी. परन्तु एक दिन बाद भी, जब पूनम ने मम्मी के एकेले होने का राग अलापा, तो रमन ने कहा- अकेली कहां, तुम्हारा भाई भी तो है, पर पूनम चलने को तैयार नही हुई, तो रमण यह कह कर वापिस चला गया था, कि चलो तुम दो तीन दिन में आ जाना.
पूनम ने इस बात को दिल पर ले लिया की रमन क्यों चला गया, उसे मेरी कोई परवाह नही, आखिर उसका इस घर के प्रति भी तो कोई फ़र्ज़ है, पापा नही हैं, वह इस घर का जमाई है, वह मम्मी को एकेली छोड़ कर ऐसे केसे जा सकत़ा हैं, और फिर नई आई भाभी उसके बारे में क्या सोचेगी. काम तो सारी उम्र चलता रहता है, शादी रोज रोज थोड़ी ही होती है, उसका एक ही तो भाई है. दो तीन दिन के बाद रमण ने फ़ोन कर के वापिस आने को कहा तो उसने बेरुखी से जवाब दिया था-अभी काम बाकी है. इसको सवभाविक लेते हुए रमण ने कहा, चलो काम जल्द समाप्त कर आ जाना. हालांकि उसने ये बात बहुत साधारण तोर पर कही थी पर पूनम ने इसे अपना अपमान समझा, की रमन को उस की कोई जरुरत नही है, अब तो वह तभी जायेगी जब रमण उसकी मिन्नतें करेगा, फ़ोन आते रहे वह नखरे दिखाती रही, आखिर एक दिन रमण उसे लेने खुद आ पहुंचा, तो पूनम ने इसे अपनी जीत समझा और सोचा आखिर बच्चू को अपनी गलती का एहसास हो गया है, के उसके बिना घर नही चल सकता, अब तो जब तक यह अपनी गलती नही मानता, वापिस नही जाउंगी, उसने सीधे मुह रमण से बात तक नही की. रमण ने नाराजगी का कारण पूछा तो पूनम ने कहा – नाराजगी केसी जब मेरी जरुरत वहां होगी तब चली आउंगी. आज उसे याद आ रहा है, रमण ने केसे हेरान हो कर अचरज भेरी निगाहों से उसे देखा था और कहा था, जरुरत से क्या मतलब है, वह तुम्हारा घर है, वहां हमेशा ही तुम्हारी जरुरत है, क्या हम अलग अलग हैं.
“हाँ अलग अलग हैं, नही तो मेरे घर को भी तुम अपना घर समझते और यहाँ रुकते”.
रमन ने अविश्वास, हेरानी व् थोड़े गुस्से से उसे देखते हुए कहा था – तो ये तुम्हारा घर है, ठीक है जब तुम्हारा दिल करे चेले आना, और वह वापिस लोट गया था. उसके जाने की बाद भी वह यही बात सोच कर गुस्से में लाल होते रही की अगर रमण माफी मांग लेता तो क्या छोटा हो जाता, में चली जाती.
फिर बात बढती या यू कहो बिगडती चली गई थी, रमन के फ़ोन ना आने पर वह और जिद पर अड़ गई थे, की वह अपने आप को समझता क्या है, मेने ही उसका घर बनाया है, वरना शादी से पहले उनके घर में खाने के लाले थे, ये तो उसकी किस्मत के चलते रमण का व्यापार चल गया था, और यह बात कितनी ही बार रमण ने खुद उसको कही थी, और अब वह काम के नखरे उसे दिखा रहा है, बच्चू जो व्यापार बन सकता है, वो बिगड़ भी सकता है.
आज उसे समझ आता है इस सारे प्रकरण में सबसे खराब भूमिका उसकी माँ शारदा देवी ने निभाई थी, लकिन तब तो उसे सारे जमाने अपनी माँ ही अपना एक मात्र हमदर्द नजर आती थी, पूनम के पिता के पहले ही अपनी धर्मपत्नी से पीछा छुटा कर स्वर्ग सिधार गये थे. उसकी माँ ने कहा था, तुझे झुकने की कोई जरुरत नही, अभी तेरे माँ ज़िंदा है, तेरा खर्चा उठा सकती है. ना माँ ज़िंदा ही रही थी, ना खर्च ही उठा सकी थी, पूनम ने आह भरी.
“बेटी एक बार झुक गई तो सारी उम्र दब कर रहना पडेगा, तूने देखा ही होगा, हालंकि तू छोटी थी, तेरे पिताजी की मजाल थी, मेरी कोई बात टाल देते” – माँ ने पुत्री को शिक्षा दी.
माँ सही कह रही है, वह रमण को सबक सिखा कर ही दम लेगी, उसने सोचा था. और जिन्दगी ने भी उसे सबक सिखा कर ही दम लिया.
बात बड़ी तो दोनों तरफ से समझोते के प्रयास होने शुरू हो गये, उसे याद आ रहा था केसे वे लोग अपनी तरफ से मामाजी को ले कर समझोते के लिए कानपूर गये थे, क्योंकि रमण के पित़ाजी को भी वधु पक्ष में अगर किसी पर विशवास था तो सिर्फ उसके मामा जी पर ही था. जब पंचायत बिठाई गई तो मामाजी ने दोनों तरफ की बातें बड़े धर्य से सूनी व् निष्पक्ष फेसला सूना दिया, हालांकि गलती हमारी लडकी की ही है, पर दोनों पक्षों के थोड़ा झुकना पडेगा, वर पक्ष ने फेसला तुरंत मंजूर कर लिया था. पर उसे तो मामाजी पर बहुत गुस्सा आया था, ये क्यों कहा की गलती हमारी लडकी की है, मेरी क्या गलती है, बड़े बने फिरते हैं विक्रमादित्य, हमारे पक्ष की तो एक भी बात नही कही, काश उनको ले कर ही नही जाते.
“काश मामाजी की बात मान ली होती तो आज इतनी जिन्दगीयाँ बर्बाद ना होती” आज वो सोचती है, पर जिन्दगी में वापसी का रास्ता नही होता. और फिर अहंकार ने उधर भी पैर पसार लिए थे, उधर भी बहुत सी शारदा देवी थी, गुब्बारे को भी एक सीमा तक दबाया जाए तो ठीक, ज्यादा दबाने से वह भी गुस्से में फट जाता है, और आप किसी की भी इतना नज़र अंदाज करते है, तो वह भी आप के बिना जीना सीख जाता है, रमन के सब्र का गुब्बारा फट भी चुका था, मिनी से एक पल भी अलग ना रहने वाला रमण उसके बिना आगे निकल चुका था, फिर वो टूटे धागे कभी ना जुड़ सके.
वह तो नासमझ थी, काश माँ ने समझदारी दिखाई होती, काश मामाजी की बात मान ली जाती, काश ……?
“फेरों में देरी हो रही कन्या के माता पिता को जल्द बुलाएं” पंडित जी की आवाज़ उसके कानों को चीरती हुई सीधी दिल में उतर गई.