Raj-Throne--Part(18) in Hindi Classic Stories by Saroj Verma books and stories PDF | राज-सिंहासन--भाग(१८)

Featured Books
Categories
Share

राज-सिंहासन--भाग(१८)

कुछ ही समय में सोनमयी सुकेतुबाली के समक्ष थीं,सुकेतुबाली ने उससे कुछ प्रश्न पूछे......
सोनमयी! क्या तुमने किसी से सहायता लेने की आवश्यकता नहीं समझी.....
महाराज!मैनें अत्यधिक प्रयास किया,वहाँ उपस्थित व्यक्तियों को सहायता हेतु पुकारा किन्तु मेरी किसी ने ना सुनी,हाय! मेरी सखी! उस घड़ियाल ने मेरी सखी को अपने मुँख में ऐसे भरा जैसे कि कोई दैत्य किसी कोमल सी मृगी को अपने मुँख में भर रहा हो ,वो स्वयं को छुड़ाने का प्रयास भी करती रही परन्तु उस घड़ियाल ने उसे छोड़ा ही नहीं, वो वीभत्स दृश्य देखने से पहले ही मैं नेत्रहीन हो जाती तो अच्छा होता,किन्तु ये हो ना सका,हाय! मेरा दुर्भाग्य! मेरी सखी कादम्बरी! मुझे क्षमा करना,मैं तेरे प्राण ना बचा सकी,ईश्वर तेरे स्थान पर मुझे अपन समीप बुला लेता.......
सोनमयी!तुम्हें इतना हतोत्साहित होने की आवश्यकता नहीं हैं,अब नियति को कदाचित यही स्वीकार था इसलिए उसने तुम्हारी प्रिय सखी को मृत्युलोक भेज दिया,सुकेतुबाली बोला।।
किन्तु अब मैं उसके परिवारजनों से क्या कहूँगीं?सोनमयी बोली।।
क्या तुम ये सूचना उन्हें देना चाहती हो? सुकेतुबाली ने पूछा।।
जी! पालनहार! मैं अब अपने निवासस्थान पुनः लौटना चाहती हूँ,कदाचित मैं अब यहाँ दोबारा ना लौटूँ क्योंकि मेरी सखी के बिना मेरा यहाँ जी ना लग सकेगा,सोनमयी बोली।।
मन तो मेरा भी अत्यधिक ब्यथित है यह समाचार सुनकर,मैं भी व्याकुल हूँ एवं कुछ समय हेतु एकान्त में रहना चाहता हूँ,तुम बाहर जाओं तो द्वारपालों से कह देना कि कोई भी मेरे कक्ष में प्रवेश ना करें,मैं अभी कोई विघ्न नहीं चाहता,सुकेतुबाली बोला।
जी!महाराज! अब मैं जाती हूँ और इतना कहकर सोनमयी अपने इस अभिनय पर मन ही मन प्रसन्न हुई परन्तु नेत्रों में झूठ मूठ के आँसू लिए हुए सुकेतुबाली के कक्ष से बाहर निकली और सुकेतुबाली को महाराज का आदेश सुनाया,इसके उपरांत अपने कक्ष में पहुँची एवं वहाँ उपस्थित नीलमणी से बोली....
योजना सफल हुई सखी! महाराज ने सरलता से मुझ पर विश्वास कर लिया....
अब कादम्बरी की जीवनलीला समाप्त होने के पश्चात अगली योजना बनाई गई कि किस प्रकार सहस्त्रबाहु पूरब दिशा की ओर प्रस्थान करें, अब तो सोनमयी भी स्वतंत्र थी इसलिए वो भी सहस्त्र के संग जा सकती,क्योकिं उसने आपने निवासस्थान जाने का मन बनाया था इसलिए अब सुकेतुबाली उससे कोई भी प्रश्न नहीं पूछ सकता था।।
योजना ये बनी कि सहस्त्रबाहु के संग उसकी सहायता हेतु ज्ञानश्रुति,वीरप्रताप,सोनमयी भी जाऐगें,सहस्त्रबाहु ने प्रतिरोध भी जताया किन्तु कोई भी नहीं माना,योजनाअनुसार सभी रात्रि के समय निवासस्थान पहुँचे,सभी को ये सूचना देने कि सहस्त्रबाहु के माता-पिता कहाँ हैं और उन्हें मुक्त कराने के लिए सहस्त्रबाहु अपने साथियों के संग वहाँ जाएगा,भानसिंह,हीरादेवी और घगअनंग ये सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुए एवं हीरादेवी ने अपने पुत्र सहस्त्रबाहु के भाल पर अपने रक्त का तिलक करते हुए आशीर्वाद दिया कि...
विजयी भव! पुत्र! मैं ईश्वर से तेरे विजय होने की कामना करूँगी,तू अपने इस अभियान में सफल होकर लौटें।।
इसके पश्चात भानसिंह सहस्त्रबाहु से बोले....
पुत्र! तूम पूरब दिशा की ओर अपने साथियों संग प्रस्थान करों,मैं तुम्हारे पीछे पीछे और भी व्यक्तियों के संग वहाँ पहुँचता हूँ।।
जी!मामाश्री!सहस्त्रबाहु बोला।।
इस प्रकार प्रातःकाल होते ही सहस्त्रबाहु अपने साथियों के संग एवं अस्त्रों के संग अश्व पर सवार होकर अपने माता पिता को मुक्त कराने चल पड़ा,सभी दिन भर यात्रा करते रहें,जब भी भूख लगती तो वृक्षों से फल तोड़कर खाते और प्यास लगती तो झरने या नदियों का पानी पी लेते,इतनी यात्रा के पश्चात भी अभी भी गन्तव्य का कुछ भी अता-पता नहीं था,तब ज्ञानश्रुति सहस्त्रबाहु से बोला.....
भ्राता! सहस्त्र! आपके पास तो इतनी शक्तियांँ हैं उनसे ही क्यों नहीं ज्ञात कर लेते कि वो दुष्ट अघोरनाथ कहाँ रहता है,समय की कमी है हमारे पास एवं कार्य बहुत बड़ा है।।
कदाचित तुम सही कह रहे हो राजकुमार ज्ञानश्रुति! सहस्त्रबाहु बोला।।
चलो! कभी तो सही बात निकली आपके मुँख से राजकुमार ज्ञानश्रुति! सोनमयी बोली।।
मैं तो सदैव सही होता हूँ,बस आपकी दृष्टि में ही खोट है जो आप मुझे परख नहीं पातीं देवी सोनमयी!ज्ञानश्रुति बोला।।
हाँ! मान लिया मैने कि आप सबसे बड़े ज्ञानी हैं,सोनमयी बोली।।
तभी तो मेरा नाम ज्ञानश्रुति है,ज्ञानश्रुति बोला।।
बस..बस...रहने दीजिए,आपके ज्ञान की प्रसंशा,जो कार्य आवश्यक है पहले उसे प्रारम्भ करते हैं,वीरप्रताप बोला।।
हाँ!मैं तो यही कह रहा था,ज्ञानश्रुति बोला।।
इसके पश्चात एक अच्छा सा स्थान खोजकर सहस्त्रबाहु ध्यानमुद्रा में बैठा और अपनी शक्तियों को जाग्रत करने लगा,कुछ ही समय में उसने उस स्थान की दिशा और दशा दोनों ज्ञात कर ली.....
रात्रि होते होते सभी उस स्थान के समीप पहुँच गए किन्तु ये तय हुआ कि घनें वन के बीच कन्दरा के समीप वें प्रातः जाऐगें क्योंकि बसन्तसेना ना जाने कितनी शक्तिशाली हो अभी हमें ये ज्ञात नहीं है,रात्रि में ना जाने कौन सा संकट मुँह फाँड़े खड़ा हो ,ना जाने बसन्तसेना कौन सा संकट खड़ा कर दें,ये सब सोचकर वें सभी वहीं पर एक छोटे से झरने के समीप किसी वृक्ष के तले विश्राम करने लगें,सभी दिनभर के थके थे इसलिए गहरी निंद्रा में लीन हो गए परन्तु ज्ञानश्रुति पहरा दे रहा था....
अर्द्धरात्रि ब्यतीत हो चुकी थी,तभी ज्ञानश्रुति को लगा कि जैसे उसे किसी ने पुकारा है,पुकार सुनकर वो इधर उधर देखने लगा लेकिन उसे कोई भी ना दिखा,तभी एकाएक उसके पैरों में एक रस्सी पड़ी और वो वृक्ष से उल्टा लटक गया,उल्टा लटकने के पश्चात ही उसने बचाओ बचाओ चिल्लाना प्रारम्भ कर दिया,उसका उच्च स्वर सुनकर सभी जाग उठे ,परन्तु उनके जागते ही कुछ व्यक्तियों ने उन्हें बंदी बना लिया और उनमें से एक बोला.....
कौन हो तुम लोंग? और यहाँ कैसें पहुँचे?
जी! हम यात्रा कर रहे थें किन्तु अब अपने मार्ग से भटक गए हैं,अत्यधिक थक चुके थे इसलिए यहाँ विश्राम करने लगें,वीरप्रताप बोला।।
मुझे विश्वास नहीं,उनका मुखिया बोला।।
हम सत्य कह रहे हैं श्रीमान!सोनमयी बोली।।
तुम क्या युवती हो?मुखिया ने पूछा।।
जी! हाँ!सोनमयी बोली।।
तो योद्धा की वेषभूषा में क्या कर रही हो?मुखिया ने पूछा।।
जी!वन्यजीवों से बचने हेतु ऐसा वेष धारण किया है,आपको कोई आपत्ति है क्या?सहस्त्रबाहु बोला।।
तुम कौन हो?मुखिया ने सहस्त्र से पूछा।।
जी! मैं इन सभी का अग्रज हूँ,सहस्त्रबाहु बोला।।
सपरिवार कहाँ जा रहे थे?मुखिया ने पूछा।।
जी! अपने निवासस्थान लौट रहे थे किन्तु मार्ग भटक गए,सहस्त्रबाहु बोला।।
अब तुम सभी सत्य कह रहे हो या असत्य इस समस्या का समाधान तो हमारी रानी करेगीं,मुखिया बोला।।
कौन हैं आपकी रानी? सोनमयी ने पूछा।।
जी! इस वन की रानी बसन्तसेना हैं,उके आदेश के बिना कोई भी इस वन में प्रवेश नहीं कर सकता,परन्तु तुम सभी वो अपराध कर चुके हो जिसका दण्ड तुम्हें अवश्य मिलना चाहिए,मुखिया बोला।।
किन्तु ये तो हमारे संग अन्याय होगा,ये कोई अक्षम्य अपराध तो नहीं,सोनमयी बोली।।
अत्यधिक बोलती हो तुम सुन्दरी! परिचय क्या है तुम्हारा?मुखिया ने पूछा।।
तुम्हारा तात्पर्य क्या है?घृणित मानव! सोनमयी चीखी।।
क्रोधित क्यों होती हो सुन्दरी ?जो सत्य है वही तो कहता हूँ,मुखिया बोला।।
आप अपनी सीमाएं लाँघ रहें हैं,ज्ञानश्रुति बोला।
हमारी सीमाएं तो तुम सभी ने लाँघीं हैं,सर्वप्रथम तुम सभी को हमारी रानी के पास चलना होगा,तुम्हें क्या दण्ड मिलना चाहिए,वें ही तय करेगीं,मुखिया बोला।।
और फिर सभी अपने अपने अश्वों के संग बसन्तसेना के समीप चल पड़े....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....