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यह हँसता गुलाब यहीं खिलेगा, महाराज
एक बार राजा कृष्णदेव राय दरबार में आए, तो कुछ गंभीर दिखाई दिए। हमेशा की तरह दरबारियों ने हँसकर अभिवादन किया, पर राजा पहले की तरह न हँसे, न मुसकराए। किसी को लगा, राजा कृष्णदेव राय कुछ चिंतित हैं। किसी को लगा, राजा मन ही मन किसी गहन विचार-विमर्श में लीन हैं। किसी-किसी को यह भी लगा कि वे किसी अधिकारी या दरबारी से नाखुश हैं और जल्दी ही उसकी शामत आने वाली है।
पर असल में बात क्या है, किसी को पता न चली। और राजा कृष्णदेव राय इतने गंभीर थे, तो भला उनसे पूछने का साहस कौन करे?
राजा की देखादेखी सब दरबारी भी शांत और गंभीर हो गए। वैसे तो राजा कृष्णदेव राय के दरबार में हमेशा हास्य-विनोद की फुलझड़ियाँ छूटती रहती थीं, हास-परिहास और विनोद भाव के बीच दरबार का बहुत-सा गंभीर काम भी कैसे निबट गया, किसी को पता न चलता था। पर आज अलग हालत थी। सब ओर चुप्पी। सन्नाटा। समय जैसे आगे खिसक ही न रहा हो।
सब दरबारी जैसे-तैसे राजदरबार की कार्यवाही में अपना मन लगा रहे थे। पर अंदर-अंदर तो हालत यह थी कि राजा कृष्णदेव राय जितने गंभीर थे, दरबारी उससे ज्यादा गंभीर हो गए। लग रहा था, दरबार में हर कोई हँसना भूल गया है। और हँसना भूलते ही, सबका मुँह जैसे बिना बात गुब्बारे की तरह फूल गया था। कुछ बूढ़े दरबारी तो बड़ी मुश्किल से खुद को नींद और उबासियों से बचाए हुए थे।
सुबह से शाम तक इसी तरह दरबार का काम चलता रहा। उस दिन किसी बड़ी समस्या पर विचार होना था। कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए जाने थे। सभी सोच-विचार कर रहे थे और बड़ी जिम्मेदारी से अपनी राय दे रहे थे। बोलते समय सबको लग रहा था, उनके मुँह से कोई ऐसा शब्द न निकल जाए कि वे राजा के कोपभाजन बन जाएँ। इसलिए सब तोल-मोल के बोल रहे थे।
शाम के समय जब काम पूरा हुआ तो राजा कृष्णदेव राय के चेहरे का भाव बदला। उन्होंने हौले-हौले माथे को हथेली से थपथपाया। फिर किंचित मुसकराते हुए पूछा, “आप सभी ने खासी मेहनत की। अब आपकी कोई इच्छा हो तो बताइए।”
इस पर सब चुप। कौन भला कुछ बोलकर आफत मोल ले? पर तेनालीराम तो इसी क्षण की प्रतीक्षा में था। वह झट खड़ा हो गया। बोला, “हाँ महाराज, मेरी एक इच्छा है।”
राजा ने मुसकराते हुए पूछा, “बताओ...बताओ, तेनालीराम, तुम्हारी क्या इच्छा है? उसे जरूर पूरा किया जाएगा।”
राजा को थोड़ा सहज और प्रसन्न देखा तो मंत्री ने भी माहौल को कुछ हलका-फुलका करने की गरज से कहा, “महाराज, तेनालीराम की भला और क्या इच्छा होगी? यह तो सदा से पुरस्कार का लोभी है। तो बस यही कहेगा कि महाराज, मैंने आज राजदरबार के काम में सुबह से शाम तक बड़ी मेहनत की, मुझे जरा अशर्फियों की थैली दे दी जाए।...मेहनत हम सबने की, पुरस्कार यही अकेला लेकर खिसक जाएगा।”
सेनापति ने कहा, “महाराज, मेरे दिमाग में अभी-अभी एक बड़ा अच्छा विचार आया है।”
“हाँ-हाँ, बताओ...बताओ!” राजा ने उत्सुकता से कहा।
“महाराज, मुझे लगता है कि हमें एक जासूस इस बात के लिए लगाना चाहिए, जो यह पता करे कि तेनालीराम पुरस्कार में मिली इतनी मुद्राओं का करता क्या है? जरूर इसने जमीन में बहुत बड़ा गड्ढा खोद रखा होगा। उसी में अशर्फियाँ भर-भरकर ऊपर पत्थर रख देता होगा। कभी कोई चोर-डाकू आ गया तो यह सारा खजाना एक साथ ही चला जाएगा।”
सुनकर सब हँसने लगे। राजा कृष्णदेव राय के चेहरे पर भी हास-परिहास की थोड़ी मृदुलता नजर आने लगी थी।
तभी अचानक राजा का ध्यान फिर से तेनालीराम की ओर गया। उन्होंने कहा, “तेनालीराम, तुमने बताया नही कि तुम्हारी क्या इच्छा है?”
इस पर तेनालीराम बोला, “महाराज, आपने देश-देश के गुलाब मँगवाकर गुलाबों का अनोखा बगीचा बनवाया था। बहुत दिनों से उसे देखा ही नहीं। इस मौसम में तो वहाँ गुलाब के फूलों की खूब बहार होगी। जाड़े के इस खुशनुमा मौसम में आपके साथ हम सभी उस बगीचे की सैर करें, मेरी यह इच्छा है।”
सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने मुसकराकर कहा, “ठीक है तेनालीराम!”
अगले दिन राजा कृष्णदेव राय के साथ सभी दरबारी बेशकीमती गुलाबों का वह अनोखा बगीचा देखने गए। वहाँ गुलाबों की एक से एक नई किस्में थीं। रंग-रंग के गुलाब! सर्दियों के गुनगुने मौसम में सारे गुलाब हँसते नजर आते थे। देखकर राजा और दरबारी सभी खुश हो गए।
तेनालीराम बोला, “महाराज, सर्दियों के इस गुलाब-उत्सव की शोभा तो तब होगी, जब दरबारियों में से हर कोई कुछ न कुछ गाकर सुनाए। शुरुआत मैं करता हूँ।”
उसी समय तेनालीराम ने खुद अपनी बनाई एक हास्य कविता सुना दी। उसमें एक पेटूमल का मजेदार किस्सा था। उसे दावत में एक लोटा भरकर खीर, अस्सी पूरी, सौ कचौड़ियाँ, पाँच सेर लड्डू और इतनी ही रबड़ी खाने को दी गई। उसने सब कुछ खाया और मजे-मजे में पेट पर हाथ फेरने लगा। तभी किसी ने उससे पूछा, “क्यों जी पेटूमल, अब तो तृप्ति हो गई?” इस पर उसका जवाब था, “अभी कहाँ...? अभी पापड़ तो मैंने खाया ही नहीं। तो अभी तो जरा भूख बाकी है...!”
यह मजेदार हास्य कविता सुनकर राजा कृष्णदेव राय हँसने लगे। दरबारियों ने भी खूब मजा लिया।
मंत्री ने पूछा, “क्यों तेनालीराम, तुमने कहीं हमारे राज पुरोहित जी पर तो नहीं लिखी यह कविता?”
इस पर राजपुरोहित समेत सभी हँसे। राजा कृष्णदेव राय भी परम आनंदित हो, खूब खिलखिलाकर हँस रहे थे।
और दरबारियों ने भी अपने-अपने अंदाज में कार्यक्रम पेश किए। पुरोहित जी ने मिठाईलाल की हास्य-कथा सुनाई। मिठाईलाल मिठाइयों के इतने शौकीन थे कि बातें करते-करते अगर कोई किसी मिठाई का नाम ले देता, तो झट से उसे खाने के लिए हलवाई की दुकान की ओर दौड़ लगा देते। एक बार भागकर हलवाई की दुकान पर जल्दी पहुँचने की उतावली में, बेचारे रात के अँधेरे में एक बड़े-से गड्ढे में गिरकर हाथ-पाँव तुड़वा बैठे। फिर उस गड्ढे में बैठे-बैठे उनकी रात कैसे कटी, इसका बड़ा मजेदार वर्णन था। राज पुरोहित जी का सुनाने का ढंग ऐसा लाजवाब था कि सब हँसते-हँसते लोटपोट हो गए।
खुद राजा कृष्णदेव राय इतने रंग में आए कि उन्होंने बचपन में दादी माँ से सुनी एक मजेदार कविता सुना दी। उस कविता में एक जादूगर तोते और तोती का वर्णन था, जो सारी दुनिया को खुशियों से भर देने के लिए निकल पड़े थे। उन्हें बड़े अजब-गजब अनुभव हुए। खासकर बात-बात पर ‘ऐं...ऐं!’ करने वाली बूढ़ी नानी सरस्वती का किस्सा सुनाते हुए खुद राजा कृष्णदेव राय की हँसी छूट गई। सब दरबारी भी हँसने लगे।
शाम ढलने पर सभी चलने लगे, तो राजा कृष्णदेव राय ने मुसकराते हुए कहा, “आज बहुत आनंद आया। गुलाबों की हँसी के साथ रहकर लगता है, हमें भी अपनी हँसी वापस मिल गई।”
तेनालीराम हँसा। बोला, “महाराज, इसलिए तो मैंने गुलाब वाटिका में घूमने की इच्छा प्रकट की थी। मेरी उस इच्छा में आपकी इच्छा भी शामिल थी। कल आप दरबार में आए, तो आपके चेहरे पर हमेशा रहने वाली हँसी नहीं थी। तभी मुझे लगा, रोज के कामों की ऊब को खत्म करने के लिए जरा गुलाबों के बीच जाएँ! और सचमुच आज गुलाबों के बीच आकर आपका चेहरा भी गुलाब की तरह खिल गया है। लगता है, मंत्री और पुरोहित जी ने भी आज की गुलाब गोष्ठी का पूरा आनंद लिया है।”
सुनकर राजा कृष्णदेव राय को हँसी आ गई। उन्होंने हँसते हुए सुर्ख गुलाब का एक फूल तोड़कर तेनालीराम के कुरते पर लगा दिया। बोले, “यह हँसता गुलाब यहीं खिलेगा!”