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जब तेनालीराम को मिला देशनिकाला
राजा कृष्णदेव राय तेनालीराम को जी-जान से चाहते थे। पर कई बार बड़ी अटपटी स्थितियाँ हो जाती थीं। असल में राजा कृष्णदेव राय के दरबार में चापलूसी करने वाले और चुगलखोर दरबारियों की भी कोई कमी नहीं थी। उन्हें मंत्री और राजपुरोहित ताताचार्य की भी शह मिल जाती। राजा ऐसे चुगलखोर दरबारियों को पसंद नहीं करते थे, पर कभी-कभी उनके प्रभाव में भी आ जाते थे।
एक बार ऐसा ही कुछ अजीब किस्सा हुआ, जिसमें तेनालीराम को बिना बात राजा का कोपभाजन बनना पड़ा। हुआ यह कि तेनालीराम के गाँव में एक गरीब युवक रहता था पुंडल। एक बार तेनालीराम गाँव गया तो पुंडल की बूढ़ी माँ लाठी टेकते हुए उससे मिलने आई। बोली, “बेटा तेनालीराम, तुम तो राजा कृष्णदेव राय के दरबार में हो। वे तो बड़े प्रतापी राजा हैं। सुनते हैं, राजा इंद्र से बढ़कर उनका यश और कार्ति हैं। फिर तुम्हें तो वे मानते भी बहुत हैं। गाँव में सब कह रहे हैं कि राजा कृष्णदेव राय तुम्हारा कहना हरगिज नहीं टालते। बेटा तेनालीराम, मैं इसीलिए इस उम्र में खुद चलकर तुमसे मिलने और कुछ याचना करने आई हूँ। तुम तो जानते ही हो, मेरा एक ही बेटा है, पुंडल। बड़ी लगन से पढ़ाया-लिखाया, पर अभी तक उसे ढंग का कोई काम नहीं मिला। अगर तुम राजा कृष्णदेव राय से कह दोगे तो जरूर उसे वहाँ काम मिल जाएगा। इससे मुझ दीन-हीन बुढ़िया का भी कुछ सहारा हो जाएगा।”
तेनालीराम बोला, “ठीक है, अम्माँ! तुम पुंडल को मेरे पास भेजना। उससे बात करके ही मैं कुछ कह पाऊँगा कि राजा कृष्णदेव राय के दरबार में उसकी नियुक्ति हो सकती है या नहीं?”
पुंडल आया तो तेनालीराम के चरणों में गिरकर बोला, “अब आप ही मेरा उद्धार कर सकते हैं। मेरी बूढ़ी माँ की आशा भरी नजरें मेरी ओर लगी हुई हैं, पर मुझे पढ़-लिखकर भी कोई ढंग का काम अभी तक मिला नहीं। अगर आप कुछ कृपा कर दें तो मेरे जीवन में तो आशा पैदा होगी ही, मेरी माँ को बुढ़ापे में बड़ी शांति मिलेगी।”
तेनालीराम ने पुंडल से बात करके उसकी शिक्षा और योग्यता के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी हासिल कर ली। फिर बोला, “चिंता न करो पुंडल, मैं कुछ न कुछ करूँगा। मैं यह आश्वासन तो नहीं देता कि राजा कृष्णदेव राय के दरबार में तुम्हें अवश्य काम मिल जाएगा, पर जो कुछ मुझसे हो सकेगा, मैं करूँगा जरूर।”
पुंडल बोला, “आपने इतना कह दिया तेनालीराम जी, तो मुझे ठंडक पड़ गई। इतने से ही लग रहा है, जैसे मुझे नया जीवन मिल गया। मुझे विश्वास हो गया कि मेरे जीवन की निराशा और अंधकार अब समाप्त हो जाएगा।”
तेनालीराम ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “धीरज रखो भाई, कुछ न कुछ तो होगा। मैं अपनी ओर से कोई कोर-कसर न छोड़ूँगा।”
सुनकर पंडल ने फिर से हाथ जोड़े। काँपते हुए स्वर में बोला, “मैं आपका जीवन भर आभारी रहूँगा तेनालीराम जी।”
तेनालीराम छुट्टियाँ खत्म होने के बाद दरबार में आया तो पुंडल की बात उसे याद थी। उसने राजा कृष्णदेव राय से निवेदन किया, “महाराज, मेरे गाँव का ही पुंडल बड़ा पढ़ा-लिखा और समझदार युवक है, पर बेचारे का भाग्य अभी जागा नहीं। इसकी वृद्धा माँ बहुत परेशान है। आप कृपा करके इसे राजदरबार में कुछ काम दे दीजिए तो मुझ पर आपका बड़ा उपकार होगा। नहीं तो अगली बार गाँव जाने पर पुंडल की वृद्धा माँ की आँखों का सामना करना मेरे लिए तो बहुत कठिन हो जाएगा।”
इस पर राजा कृष्णदेव राय मुसकराकर बोले, “तुम निश्चिंत रहो तेनालीराम। तुमने बिना कहे काफी कुछ कह दिया। बस समझो, पुंडल की नियुक्ति के लिए इतना आधार काफी है।”
कुछ दिन बाद ही राजा कृष्णदेव राय ने तरस खाकर पुंडल को दरबार में कुछ काम सौंप दिया। कहा, “तेनालीराम ने मुझे तुम्हारे बारे में सब कुछ बता दिया है। अगर तुमने मेहनत और लगन से अपना काम किया तो जल्दी ही मैं कोई महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी तुम्हें दूँगा।”
पुंडल बोला, “महाराज, आपको मुझसे कभी कोई शिकायत न होगी।”
पर पुंडल बाहर से कुछ और था, अंदर से कुछ और। राजदरबार में आते ही उसने अपना असली रूप दिखाया। वह था चुगलखोर। हर वक्त किसी न किसी की बुराई करता रहता। राजा कृष्णदेव राय भी उसकी चापलूसी भरी बातों में आ गए। कुछ दिनों बाद उन्होंने उसे अपना प्रमुख दरबारी बना लिया।
मुँहलगा दरबारी अब राजा कृष्णदेव राय के और अधिक निकट आ गया। तेनालीराम की जगह हथियाने की कोशिश करने लगा। हर वक्त राजा कृष्णदेव राय के कान भरता, “तेनालीराम बूढ़ा हो गया है महाराज! अब उससे कुछ होता नहीं। जब देखो, राजदरबार में ऊँघता रहता है।”
एक बार तो उसने यह भी कहा, “महाराज, आप तेनालीराम की चतुराई की बहुत बात करते हैं, पर मुझे तो उसमें ऐसी कोई खासियत नहीं लगती। इसके बजाय मुझे तो वह बड़ा बूदम लगता है, खासा झक्की और सनकी! राजदरबार में बात कैसे शिष्टता से करनी चाहिए, उसको तो यह समझ और विवेक ही नहीं है।”
तेनालीराम के कानों तक यह बात पहुँची, पर वह चुप रहा।
एक दिन राजदरबार में किसी गंभीर विषय पर चर्चा हो रही थी। दोपहर का समय था। तेनालीराम को एक पल के लिए हलकी सी झपकी आ गई। चुगलखोर दरबारी पुंडल ने हाथ के इशारे से राजा को बता दिया। उसने इस ढंग से इशारा किया कि और सभासद भी हँस पड़े।
तेनालीराम को सोते देख, राजा कृष्णदेव राय का पारा चढ़ गया। क्रोध में आकर बोले, “तेनालीराम, तुम आज ही राज्य छोड़कर चले जाओ। हम तुमसे तंग आ चुके हैं।”
सुनकर तेनालीराम हक्का-बक्का रह गया। पर पुंडल को मुसकराते देख, सब समझ गया। वह हाथ जोड़कर विनम्रता से बोला, “महाराज, आपकी आज्ञा सिर माथे। पर मेरी एक इच्छा है। मैंने लंबे समय तक आपकी सेवा की है। उम्मीद है, मेरी आखिरी इच्छा तो आप पूरी करेंगे ही।”
“हाँ-हाँ, कहो। क्या इच्छा है तुम्हारी?” राजा कृष्णदेव राय ने अपने गुस्से को काबू करके, कुछ नरमी से पूछा।
“महाराज, मैं विजयनगर छोड़कर जाने को तैयार हूँ। बस मेरे साथ पुंडल को भेज दीजिए।”
“क्यों?” राजा कृष्णदेव राय ने हैरान होकर पूछा, “भला पुंडल को क्यों...?”
“महाराज, विजयनगर में इतने लंबे समय तक मैं आपकी कृपा का पात्र रहा। लिहाजा इसे छोड़कर जाते हुए मन तो दुखी होगा ही। अकेले ऊब जाऊँगा। दिल में रह-रहकर हूक उठेगी।...पर साथ में एक चुगलखोर होगा तो समय आनंद से कटेगा। दोनों मिलकर आपकी चुगली करेंगे। पुंडल मेरे सारे उपकारों को भूलकर मेरे पीछे मेरी बुराई कर सकता है, तो भला आपके पीछे आपकी चुगली करने से क्यों चूकेगा?”
सुनते ही राजा कृष्णदेव राय के चेहरे पर मुसकराहट आ गई। बोले, “तेनालीराम, तुमने हमारी आँखें खोल दीं। तुम यहीं रहोगे। तुम्हें यह राज्य छोड़कर जाने की जरूरत नहीं है। अब मैं समझ गया हूँ कि कौन सा दरबारी हमारे राजदरबार में रहने के योग्य नहीं है!...ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है, मेरी आँखें खुल तो गईं, हालाँकि अफसोस! थोड़ी देर से खुलीं।”
चुगलखोर दरबारी पुंडल को उसी दिन राजदरबार से निकाल दिया गया।
बाद में राजा को पता चला कि मंत्री, सेनापति और राजपुरोहित ताताचार्य तीनों ने उकसाया था पुंडल को। उन्हीं के कहने पर वह तेनालीराम की तौहीन कर रहा था। राजा ने फटकारा तो उन्होंने अपनी गलती मान ली।
राजदरबार में तेनालीराम का मान-सम्मान अब और बढ़ गया था। उसने जिस शिष्टता और बाँकपन से चंद शब्दों में ही सारी बात राजा कृष्णदेव राय को समझा दी, उससे लोग हैरान और अचंभित थे। खुद राजा कृष्णदेव राय भी मुसकराते हुए कहते, “भई, ऐसे मौकों पर ही तो खरे सोने की परख होती है!”
पूरे विजयनगर में चुगलखोर पुंडल वाला किस्सा इतना मशहूर हुआ कि लोग रस ले-लेकर इसका वर्णन करते। फिर ठठाकर हँसते हुए कहते, “ऐसे एक नहीं लाख पुंडल भी क्यों न आ जाएँ, पर तेनालीराम का बाल बाँका नहीं कर सकते!”