Itihaas ka wah sabse mahaan vidushak - 6 in Hindi Children Stories by Prakash Manu books and stories PDF | इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 6

Featured Books
Categories
Share

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 6

6

कौन है असली, कौन है नकली?

राजा कृष्णदेव राय बहुत बुद्धिमान और कलाप्रिय राजा थे। उन्होंने खुद भी बड़े उत्तम कोटि के ग्रंथों की रचना की थी। इसलिए वे लेखकों, कलाकारों और विद्वानों का हृदय से सम्मान करते थे। इसलिए विजयनगर ही नहीं, दूर-दूर के राज्यों के प्रसिद्ध विद्वान और कलावंत भी राजा कृष्णदेव राय के दरबार में आकर खुद को धन्य मानते थे। यहाँ तक कि देश-विदेश के ऐसे कवि, लेखक और कलाकार भी, जिन्हें दुख था कि उनकी प्रतिभा को किसी ने समझा-परखा नहीं, बड़ी आशा लेकर विजयनगर आते थे और राजा कृष्णदेव राय का व्यवहार देखकर गद्गद हो उठते थे।

गुणों का सम्मान करने वाले राजा कृष्णदेव राय उनका कवित्त सुनकर या उनकी कला की मात्र एक झलक देखकर ही पहचान जाते थे कि उनकी प्रतिभा किस कोटि की है। फिर वे प्रसन्नचित्त होकर रत्न और अशर्फियाँ उपहार में देकर सभी का उचित सम्मान करते थे। विजयनगर के दरबार से कभी कोई कवि, विद्वान या कलाकार निराश या खाली हाथ नहीं लौटा।

इतना ही नहीं, स्वयं राजा कृष्णदेव राय के दरबार में भी सभी अलग-अलग विद्याओं के एक से एक प्रकांड पंडित, विद्वान और श्रेष्ठ कलावंत थे। राजा हमेशा उन्हें प्रोत्साहित करते थे, ताकि अपने-अपने क्षेत्र में वे खूब उन्नति करें और नाम कमाएँ। इससे राजा कृष्णदेव राय और विजयनगर की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई थी। उन्हें लोग कवियों जैसे हृदय वाला वीर और प्रतापी राजा कहा करते थे, जिसके धनुष की टंकार से दिशाएँ काँपती थीं। पर वे उतने ही सहृदय और भावुक भी थे।

एक बार की बात, राजदरबार में शाही चित्रकार विजयलिंगम ने कहा, “महाराज, मैंने गाँव-कूचे की साधारण बस्तियों में रहने वाले लोगों के कुछ सुंदर चित्र बनाए हैं। बच्चों, बड़ों, स्त्री और पुरुषों के साथ-साथ वहाँ की प्रकृति, पेड़-पौधों और फूलों के भी एकदम नए ढंग के चित्र है। देखकर आप दंग रह जाएँगे। मेरी इच्छा है, राजसी चित्रशाला में उन चित्रों की प्रदर्शनी हो। उद्घाटन आप करें।”

राजा कृष्णदेव राय ने तुरंत हामी भर ली। बोली, “विजयलिंगम जी, मैं इसके लिए सहर्ष प्रस्तुत हूँ। राज-काज के कामों की निरंतर व्यस्तता में कला, संगीत और विद्वत्ता के साहचर्य में कुछ आनंद-विनोद के पल मिल जाएँ, तो मेरे जैसे कवि-हृदय व्यक्ति को लगता है, जैसे मन की मुरझाई हुई बगिया खिल उठी हो। मैं अवश्य ही आपके नए चित्रों की कला-प्रदर्शनी में आऊँगा और आप कहेंगे तो उद्घाटन भी कर दूँगा। आप आयोजन की पूरी व्यवस्था कर लें। जिस भी वस्तु का आवश्यकता हो, उसके लिए मंत्री जी से कहें। प्रबंध हो जाएगा। आयोजन भव्य होना चाहिए और उसके लिए राजधानी के ही नहीं, दूर-दूर के कलाप्रेमियों को भी निमंत्रण भिजवाइए। आयोजन से एक दिन पहले मुझे बता दें, ताकि उसी के अनुकूल अपना सारा कार्यक्रम बना लूँ।”

कुछ दिनों बाद शाही चित्रशाला में राज कलाकार विजयलिंगम के चित्रों की प्रदर्शनी हुई। चित्र देखकर राजा कृष्णदेव राय हैरान रह गए। चकित होकर बोले, “ये तो अद्भुत चित्र हैं, एकदम अद्भुत!...अरे भाई विजयलिंगम जी, राजधानी में रहते हुए आपने गाँव वालों के ऐसे सुंदर और सजीव चित्र बनाए हैं, जिनमें जीवन धड़कता है। कमाल है! इस तरह के आपके चित्र तो कभी देखे ही नहीं। ये तो बिल्कुल अलग तरह की कलाशैली के चित्र हैं। एकदम अपूर्व! मुग्ध कर देने वाले! रंग-योजना और शैली भी एकदम अनूठी है। और कल्पना भी कितनी कौतुक भरी! आपने ये चित्र अभी तक कहाँ छिपाकर रखे थे? हमें तो दिखाए नहीं।”

“महाराज, मैंने सोचा था, एक साथ इतने चित्र दिखाकर आपको चकित कर दूँगा। इसीलिए बना-बनाकर इकट्ठे करता जा रहा था।” शाही चित्रकार विजयलिंगम ने तनिक झेंपते हुए कहा।

राजा कृष्णदेव राय ने कला-प्रदर्शनी में शाही कलाकार विजयलिंगम के चित्रों का खूब तारीफ की। बोले, “आज इन चित्रों को देखकर लग रहा है, मैं एक नई ही दुनिया में आ पहुँचा हूँ। यह ऐसी दुनिया है, जिसमें वास्तविक दुनिया के रंग-आकार हैं, धरती के जीते-जागते लोग हैं, पर कला की दुनिया में आकर वे कुछ और हो जाते हैं। सचमुच ही कुछ और...! वे रोज-रोज के हमारे जाने-पहचाने चेहरे इस कला की दुनिया में आकर एक अनूठी सुंदरता से भर जाते हैं। प्रकाशवान हो उठते हैं!”

फिर एक चित्र को गौर से देखते हुए उन्होंने कहा, “अब आप लोग देखिए, यह सामने वाले चित्र में जो एक बुढ़िया का चेहरा है, वह चेहरा नहीं, मुझसे पूछिए तो, झुर्रियों की झोली जैसा है। फिर भी कितना अद्भुत, कितना विलक्षण! जैसे यह बूढ़ी स्त्री हम सबकी माँ हो, हमारी प्यारी धरती माँ हों।...कहाँ से आया इसमें ऐसा सौंदर्य? मेरा मन कहता है, जीवन के रोजमर्रा के सुख-दुख झेलते हुए ही ऐसा तेज आ गया इसमें।...और यही बात दूसरे चित्रों के बारे में भी है। सभी में जीवन की सच्चाई खिली-खिली सी सामने आती है तो साथ ही कल्पना की मुक्त उड़ान भी है। मेरे कलाप्रेमी मित्रो, यही तो इस धरती पर सबसे बड़ी कला है...जीवन की कला!”

कहते हुए राजा कृष्णदेव राय ने बेशकीमती रत्नों से जड़ा हार पहनाकर और रेशमी दुशाला ओढ़ाकर कलाकार विजयलिंगम का सम्मान किया।

लौटते समय भी राजा कृष्णदेव राय का आनंद भीतर समा नहीं रहा था। उन्होंने दरबारियों से कहा, “वाह-वाह, कितने सजीव लग रहे थे विजयलिंगम के वे चित्र! सचमुच यही तो कला है!”

तभी एकाएक तेनालीराम बोला, “किंतु महाराज, मुझे भी इस बारे में कुछ कहना है।”

“हाँ-हाँ, कहो, कहो तेनालीराम!” राजा कृष्णदेव राय उत्साहित होकर बोले।

“महाराज, चित्र वाकई अच्छे हैं, पर इस कला का दूसरा चेहरा और है।” तेनालीराम बोला, “वह इससे भी आश्चर्यजनक और अवर्णनीय है। उसे तो आपने देखा ही नहीं!”

“कला का दूसरा चेहरा! आश्चर्यजनक और अवर्णनीय...! यह क्या कह रहे हो तुम?” राजा ने हैरानी से कहा।

“हाँ महाराज, मैं ठीक कह रहा हूँ। ये चित्र वाकई आश्चर्यजनक और अवर्णनीय हैं और इनकी प्रशंसा के लिए आपको ऐसे ही शब्द भी ढूँढ़ने पड़े, जैसे शब्द केवल आप जैसा कलापारखी राजा ही कह सकता है। पर महाराज, मेरा विश्वास है कि इस कला का जो दूसरा चेहरा मैं आपको दिखाने ले जा रहा हूँ, उसे देखकर तो आप बिल्कुल गूँगे ही हो जाएँगे और बहुत चाहकर भी आपको अपने मन के भाव कह पाने के लिए शब्द तक नहीं मिलेंगे।...आप एकदम अवाक रह जाएँगे महाराज, अवाक...!”

“तुम क्या कह रहे हो तेनालीराम? मुझे तो तुम्हारी कोई बात समझ में नहीं आ रही।” राजा कृष्णदेव राज ने कुछ परेशान होकर कहा।

“तो चलिए महाराज, आप स्वयं देख लीजिए। कला का वह दूसरा चेहरा जो इससे भी अधिक आश्चर्यजनक और अवर्णनीय है! अभी कुछ ही क्षणों में वह आपकी आँखों के सामने होगा।”

तेनालीराम के आग्रह पर राजा कृष्णदेव राय दरबारियों के साथ चल पड़े। कुछ ही आगे गए थे कि सड़क के किनारे एक पागल सा युवक दिखाई दिया। कपड़े अस्त-व्यस्त. सारे शरीर पर धूल ही धूल। सामने एक चित्र था। चुटकी भरकर उस पर धूल डालता और फिर खुद पर। साथ ही बड़बड़ाता भी जा रहा था, “तू इसी लायक है, इसी लायक...बस, इसी लायक।...थू है तुझ पर, थू!”

राजा कृष्णदेव राय चौंके। सोचने लगे, ‘यह चित्र तो शाही प्रदर्शनी के चित्रों से एकदम मिलता-जुलता है। इस युवक के पास कहाँ से आया? और यह उस पर धूल क्यों डाल रहा है?...इस तरह दुखी मन से बड़बड़ा क्यों रहा है? यह तो बड़ी अजीब सी बात है।’

उन्होंने पास आकर उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “क्या कर रहे हो भाई?”

सुनते ही वह युवक खड़ा हो गया। बोला, “मेरा नाम भास्करन है, महाराज। मिट्टी पर मिट्टी डाल रहा हूँ।”

“मिट्टी? लेकिन यह तो चित्र है!” राजा ने हैरान होकर कहा।

“चित्र कहाँ महाराज? चित्र तो वे हैं जिनका आप अभी-अभी उद्घाटन करके आ रहे हैं। ये तो मिट्टी हैं। इन्हें बनाने वाला मैं भी मिट्टी हूँ। जीवन भर चित्र बनाए, सोचता था, आपको दिखाऊँगा। लेकिन वे शाही चित्रकार ने हड़प लिए और अब मैं जीवन भर ऐसे ही भटकता रहूँगा, ऐसे ही...!” भास्करन के स्वर में गहरा दुख और उदासी थी।

“क्या...! शाही चित्रकार विजयलिंगम ने तुम्हारे चित्र हड़प लिए? यही कह रहे हो न तुम! यह तो बहुत बड़ा आरोप है। क्या तुम विजयलिंगम के आगे कहोगे यह बात...?” राजा ने कहा।

“सत्य किसी से नहीं डरता महाराज!...ईश्वर से भी!” कहते हुए भास्करन अजीब ढंग से हँसा।

राजा कृष्णदेवराय ने तुरंत शाही चित्रकार विजयलिंगम को वहाँ बुलवाया। उसने दूर से ही भास्करन को देख लिया था। आते ही कंधे उचकाकर बोला, “महाराज, यह युवक तो चोर-उचक्का है। आप इसकी बात का यकीन मत कीजिए।”

भास्करन फिर उसी तरह विद्रूप हँसी हँसता हुआ बोला, “महाराज, बिल्कुल ठीक कह रहे हैं विजयलिंगम...इसलिए कि चोरों को सब नजर आते हैं चोर!”

तभी तेनालीराम मुसकराते हुए बोला, “महाराज, दोनों को ऐसा ही चित्र बनाने के लिए कहिए। अभी पता चल जाएगा, कौन चित्रकार है और कौन चोर...?”

सुनते ही शाही चित्रकार विजयलिंगम पसीने-पसीने। उसने बहुत चित्र बनाए थे, पर इस तरह की कलाशैली के चित्र बनाना उसके बस की बात नहीं थी। राजा कृष्णदेव राय और सभासद एकटक उसकी ओर देख रहे थे। मारे घबराहट के उसके चेहरे का रंग उड़ गया, हाथ-पैर काँप रहे थे। उसने मान लिया कि चित्र उसके नहीं, भास्करन के हैं।

राजा कृष्णदेव राय ने भास्करन के पास जाकर बड़े प्यार से पूछा, “लेकिन युवक, इतने योग्य चित्रकार होने पर भी तुम राजदरबार में क्यों नहीं आए?”

“महाराज, कोशिश तो की थी। लेकिन मैं गाँव का सीधा-सादा युवक। मुझे किसी ने भीतर ही नहीं आने दिया। शाही चित्रकार ने दरबानों को पैसा देकर खरीद लिया था। वे मुझे आपसे मिलने ही नहीं दे रहे थे। सभी ने कहा कि तुम ये चित्र शाही चित्रकार विजयलिंगम को दिखाओ। उनकी अनुमति होगी, तभी तुम अंदर जा सकते हो। मैंने चित्र शाही चित्रकार को देखने के लिए दिए थे, पर उन्होंने तो हड़प ही लिए।...यों मैं तो अपने जीवन भर की कमाई ही गँवा बैठा, महाराज!” भास्करन बोला।

“तो फिर तुम तेनालीराम से मिले, यही न!” कहकर राजा हँस पड़े।

भास्करन ने सिर हिलाकर कहा, “महाराज, हम जैसे गरीबों का तो एक ही आसरा है, तेनालीराम!...जिसे कहीं से न्याय नहीं मिलता, उसके लिए आपके दरबार का यह दुबला-पतला बूढ़ा जरूर खड़ा हो जाता है। तेनालीराम मदद न करता महाराज, तो आपके सामने सच्चाई का असली पहलू कैसे आता?...दुनिया चमकीली चीज को ही सच मानती है। भला गरीब कलाकार का दर्द कौन समझ सकता था?”

उसी समय राजा कृष्णदेव राय ने शाही चित्रकार विजयलिंगम को बर्खास्त कर दिया। कहा, “आज से भास्करन शाही चित्रकार होगा।”

भास्करन ने दोनों हाथ जोड़कर राजा कृष्णदेव राय को धन्यवाद दिया। बोला, “महाराज, आप कला-प्रेमी हैं, यह तो जानता था, पर आप एक गरीब कलाकार की कला की इतनी ऊँची कीमत लगाएँगे, मैं सपने में भी इसकी कल्पना नहीं कर सकता था।”

राजा कृष्णदेव राय हँसे। बोले, “धन्यवाद तो हमें तेनालीराम को देना चाहिए। इसकी कला शायद सबसे ऊँची है, जो सच्चाई का असली चेहरा दिखाकर मुझ जैसे सम्राट की भी आँखें खोल देती है!”

तेनालीराम दूर खड़ा मुसकरा रहा था।