Itihaas ka wah sabse mahaan vidushak - 2 in Hindi Children Stories by Prakash Manu books and stories PDF | इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 2

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इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 2

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राजपुरोहित ताताचार्य का किस्सा

धीरे-धीरे समय बीता। रामलिंगम अब युवक हो गया था। उसे लोगों की बातचीत से पता चला कि विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय विद्वानों और गुणी लोगों का बहुत सम्मान करते हैं। उसे पूरा विश्वास था कि एक बार राजा कृष्णदेव राय के दरबार में पहुँच जाने पर, वह अपनी सूझ-बूझ, लगन और कर्तव्यपरायणता से उन्हें प्रभावित कर लेगा। पर भला विजयनगर के राजदरबार में पहुँचा कैसे जाए? किसी राजदरबारी से भी उसका परिचय नहीं था, जिसके माध्यम से वह राजा कृष्णदेव राय तक पहुँच सके।

कुछ दिन बाद रामलिंगम को पता चला कि राजपुरोहित ताताचार्य पास के मंगलगिरि पर्वत पर आकर विश्राम कर रहे हैं।

मंगलगिरि बड़ा सुंदर, हरा-भरा पहाड़ी स्थल था। तेनाली गाँव से वह ज्यादा दूर नहीं था। गाँव के लोगों ने कहा कि जाकर राजपुरोहित से मिलते क्यों नहीं हो? वे सुना है कि बड़े प्रभावशाली हैं। राजा कृष्णदेव राय के दरबार में उनका बड़ा रुतबा है। राजा भी उनका कहना नहीं टालते।

रामलिंगम उसी समय मंगलगिरि की ओर चल पड़ा। राजपुरोहित ताताचार्य का वह विश्राम का समय था, इसलिए वह बाहर बैठा रहा। शाम के समय राजपुरोहित बाहर आकर बगीचे में टहलने लगे। वे बगीचे में रंग-रंग के फूलों की सुंदरता को मुग्ध होकर निहार रहे थे। उसी समय रामलिंगम उनके पास गया। कहा, “सचमुच रमणीक है यह पर्वत यहाँ इतने सुंदर, सुगंधित पुष्प खिले हैं। फिर आपका आना तो और भी सुखद है। मेरा सौभाग्य है कि आप जैसे विद्वान का निकट से दर्शन कर पाया। आपने तो कई ग्रंथ लिखे हैं। दूर-दूर तक आपका नाम है। अगर आप मुझे अपनी सेवा का अवसर दें तो यह मेरे लिए खुशी की बात होगी।”

राजपुरोहित को रामलिंगम की बातें अच्छी लगीं। वे समझ गए कि वह बड़ा सूझ-बूझ वाला, प्रखर और मेधावी युवक है। अगर यह साथ रहे तो मंगलगिरि पर उनका समय आनंद से बीतेगा। लिहाजा राजपुरोहित ने रामलिंगम को साथ रहने की इजाजत दे दी।

अब रामलिंगम रात-दिन राजपुरोहित की सेवा करता। उनके भोजन, नित्यप्रति की जरूरतों और सुख-सुविधाओं का ध्यान रखता। साथ ही अपनी मीठी-मीठी चतुराई भरी बातों से उन्हें हँसाया करता था। राजपुरोहित समझ गए थे कि रामलिंगम की बातों में बड़ी गहरी सूझ होती है। इसलिए वे भी उसकी बातों में बड़ा रस लेते थे।

मंगलगिरि पर आनंद से कुछ दिन व्यतीत करने के बाद राजपुरोहित चलने लगे, तो उन्होंने रामलिंगम से कहा, “तुम्हारी बातों ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया है। मैं तुम्हें कभी भूलूँगा नहीं।”

तभी रामलिंगम ने निवेदन किया, “क्षमा करें आचार्य, मेरी एक प्रार्थना है। आप राजा कृष्णदेव राय के राजदरबार में बहुत प्रमुख पद पर हैं। अगर कभी आप उन्हें मेरे बारे में बताएँ और मुझे राजदरबार में जगह मिल सके, तब तो मैं हर समय आपके निकट ही रहूँगा। तब आपकी अच्छी तरह सेवा करने का मुझे अवसर मिलेगा।”

इस पर राजपुरोहित ताताचार्य हँसते हुए बोले, “ठीक है। मैं जाकर राजा कृष्णदेव राय से कहूँगा। तुम्हारे जैसे तेज बुद्धि वाले व्यक्ति को तो राजदरबार में होना ही चाहिए।

अब तो रामलिंगम को आशा बँध गई कि राजपुरोहित उसे जल्दी ही विजयनगर के राजदरबार में बुला लेंगे। उसने लौटकर माँ से यह कहा। माँ से गाँव वालों को भी पता चल गया। सभी आपस में चर्चा करने लगे, “तेनाली गाँव का रामलिंगम अब जल्दी ही राजा कृष्णदेव राय के राजदरबार में जाने वाला है। अहा, अब तो गाँव का भाग्य बदल जाएगा!”

लेकिन राजपुरोहित ताताचार्य थोड़े दंभी और संशयालु थे। वे समझ गए कि रामलिंगम चतुर और बुद्धिमान है। कहीं इसके होते हुए उनका अपना प्रभाव कम न हो जाए। यह सोचकर उन्होंने रामलिंगम को विजयनगर के राजदरबार में बुलाने की चर्चा ही नहीं चलाई।

इधर गाँव वाले बार-बार रामलिंगम से पूछते, “भई, सुना है कि तुम विजयनगर के राजदरबार में जा रहे हो। क्या बुलावा आ गया?”

रामलिंगम हँसते हुए कहता, “प्रतीक्षा कीजिए।”

लेकिन यह प्रतीक्षा जब लंबी हो गई तो गाँव वालों की बातों में व्यंग्य झलकने लगा। वे रामलिंगम से कहते, “अरे रामलिंगम, कब जा रहे हो तुम राजदरबार में? हाँ-हाँ, भई, राजा कृष्णदेव राय का राजदरबार तुम्हारे बूते ही तो चलेगा।”

सुनकर रामलिंगम को भीतर ही भीतर गहरी चोट लगती, पर ऊपर से हँसता रहता।

इस बीच उसका विवाह भी हो गया था। घर के खर्च भी बढ़ गए थे और हालत ज्यादा अच्छी नहीं थी। ऊपर से गाँव वालों के व्यंग्य-बाण! वह मर्माहत हो उठता। कई बार आँखें भीग जातीं। पहली बार उसने जीवन का यह कड़वा यथार्थ देखा था। आखिर एक दिन उसने खुद ही फैसला किया और बिना राजपुरोहित के बुलावे की प्रतीक्षा किए विजयनगर जाने के लिए तैयार हो गया।

रामलिंगम ने अपना घर, खेत तथा जरूरी चीजें बेचीं और घर का जरूरी सामान बैलगाड़ी पर लादकर पत्नी और माँ के साथ चल पड़ा।

रास्ते में गाँव वालों ने चकित होकर पूछा, “क्यों भई, राजा कृष्णदेव राय का बुलावा आ गया?”

“हाँ-हाँ, आ गया।” रामलिंगम ने हँसते हुए कहा और सीधे विजयनगर की राह ली।

पर तेनाली गाँव से विजयनगर खासा दूर था। रास्ते में बड़ी बाधाएँ भी आईं। बीच-बीच में ठहरने का स्थान खोजने की परेशानी भी आती। पर रास्ते में जो भी मिलता, उससे रामलिंगम यही कहता, “हाँ, मैं राजपुरोहित ताताचार्य का शिष्य हूँ। उन्होंने मुझे विजयनगर के राजदरबार में बुलवाया है।” सुनकर रामलिंगम की मुश्किलें हल हो जातीं। हर कोई राजपुरोहित का शिष्य समझकर उसका आदर करता और उसके ठहरने और भोजन का प्रबंध आराम से हो जाता।

रामलिंगम हँसता हुआ माँ से बोला, “देखो माँ, राजपुरोहित चाहे जैसे भी हों, लेकिन नाम तो बड़ा है। उनका नाम लेने से ही रास्ते के कितने सारे संकट खत्म हो गए। लोग कहते हैं, नाम में क्या रखा है? पर माँ, नाम से भी बड़ा फर्क पड़ता है।”

माँ हँसते हुए बोलीं, “मैं क्या जानूँ बेटा? पर तू कह रहा है तो ठीक ही कह रहा होगा।”

“माँ, मैं सोचता हूँ मैं अपना नाम भी बदल लूँ। रामलिंगम के बजाय अगर मैं रामकृष्ण हो जाऊँ तो मेरे नाम के साथ राजा कृष्णदेव राय का नाम भी जुड़ जाएगा। फिर रामकृष्ण नाम सुंदर भी लगता है। तो माँ, मैं रामलिंगम से रामकृष्ण हो जाऊँ तो यह अच्छा ही रहेगा न!”

माँ हँसकर बोलीं, “ठीक है बेटा, तुझे रामकृष्ण अच्छा लगता है तो रामकृष्ण हो जा। पर मैं तो तुझे पहले भी राम कहकर बुलाती थी, अब भी यही कहकर बुलाऊँगी।”

उस दिन से रामलिंगम रामकृष्ण बना। वह तेनाली गाँव का था, इसलिए लोग उसे कहते ‘तेनाली गाँव का राम’। रामकृष्ण को लगा, ‘अरे, यह नाम तो कुछ बुरा नहीं है! क्यों न मैं तेनाली गाँव का राम, यानी तेनालीरामन नाम ही रख लूँ?’

अपना यह नया नाम उसे इतना अच्छा लगा कि वह दौड़ता हुआ फिर से माँ के पास गया। बोला, “माँ, माँ, मैं रामकृष्ण तो हूँ ही हूँ, पर साथ ही आज से तेनालीरामन भी हूँ। यानी तेनाली गाँव का राम। बताओ माँ, कैसा है यह मेरा नया नाम? तेनालीरामन नाम अच्छा है न!”

सुनकर माँ को हँसी आ गई। बोलीं, “बता दिया न बेटा, तू चाहे जो भी नाम रख ले, मेरे लिए तो तू राम ही है और मैं राम कहकर ही तुझे बुलाती रहूँगी। तू चाहे रामकृष्ण हो या तेनालीरामन, क्या फर्क पड़ता है?”

पर रामकृष्ण अब मन ही मन अपना नया नाम तेनालीराम या तेनालीरामन रख चुका था।

फिर विजयनगर की ओर उसकी यात्रा आगे बढ़ी। रास्ते में एक जगह क्रोडवीड स्थान पर नगरप्रमुख से वह मिला। क्रोडवीड का नगरप्रमुख बड़ा भला शख्स था। तेनालीराम की सूझ-बूझ और मधुर स्वभाव से वह बहुत प्रभावित हुआ। उसने कहा, “तुम माँ और पत्नी के साथ कहाँ-कहाँ जाओगे? मैं उनके लिए यहीं सम्मानपूर्वक रहने की व्यवस्था करता हूँ। तुम जाओ, जाकर राजपुरोहित से मिल लो। शायद उन्हें अपना वादा याद हो। फिर तो तुम्हारे आगे कोई मुश्किल ही नहीं आएगी।

और तेनालीराम माँ और पत्नी को क्रोडवीड में ही छोड़कर राजपुरोहित के निवास की ओर चल पड़ा।

जब वह राजपुरोहित के घर पहुँचा, तो पता चला कि वहाँ पूजा का आयोजन है। राजपुरोहित ने काफी सम्मानित अतिथियों को अपने घर बुलाया है।

तेनालीराम राजपुरोहित के घर के बाहर बैठ गया, ताकि उन्हें फुर्सत मिले तो वह उनसे अपने मन की बात कह सके।

कुछ समय बाद जब पूजा समाप्त हुई और अतिथि तथा अन्य प्रमुख लोग चले गए, तब तेनालीराम राजपुरोहित के द्वार पर पहुँचा। दरबान से कहा, “कृपया राजपुरोहित जी से कहें, मैं उनसे मिलना चाहता हूँ।”

तेनालीराम के साधारण वस्त्र और विपन्न हालत देखकर दरबान ने उसे बाहर से ही टाल देना चाहा। बोला, “राजपुरोहित व्यस्त हैं, तुम और किसी दिन आना। वैसे भी वे हर किसी से नहीं मिलते।”

तेनालीराम बोला, “तुम एक बार अंदर जाकर बताओ तो सही। उनसे कहना, तेनाली गाँव का वही युवक आया है, जिसने मंगलगिरि में उनकी सेवा की थी। वे मुझे अच्छी तरह जानते हैं। आशा है, वे मुझे जरूर बुला लेंगे।”

दरबान ने अंदर जाकर राजपुरोहित को बताया कि तेनाली गाँव का कोई युवक आया है जो कह रहा है कि वह आपका परिचित है। सुनकर राजपुरोहित झल्ला उठे। बोले, “मैं तो नहीं जानता तेनाली गाँव के किसी आदमी को। जाने कौन-कौन मिलने चला आता है। उसे कहो कि मेरे पास उससे मिलने का समय नहीं है।”

तेनालीराम बाहर खड़ा था, पर राजपुरोहित की आवाज उसके कानों में पिघले सीसे की तरह उतर आई। वह सोचने लगा, ‘राजपुरोहित कितनी जल्दी बदल गए। अरे, यह दुनिया कैसी है?’

तेनालीराम जब वहाँ से चलने लगा तो उसके चेहरे पर दुख की छाया थी। पर इसके बाद भी वह हँस रहा था। मानो हँसकर वह अपने-आप से कह रहा हो, ‘तेनालीराम, तुम्हें यहाँ आकर अपनी फजीहत कराने की क्या जरूरत थी! तुम्हें राजा कृष्णदेव राय के दरबार में जाना है तो सीधे क्यों नहीं चले जाते? सुना है कि वे गुणी लोगों का सम्मान करते हैं। तो फिर तुम्हारी प्रतिभा को भला क्यों नहीं पहचानेंगे? तुम्हें भला राजपुरोहित का सहारा लेने की क्या जरूरत है?’

तेनालीराम राजपुरोहित के यहाँ से लौटा तो उसके चेहरे पर सुख-दुख की अजीब-सी आँख-मिचौनी वाला भाव था। पर दुख की छाया को तीव्र बिजली की कौंध की तरह चीरती उसकी मुसकान कह रही थी, ‘मुझे हारना नहीं है, मैं अपनी हार को जीत में बदल दूँगा। तब राजपुरोहित ताताचार्य भी समझ जाएँगे कि तेनालीराम क्या है और किस मिट्टी का बना है!’