आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व जब मैं विवाहोपरांत ससुराल पहुंची थी तो सास के बाद सर्वप्रथम परिचय मलकिन से ही हुआ था।वैसे तो वे रिश्ते में मेरी तयेरी जिठानी लगती थीं, लेकिन मेरी सासुमां से केवल 7-8 वर्ष ही छोटी थीं।उस जमाने में सास-बहू की डिलिवरी साथ -साथ होना सामान्य बात थी।मात्र 14 वर्ष की उम्र में जब वे ब्याह कर आईं थीं, उसी समय मेरे पति का जन्म हुआ था।14 साल की अल्हड़ सी उम्र में कहाँ गम्भीरता होती है, मेरी सास ने बड़ी बहन की तरह उन्हें अपने स्नेह की छत्रछाया में छिपा लिया था।उनका नाम था सरस्वती जो बिगड़कर सुरसती हो गया था।
उनके पति सबसे बड़े ताऊ ससुर जी के बड़े बेटे मालिक सिंह जी थे,इसलिए अधिकार से नहीं अपितु पत्नी होने के नाते वे मलकिन कहलाने लगी थीं।ये उसी तरह से है जैसे मास्टर की पत्नी मास्टरनी,डॉक्टर की पत्नी डॉक्टरनी।उस जमाने के सम्बोधन ऐसे ही हुआ करते थे।
नाम तो सरस्वती, लेकिन शिक्षा का पूर्ण अभाव,स्कूल का मुंह भी नहीं देखा था,घर में ही रहकर भाइयों की मदद से टूटी-फूटी हिंदी पढ़ना एवं जोड़कर लिखना सीख लिया था।उस जमाने में कन्या के रजस्वला होने से पूर्व ही कन्यादान कर देना पुण्य का कार्य समझा जाता था।यही कथित पुण्य कमाने के लिए अल्पायु में ही विवाह कर दिया गया था, उस समय भाई साहब इंटर में अध्ययनरत थे।वैसे जब अल्पायु में विवाह होता था तो विवाह में विदाई नहीं होती थी,2-3 वर्ष पश्चात गौने की रस्म रखी जाती थी, किन्तु ताईजी अत्यधिक बीमार पड़ गईं थीं, अतः वे अपनी बहू देखना चाहती थीं, इसलिए विवाह के एक माह बाद ही उनका गौना करवा लिया गया था।
उस जमाने में जन्मपत्री मिलाकर तथा अच्छा कुल खानदान देखकर विवाह कर दिया जाता था, बड़े-बुजुर्ग ही रिश्ते निर्धारित कर देते थे, वर को भी शायद ही भावी वधू देखने को मिल पाती थी।मैंने भी अपने पति को सीधे मंडप में ही देखा था।
कभी-कभी तो जोड़ा बेहद बेमेल होता था।कुछ ऐसा ही मेरे सास-ससुर और उन जिठानी के साथ हुआ था, जेठ अच्छे शक्ल-सूरत के थे,जबकि जिठानी दुबली-पतली,गेहुआँ रँग की सामान्य व्यक्तित्व की कन्या थीं, उसपर अनपढ़।यही स्थिति मेरे सास-ससुर की भी थी।दोनों अपनी पत्नियों को नापसंद करते थे, किन्तु तब मजबूरी में भी रिश्तों का निर्वहन कर दिया जाता था।
बालिका सरस्वती को गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों का न तो ज्ञान था,न उसकी आयु ही थी समझने की।वह दिनभर मेरे पति अर्थात अपने देवर को गोद में लेकर सम्हालती रहती थी, जिससे मेरी सास को गृहकार्य करने में अत्यधिक सहूलियत रहती थी।संयुक्त बड़ा सा परिवार था।मेरे ससुर पांच भाई थे,सभी बड़े थे,सबके बच्चे थे,किन्तु तीसरे दादा ससुर की कोई संतान नहीं थी।एक ही जगह रसोई बनती थी, पहले घर के पुरूष तथा बच्चों को खाना खिलाया जाता था, फिर अपने-अपने पतियों की थाली में महिलाएं तथा भाइयों की थाली में बहनें खाना खाती थीं।
इंटर करने के बाद मालिक भाई साहब शहर चले गए, दन्त चिकित्सा की पढ़ाई करने के लिए।तब इंटर के नम्बरों के आधार पर ही प्रवेश प्राप्त हो जाता था।गाँव के बच्चे जब शहर जाते थे तो कुछ ही दिनों में उनके रँग-ढंग में इतना परिवर्तन हो जाता था कि उन्हें गाँव में वापस आना बिल्कुल नहीं भाता था।परिवार में सभी को उम्मीद थी कि वे डॉक्टर बनकर गाँव के पास वाले कस्बे में क्लिनिक खोलकर खानदान का नाम रौशन करेंगे।
धीरे-धीरे उनके विवाह को 4-5 वर्ष व्यतीत हो गए।जेठ जी 6-7 माह में 3-4 दिनों के लिए घर आते थे।अब घर की महिलाओं के बीच सुगबुगाहट प्रारंभ हो गई क्योंकि 4-5 सालों में कम से कम एक बच्चा तो हो ही जाना चाहिए था।तब अंतरंग सम्बन्धों के विषय में वार्तालाप अत्यंत असहज होता था।मेरी सास ने किसी तरह जिठानी से पूछा तो ज्ञात हुआ कि प्रणय सम्बंध स्थापित होते हैं, किन्तु सरस्वती भाभी को मासिक धर्म की कोई जानकारी नहीं थी।तब गाँव की दाई को बुलाकर उनका चेकअप करवाया गया, जिससे ज्ञात हुआ कि उनके अंदरूनी अंगों का समुचित विकास नहीं हुआ है।शायद मायके में होतीं तो समय से रजोदर्शन न होने पर माँ को पता चलता क्योंकि इन सबकी जानकारी माँ, बहनें,भाभियाँ ही उपलब्ध कराती थीं।ससुराल में तो गर्भवती होना ही किसी महिला के प्रजनन क्षमता का सूचक होता है।
बात गम्भीर थी,अतः परिवार के पुरुषों तक सूचना पहुँचाई गई।इस बार जब भाई साहब आए तो मेरी सास के साथ जिठानी को मेडिकल कॉलेज में चेकअप के लिए ले जाया गया।चेकअप से कन्फर्म हो गया कि प्रजनन अंगों का विकास अल्प हुआ है।एक दो साल चिकित्सा होती रही, जिससे थोड़ा बहुत मासिक धर्म तो प्रारंभ हो गया, किन्तु गर्भधारण की संभावना बिल्कुल नहीं थी।अल्प विकास का कारण हॉर्मोनल असंतुलन था,जिससे आवाज भी काफी भारी हो गई थी, साथ ही नासिका एवं ऊपरी होठों के मध्य अत्यधिक बढ़े हुए रोम मूंछों की रेखा का आभास देते थे।अब तो भाई साहब जिठानी से पूर्णतया विमुख हो गए थे,भला अधूरी स्त्री कहाँ स्वीकार्य होती है पुरुष एवं समाज को।जबकि पुरुष की अपूर्णता को अधिकांश महिलाएं भाग्य मानकर स्वीकार कर लेती थीं।
शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात मेडिकल कॉलेज में नियुक्ति प्राप्त हो गई।ततपश्चात घर में स्पष्ट रूप से कह दिया कि अब मैं सरस्वती के साथ निर्वाह नहीं कर सकता।एक बांझ स्त्री के पक्ष में सहानुभूति तो परिवार की महिलाओं को भी नहीं थी,बस मेरी सास उनके दुःख से बेहद दुःखी थीं।जिठानी ने भी इसे अपनी नियति मान कर स्वीकार कर लिया था।दूसरे विवाह की बात उठी तो जेठ ने कहा कि अब मैं अपनी इच्छानुसार विवाह करूंगा।एक वर्ष बाद ज्ञात हुआ कि मेडिकल कॉलेज में अपने से एक वर्ष जूनियर कायस्थ कन्या से विवाह कर लिया।चाचाओं, एवं पिता को द्वितीय विवाह से परेशानी नहीं थी, आपत्ति थी तो अंतरजातीय विवाह से।खैर, थोड़े हो-हल्ला के बाद सभी शांत हो गए।हालांकि उनकी दूसरी पत्नी सन्देश श्रीवास्तव कभी गाँव नहीं आईं।उन्होंने शहर में अपनी प्राइवेट प्रैक्टिस प्रारंभ कर लिया।
मालिक भाई साहब साल में एकाध चक्कर गाँव में लगा जाते थे।एक रात गुजारकर वापस चले जाते।मलकिन को भी समझा दिया था कि खानदान चलाने के लिए दूसरा विवाह तो करना ही था।दूसरे विवाह के 3 वर्ष पश्चात जब आए तो मलकिन के साथ आश्चर्यजनक रूप से प्रेमपूर्ण व्यवहार का प्रदर्शन किया।साथ ही शहर चलने का प्रस्ताव दिया मेडिकल कॉलेज में एक बहुत अच्छी डॉक्टर विदेश से आई है, जिससे तुम्हारा इलाज एक बार फिर करवाकर देखते हैं।भोली-भाली जिठानी खुशी से पागल हो गईं।मना करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था।शहर पहुँचकर ज्ञात हुआ कि सन्देश गर्भवती थीं, उन्हें कम्प्लीट बेड रेस्ट की आवश्यकता थी।खैर, जिठानी को बेवकूफ बनाने के लिए भाई साहब ने कॉलेज में दिखा भी दिया।वे प्रसन्न मन से सौतन की सेवा करती रहीं।बदले में पति का प्रेमपूर्ण व्यवहार पाकर अपने समस्त दुखों को भूल गईं।वे तो इस बात के लिए भी तैयार थीं कि सन्देश के बच्चों को पालकर ही अपना जीवन गुजार देंगी।किन्तु उन लोगों ने तो सिर्फ उनका इस्तेमाल किया था।तय समय पर बेटी ने जन्म लिया।बेटी के दो माह की होते ही मलकिन को गाँव भिजवा दिया।अब वे भी समझ गईं थीं कि उनका इस्तेमाल सिर्फ नौकरानी की तरह किया गया था।इस बार उनके आहत स्वाभिमान ने उन्हें कठोर बना दिया।इस बार जब भाई साहब आए तो उन्होंने बात तक नहीं किया।
संयुक्त परिवार की एक खासियत थी उस समय कि पति के त्यागने के बावजूद परिवार में उनका पूर्ण सम्मान था।मेरे विवाह के बाद सिर्फ मेरे सगे देवर का विवाह शेष था।बाकी सभी बच्चे अपने परिवारों के साथ मगन थे।कुछ नौकरी करने विभिन्न शहरों में चले गए थे, कुछ गाँव में ही अपनी खेती-बारी संभाल रहे थे, कुछ ने पास के कस्बे में कोई व्यापार कर लिया था।जिठानी ने मेरे पति को अपने बेटे जैसा प्यार दिया था, परिणामतः मेरे पति भी उन्हें माँ जैसा सम्मान देते थे।छोटे-बड़े सभी देवर-नन्द उन्हें मलकिन कहकर ही सम्बोधित करते थे एवं बच्चे मुछैतिन अम्मा पुकारते थे।शुरूआत में तो वे इस नाम से बुरी तरह चिढ़ जाती थीं लेकिन समय के साथ इस सम्बोधन को स्वीकार कर लिया था।अब तो उनका असली नाम शायद किसी को याद भी नहीं रह गया था,वे स्वयं भी अपना नाम विस्मृत कर चुकी थीं।
जब मैं ब्याह के बाद आई तो उन्होंने मुझे भी बेहद प्यार दिया।एक माह पश्चात रसोई छुलाने का कार्यक्रम हुआ।सभी बहुएं एक समय का खाना बारी -बारी से बनाती थीं।अनाज वितरण की जिम्मेदारी मलकिन के हाथों में थी।चावल पुरूष सदस्यों के लिए दो कटोरी एवं बच्चों तथा महिलाओं के लिए एक कटोरी निर्धारित थी।देश में उस समय अनाज का उत्पादन अधिक नहीं था।रोटी पर नियंत्रण नहीं था।वे जानती थीं कि मैं झिकझिक नहीं कर सकती थी, अतः मेरी बारी में वे चावल थोड़ा अधिक दे देती थीं।खाना बनाते ही वे अपने लिए थोड़ा अधिक खाना निकालकर अपने कमरे में रख आती थीं, क्योंकि वे जानती थीं कि बनाने वाली को बाद में आधा-अधूरा भोजन ही मिल पाता था औऱ मुझमें चालाकी थी नहीं,मेरी सास भी बेहद सीधी थीं।बाद में कार्य से निबटने पर अपने कमरे में मुझे ले जाकर अपने साथ खाना खिलाती थीं।समय की चोट ने मलकिन को तेज-तर्रार बना दिया था।
मेरे पति पहले भी जब बाहर से आते थे तो अपनी मां एवं मलकिन के लिए साड़ी, तेल-साबुन,क्रीम अवश्य लाते थे।आधा किलो मिठाई का डिब्बा मलकिन के लिए अलग से लाते थे।पुत्र तुल्य देवर से प्राप्त यह सम्मान एवं स्नेह उनके नेत्रों में अश्रु ले आते थे, वे गदगद होकर आशीर्वाद देती थीं कि तुम्हें चाँद सी दुल्हन मिले।
मेरी मुंहदिखाई के समय उन्होंने विह्वल होकर मेरी सास से कहा था कि चाची,मैं कहती थी न कि तुम्हें बहुत सुंदर बहू मिलेगी।छः माह बाद मैं पति के साथ शहर प्रस्थान कर गई,किन्तु जबतक मुछैतिन मलकिन जिंदा रहीं, मेरे पति हर 6-7 माह में उनसे मिलने गाँव अवश्य जाते रहे।
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