शाकंभरी रात्रि के भोजन की ब्यवस्था करने लगी,उसने कुटिया के कोने पर बने मिट्टी के चूल्हे में भोजन बनाना प्रारम्भ कर दिया,भोजन पक जाने के उपरान्त उसने सभी के लिए पत्तल में भोजन परोसा तो जलकुम्भी बोली.....
सखी! मैं तो तुम्हारे संग ही भोजन करूँगी।।
जैसी तुम्हारी इच्छा सखी! शाकंभरी बोली।।
जलकुम्भी के कहने पर शाकंभरी ने अपने पिताश्री और भ्राता पुष्पराज को भोजन परोसा ,उनके भोजन कर लेने के उपरान्त दोनों सखियों ने भी भोजन कर लिया एवं विश्राम करने हेतु अपने अपने बिछौनों पर लेट गई,परन्तु इधर पुष्पराज की निंद्रा को जलकुम्भी के रूप एवं यौवन ने उड़ा दिया था,वो जलकुम्भी पर मोहित हो चुका था,इसलिए उससे उसकी निंद्रा कोसों दूर थी,परन्तु कुछ समय पश्चात पुष्पराज भी सो गया,उसे जलकुम्भी के सुन्दर स्वप्न ने जो आ घेरा था......
अर्धरात्रि बीतने को थी,सभी अब तक गहरी निंद्रा में लीन थे,तभी एकाएक वन में कुछ भयावह से स्वर सुनाई दिए,सभी उन स्वरों को सुनकर जाग उठें,तब अरण्य ऋषि ने पुष्पराज से कहा....
पुत्र! पुष्पराज तनिक बाहर जाकर देखों,क्या बात है?
जी! पिताश्री!पुष्पराज बोला।।
और फिर पुष्पराज कुटिया के बाहर पहुँचा ,वहाँ उसने देखा कि कुछ सैनिक अपने अपने अश्वों पर सवार थे और उनके हाथों में अग्निशलाकाएंँ(मशालें) थीं,एवं वें किसी को खोज रहे थें,संग में एक नवयुवक था जो उन्हें आदेश दे रहा था,तभी उस नवयुवक की दृष्टि पुष्पराज पर पड़ी तो उस नवयुवक ने पुष्पराज से कहा.....
ऐ....इधर आओ।।
पुष्पराज को उसका ऐसा व्यवहार पसंद ना आया तो वो बोल पड़ा.....
ऐसा प्रतीत होता है कि आपको वार्तालाप करने का आचरण ज्ञात नहीं है.....
पुष्पराज की बात सुनकर वो नवयुवक क्रोधित हो बैठा और उसने पुष्पराज से कहा.....
तुम्हें ज्ञात है कि मैं कौन हूँ?
आप जो भी हो किन्तु आपको आपके बड़ो ने उचित व्यवहार करना नहीं सिखाया,पुष्पराज बोला।।
तुम्हारा इतना साहस कि तुम मुझसे ऐसा व्यवहार करते हो?नवयुवक पुनः क्रोधित होकर बोला।।
तभी नवयुवक के संग उनके सेनापति जी बोले.....
राजकुमार! धूमकेतु ! आप इनसे राजकुमारी जलकुम्भी के विषय में पूछिए,इनसे निर्रथक वार्तालाप से कोई लाभ नहीं।।
सेनापति! आपने देखा ना कि इसने मुझसे कैसीं अशिष्टता की?राजकुमार धूमकेतु बोला।।
राजकुमार धूमकेतु! आप रहने दीजिए,मैं ही इनसे पूछता हूँ और इसके उपरांत सेनापति जी ने पुष्पराज से पूछा....
आपने इस वन में किसी नवयुवती को देखा है,उनका नाम जलकुम्भी है,वें इस राज्य के राजा मोरमुकुट सिंह की पुत्री हैं,ये उनके अग्रज राजकुमार धूमकेतु हैं....
अच्छा! ये आपने पहले क्यों नहीं पूछा? पुष्पराज बोला।।
तो क्या आपने राजकुमारी को देखा है? सेनापति पुनः बोले....
जी! उन्हें तो मेरी बहन शाकंभरी अपने संग वन से ले आईं थीं,कदाचित वें मार्ग से भटक गई थीं,इस समय वें हमारी कुटिया में विश्राम कर रहीं हैं,पुष्पराज बोला।।
अत्यधिक कृपा आपकी! जो आपने उनके विषय में हमें बताया,हम सब अत्यधिक भयभीत थे कि किसी वन्यजीव ने उन पर आक्रमण ना कर दिया हो,सेनापति जी बोलें।।
तो क्या आप उन्हें इस समय अपने संग ले जाऐगें,पुष्पराज ने पूछा।।
तब सेनापति जी बोलें....
यदि वें इस समय विश्राम कर रहीं हैं तो करने दीजिए,अब हम सब चिन्ता मुक्त हो गए हैं,प्रातः हम उन्हें यहाँ से ले जाऐगें,आपका पुनः अत्यधिक धन्यवाद कि आपके कारण हमारी राजकुमारी सुरक्षित हैं,सेनापति जी बोले.....
धन्यवाद किस बात का महाशय! ये तो मेरा कर्तव्य था,धन्य भाग्य मेरे एवं मेरे परिवार के जो इस राज्य की राजकुमारी हमारी अतिथि बनकर हमारी कुटिया में पधारीं,पुष्पराज बोला।।
तो हम सब जाते हैं,प्रयास रहेगा कि राजकुमारी को प्रातः यहाँ से लिवा ले जाएं,सेनापति जी बोलें....
आप सब भी हमारे यहाँ विश्राम कर सकते हैं,यदि आप सबको कोई खेद ना हो,पुष्पराज बोला।।
जी! नहीं! हम सब जाएंगे,ये शुभ समाचार महाराज को भी तो देना हैं,सेनापति जी बोलें।।
जी! तो मैं ना रोकूँगा,पुष्पराज बोला।।
इसके पश्चात सभी राज सैनिक,राजकुमार धूमकेतु एवं सेनापति ने राजमहल की ओर प्रस्थान किया एवं पुष्पराज ने भीतर जाकर अपने पिता से सारी घटना का विवरण कह सुनाया....
घटना सुनने के पश्चात सभी विश्राम करने हेतु पुनः अपने अपने बिछौनों पर लेट गए,प्रातःकाल सर्वप्रथम शाकंभरी जागी और उसने जलकुम्भी को सोने दिया,उसने सारी कुटिया की सफाई करने के उपरांत स्नान किया और पूजा-पाठ में मग्न हो गई......
इसके पश्चात ऋषि अरण्य एवं पुष्पराज भी जाग उठें,शाकंभरी ने पूजा करने के पश्चाताप गाय माता की गौशाला स्वच्छ की उन्हें चारा डाला,दूध दोहकर कुटिया के भीतर आईं तब तक सू्र्य की किरणों की लालिमा चहुँ ओर फैल चुकी थी,रसोई म़े जब वो चूल्हा बालकर भोजन चढ़ाने लगी तभी राजकुमारी जलकुम्भी जागी....
शाकंभरी को देखकर बोली.....
ऐसा प्रतीत होता है सखी कि आप स्नान कर चुकीं हैं।।
हाँ! सखी! अब आप भी स्नान कर लीजिए,भ्राता कह रहें थे कि आप को लेने आपके राज्य के सैंनिक आने वाले हैं,शाकंभरी बोली।।
सखी! मन नहीं है राज्य में वापस जाने का,यहाँ का वातावरण मुझे भा गया है,यहाँ ऐसा प्रतीत हता है कि मैं मुक्त हूँ,ये साधारण से वस्त्र,आभूषण रहित श्रृगांर मुझे अत्यधिक प्रिय लगने लगा है,जलकुम्भी बोली।।
परन्तु सखी! वो राजमहल की आपका गृह है,शाकंभरी बोली।।
ठीक है,अभी तो मैं जातीं हूँ परन्तु यहाँ सदैव तुमसे मिलने आती रहा करूँगीं,जलकुम्भी बोली।।
मुझे भी आपसे यहीं आशा थीं,तो आप शीघ्र ही स्नान कर लें एवं भोजन करके रामहल जाने को तत्पर हो जाएं,वे सब आते ही होगें,शाकंभरी बोली।।
इसके पश्चात शाकंभरी ने जलकुम्भी को भारी मन से विदा किया ,उस दिन जलकुम्भी तो अपने राज्य वापस चली गई किन्तु पुष्पराज का हृदय भी संग ले गईं,अब पुष्पराज राजकुमारी जलकुम्भी के स्वप्नों में ही खोया रहता,अब राजकुमारी जब कभी शाकंभरी से मिलने आती तो पुष्पराज उसे अपने हृदय की बात करने का साहस भी ना कर पाता,ऐसे ही कई महीने बीतें एवं राजकुमारी जलकुम्भी एक दिन शाकंभरी से मिलने आईं तो वो अत्यधिक दुःखी थी,उसके ब्यथित मन को देखकर शाकंभरी ने उससे पूछा......
सखी!क्या बात है? आपके मुँख की कान्ति कहाँ विलीन हो गई,पहले आप आतीं थीं तो आपका मन अत्यधिक प्रसन्न रहता था,अब आपकी प्रसन्नता पर ऐसा कौन सा ग्रहण लग गया है जो आपका मुँख अमावस के चन्द्र के समान प्रतीत होता है....
सखी! क्या कहुँ? चित्त अत्यन्त विचलित है,जलकुम्भी बोली।।
किन्तु क्यों सखी? शाकंभरी ने पूछा।।
वो इसलिए कि मेरा विवाह होने वाला है,जलकुम्भी बोली।।
ये तो प्रसन्न होने वाली बात है,शाकंभरी बोली।।
किन्तु! मुझे वर पसंद नहीं,जलकुम्भी बोली।।
क्यों? क्या वो कोई राजकुमार नहीं? शाकंभरी बोली।।
वो तो राजकुमार ही हैं,जलकुम्भी बोली.....
तो आपकी अप्रसन्नता का कारण क्या है? शाकंभरी ने पूछा......
मैं किसी और से प्रेम करती हूँ,जलकुम्भी बोली।।
किन्तु! कौन है वो? क्या वो भी आपसे प्रेम करता है? शाकंभरी ने पूछा।।
यही तो ज्ञात नहीं है,जलकुम्भी बोली।।
ये तो बड़ी विचित्र बात कही आपने! कि आप जिससे प्रेम करतीं हैं,ये उसे ज्ञात ही नहीं है कि आप उसकी प्रेमिका हैं, शाकंभरी बोली।।
हाँ! सखी! मेरी दुविधा का समाधान तुम ही कर सकती हो,जलकुम्भी बोली।।।
वो कैसे भला? शाकंभरी बोली।।
उससे पूछो कि क्या उसे भी मुझसे प्रेम है,जलकुम्भी बोली।।
मै! ...मैं कैसे भला किसी अपरिचित से पूछ सकती हूंँ ये बात,शाकंभरी बोली।।
तुम ही पूछ सकती हो सखी! जलकुम्भी बोली।।
क्यों?....क्या मैं कोई विलक्षणी हूँ,शाकंभरी बोली।।।
हाँ! क्योंकि वो तुम्हारे भ्राता हैं,जिनसे मैं प्रेम करती हूँ,जलकुम्भी बोली....
सच! कहीं मैं कोई स्वप्न तो नहीं देख रही हूँ,शाकंभरी बोली.....
नहीं ये स्वप्न नहीं है,सत्य है,जलकुम्भी बोली।।
तभी पुष्पराज भीतर आकर शाकंभरी से बोला.......
शाकंभरी! तुम्हारी सखी ने अत्यधिक समय लगा दिया अपने हृदय की बात कहने में,
ये सुनकर जलकुम्भी की पलकें लज्जा से झुक गईं....
तब शाकंभरी बोली....
भ्राता! बिलम्ब से ही सही मेरी सखी ने अपने हृदय की बात कह तो दी ,परन्तु आपने भी तो इन्हें इतनी प्रतीक्षा करवाई ,ये तो युवती हैं इसलिए इन्होंने बिलम्ब किया,लज्जा ही इनका आभूषण है किन्तु आपके संग तो ऐसी विवशता ना थी....
विवशता ही तो थी तभी तो कह ना सका ,पुष्पराज बोला।।
ऐसी क्या विवशता थी?तनिक मैं भी तो सुनूँ,जलकुम्भी ने लजाते हुए पूछा।।
जलकुम्भी की बात सुनकर पुष्पराज बोला.....
आप एक राजकुमारी हैं एवं मैं साधारण सा ऋषि पुत्र,आप जैसा जीवन जीती आईं हैं वैसा जीवन मैं आपको कभी भी नहीं दे सकता,आपने कभी धन का अभाव नहीं देखा,सदैव से राजमहल में रहने वाली का इस कुटिया में निर्वाह किस प्रकार होगा? यही सोचता था मैं, इसलिए आपसे अपने मन के भाव प्रकट ना कर सका।।
परन्तु!मैं ने तो अब आपको हृदय से स्वीकार कर लिया है,मुझे आशा है कि आप जीवनभर मेरा साथ यूँ ही निभाऐगें,जलकुम्भी बोली।।
जी!अवश्य!एवं मैं भी आपसे यही आशा रखता हूँ,पुष्पराज बोला।।
इस प्रकार पुष्पराज एवं जलकुम्भी के मध्य प्रेम की सरिता बह चली,वें दोनों निरन्तर एकदूसरे से मिलने लगें एवं उनके प्रेम की चर्चाएं धीरे धीरे सम्पूर्ण राज्य में विसरित होने लगी,ये समाचार राजा मोरमुकुट सिंह तथा उनके बड़े पुत्र धूमकेतु के मध्य भी पहुँचा,इस बात से राजा मोरमुकुट सिंह और उनके पुत्र धूमकेतु अत्यधिक क्रोधित हुए एवं उन्होंने पुष्पराज को दण्डित करने का सोचा एवं शीघ्रतापूर्वक अपने सेनापति को आदेश दिया कि वें पुष्पराज को हमारे समक्ष शीघ्र ही बुलवाएं....
तब धूमकेतु ने अपने पिता मोरमुकुट सिंह से कहा.....
पिताश्री!मैं पुष्पराज को लेकर आऊँगा,आप सेनापति जी को कष्ट ना दें।।
ठीक पुत्र धूमकेतु!तो तुम ही उसे ले आओ,मोरमुकुट सिंह बोले।।
पिता के आदेश पर धूमकेतु ने शीघ्र ही वन की ओर प्रस्थान किया एवं कुछ ही समय में वो वहाँ पहुँच गया एवं अरण्य ऋषि की कुटिया के समक्ष ही उसने पुष्पराज को पुकार लगाई.....
पुष्पराज....पुष्पराज....शीघ्रतापूर्वक कुटिया के बाहर उपस्थित हो,मुझे तुमसे कुछ प्रश्नों के उत्तर चाहिए,तेरा इतना साहस तूने मेरी बहन से विवाह करने का स्वप्न देखा,कहाँ छुपा बैठा है कायर!शीघ्र ही बाहर निकल।।
पुष्पराज का उच्च स्वर सुनकर शाकंभरी कुटिया के बाहर निकलकर आई और उसने धूमकेतु से पूछा...
जी!आप कौन हैं?एवं इस प्रकार मेरे अग्रज को क्यों पुकार रहें हैं,
मैं राजकुमार धूमकेतु हूँ,जलकुम्भी का भाई,तुम्हारा भ्राता अपराधी है,इसलिए मैं उसे पुकार रहा था,धूमकेतु बोला।।
अपराधी....ऐसा कौन सा अपराध किया है उन्होंने?शाकंभरी ने पूछा।।
उसने मेरी बहन जलकुम्भी से प्रेम किया एवं इसका दण्ड उसे मिलना ही चाहिए,धूमकेतु बोला।।
प्रेम करना कोई अपराध तो नहीं ,शाकंभरी बोली।।
परन्तु मेरी दृष्टि में एक साधारण से मानव का एक राजकुमारी से प्रेम करना अपराध है,धूमकेतु बोला।।
प्रेम तो प्रेम होता है वो तो किसी से भी हो सकता है,शाकंभरी बोली।।
क्या तुम मुझसे प्रेम कर सकती हो?धूमकेतु ने पूछा।।
ये कैसी निर्लज्जतापूर्ण बातें करते हैं आप?शाकंभरी क्रोधित होकर बोली।।
यदि मेरी बातें निर्लज्जतापूर्ण हैं तो इसी प्रकार का निर्लज्जतापूर्ण कार्य किया है तुम्हारे भ्राता ने,जिसका दण्ड उसे मिलना ही चाहिए,धूमकेतु बोला।।
परन्तु पिताश्री एवं भ्राता कुटिया में नहीं है वें किसी कारणवश बाहर गए हैं और दो दिनों के पश्चात ही लौटेगें,शाकंभरी बोली।।
तो कोई बात नहीं,तुम जैसी सुन्दरी तो हैं ना!मैं तुम्हें अपने अश्व पर ले जाऊँगा,धूमकेतु बोला।।
तुम्हारा ऐसा साहस ,पापी!,शाकंभरी चीखी॥
इस एकान्त में तुम्हारा स्वर कोई भी नहीं सुनेगा,जब तुम्हारा भ्राता मेरी बहन के संग प्रेम कर सकता है तो मैं भी उसकी बहन के संग प्रेमालाप कर सकता हूँ,यही उसके लिए उचित दण्ड होगा,धूमकेतु बोला।।
तुम ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते,मैं तुम्हारे साथ कहीं नहीं जाऊँगी,शाकंभरी बोली।।
व्यर्थ के वार्तालाप से कोई लाभ नहीं,तुम्हें मेरे संग चलना ही होगा एवं इतना कहकर धूमकेतु ने शाकंभरी का हाथ पकड़ा और उसे अपने अश्व पर बैठाकर अपने राजमहल की ओर प्रस्थान किया,धूमकेतु का अश्व पवन के वेग सा भागा चला जा रहा था एवं शाकंभरी पूरे मार्ग में बचाओ...बचाओ....चिल्लाती रही किन्तु उसकी किसी ने भी सहायता नहीं की,धूमकेतु उस राज्य का राजकुमार था इसलिए धूमकेतु से किसी को भी बैर लेने में भय लगता था,थकहार कर शाकंभरी अचेत सी हो गई,उसकी शक्ति क्षीण हो चुकी थी,कुछ ही समय के पश्चात धूमकेतु का अश्व राजमहल के समक्ष रूका,तब धूमकेतु ने शाकंभरी से कहा.....
ए....चल अश्व से नीचें उतर एवं मेरे संग राजदरबार तक चल ।।
शाकंभरी अश्व से उतरी और मद्धम गति से धूमकेतु के पीछे पीछे चलने लगी,उस पर राजमहल के कर्मचारियों की दृष्टि पड़ती तो वो लज्जा से वहीं गड़ जाती,उसने कभी नहीं सोचा था कि भविष्य में उसे ऐसे क्षणों का सामना करना पड़ेगा,कुछ ही समय मेँ वो राजदरबार में थीं,राजा मोरमुकुट सिंह को देखते ही वो बोल पड़ी....
महाराज! मेरे भ्राता निर्दोष हैं,कृपया उन्हें क्षमा कर दीजिए।।
नहीं!उसका अपराध अक्षम्य है,उसे इसका दण्ड अवश्य मिलेगा,राजा मोर मुकुट सिंह बोले।।
प्रेम करना कोई अपराध तो नहीं,शाकंभरी बोली।।
प्रेम करना तो अपराध नहीं,किन्तु किसी राजकुमारी से एक साधारण से युवक का प्रेम करना अपराध है,राजा मोर मुकुट सिंह बोले।।
उनके इस अपराध हेतु ,मैं आपसे क्षमा माँगती हूँ,शाकंभरी बोली।।
इसका दण्ड तो उसे अवश्य मिलेगा,जब तक तुम्हारे पिता एवं भ्राता इस राजमहल में उपस्थित नहीं होते तो तुम भी हमारे राजमहल के बंदीगृह में बंदी बनकर रहोगी,राजा मोरमुकुट सिंह बोलें।।
किन्तु!मैनें कोई अपराध तो नहीं किया तो मुझे किस बात का दण्ड दिया जा रहा है,शाकंभरी ने पूछा।।
चूँकि तुम पुष्पराज की बहन हो तो तुम भी इस दण्ड की भागीदार हो,राजा मोरमुकुट सिँह बोलें।।
किन्तु ये तो पाप है....अन्याय है....आप ऐसा नहीं कर सकते,शाकंभरी बोली।।
इसके उपरान्त शाकंभरी को बंदीगृह में बंदी बनाकर डाल दिया गया,शाकंभरी रोती रही गिड़गिड़ाती रही लेकिन उसकी किसी ने भी नहीं सुनी,रात्रि हो चुकी थी ,शाकंभरी दिनभर की भूखी प्यासी बंदीगृह में बैठी बैठी रो रही थी तभी उसे किसी ने पुकारा.....
सखी! मैं तुम्हारे लिए कुछ फल लाई हूँ कृपया मुझे क्षमा कर दो और इन्हें खा लो,मुझे ज्ञात नहीं था कि मेरे प्रेम का दण्ड मेरे साथ साथ तुम्हें भी भुगतना पड़ेगा,वो जलकुम्भी के शब्द थे।।
ओह...सखी!तुम आ गई! कृपया मुझे यहाँ से बाहर निकालो,शाकंभरी ने जलकुम्भी से विनती की।।
सखी!ये मेरे वश में नहीं,मैं विवश हूँ,जलकुम्भी बोली।।
तो यहाँ क्या करने आई हो?,जब मुझे मुक्त नहीं कर सकती तो,शाकंभरी क्रोधित होकर बोली।।
क्षमा करना सखी!मुझ पर भी दृष्टि रखी जा रही है,मैं भी इस महल से बाहर नहीं निकल सकती,अभी भी बड़ी कठिनाइयों से तुम्हारे पास आ सकी हूँ,जलकुम्भी बोली।।
जलकुम्भी और शाकंभरी के मध्य वार्तालाप चल ही रहा था कि तभी धूमकेतु वहाँ आ पहुँचा और जलकुम्भी से बोला.....
जलकुम्भी!तुम्हारा इतना साहस कि मेरी आज्ञा के बिना तुम इससे मिलने बंदीगृह में आ पहुँची।।
हाँ!आऊँगी.....अवश्य आऊँगी,वो मेरी सखी है,जलकुम्भी ने धूमकेतु का निरादर करते हुए कहा।।
ओह.....तो इतना साहस आ गया है तुम में,मेरा अपमान कर रही हो,धूमकेतु बोला।।
आप सभी के साथ इस प्रकार से अन्याय नहीं कर सकते,जलकुम्भी बोली।।
तुम अपने कक्ष में जाओ,मैं तुमसे वहीं आकर मिलता हूँ और इस शाकंभरी की दशा तो मैं ऐसी कर दूँगा कि ये भविष्य में कुछ भी नहीं कर पाएगी,धूमकेतु बोला।।
मैं अपने कक्ष में नहीं जाऊँगी,जलकुम्भी बोली।।
जलकुम्भी के ऐसा बोलते ही धूमकेतु ने जलकुम्भी के गाल पर दो तीन झापड़ धरें और उसे बलपूर्वक उसके कक्ष में ले गया,सैंनिको को आदेश दिया कि जलकुम्भी मेरी आज्ञा के बिना बाहर ना निकल पाएं,इसके उपरान्त धूमकेतु पुनः शाकंभरी के निकट आया,बंदीगृह के किवाड़ खोले और शाकंभरी से बोला....
यदि तुम मेरा प्रणयनिवेदन स्वीकार कर लो तो मैं तुम्हें इस बंदीगृह से मुक्त कर दूँगा।।
ये कैसीं नीचतापूर्ण बातें कर रहे हो,तुम्हें लज्जा नहीं आती,शाकंभरी बोली।।
इतना सती बनने की कोई आवश्यकता नहीं है,मैं तुम्हें आभूषणों से लाद दूँगा,धूमकेतु बोला।।
नहीं...चाहिए तुम्हारी कोई भी वस्तु,मेरा स्वाभिमान एवं मेरी लज्जा ही मेरा आभूषण है,शाकंभरी बोली।।
तो तुम ऐसे नहीं मानोगी और धूमकेतु ने शाकंभरी का हाथ पकड़ लिया.....
शाकंभरी अपना हाथ पकड़ने से क्रोध में आ गई और उसने धूमकेतु के गाल पर बलपूर्वक झापड़ धर दिया,झापड़ पड़ते ही धूमकेतु अपमान से तिलमिला गया और वो शाकंभरी के केश जोर पकड़ते हुए बोला.....
तेरा इतना साहस,अब तुझे इसका दण्ड तो भुगतना ही पड़ेगा,इसके उपरान्त धूमकेतु शाकंभरी को अपने कक्ष की ओर घसीटते हुए ले गया एवं अपने कक्ष में ले जाकर उसका सतीत्व भंग कर दिया,शाकंभरी चीखती रही परन्तु धूमकेतु ने उसकी एक ना सुनी.....
क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....