Mamta ki Pariksha - 32 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 32

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ममता की परीक्षा - 32



गोपाल नजदिक आ चुका था। परबतिया चाची उठते उठते अचानक रुक गई। उनके कानों में मास्टर रामकिशुन के स्वर गूँजने लगे थे, 'परबतिया भाभी, मैं स्कूल जा रहा हूँ। बच्चे अकेले हैं, जरा ध्यान रखना !' और फिर उन्होंने मन बना लिया था वहीँ कुछ देर और जमे रहने का।
'पता नहीं कौन लड़का है, कैसा है, और फिर रामकिशुन ने कहा है देखभाल करने के लिए तो कुछ सोच समझकर ही कहा होगा। आजकल किसी का भरोसा नहीं किया जा सकता। जुग जमाना वैसे ही ख़राब चल रहा है। बिना माँ की लड़की है अपनी साधना बिटिया ! कहीं कुछ ऊँच नीच हो गई तब तो मास्टर कहीं का नहीं रहेगा। नहीं नहीं ! भले मेरा काम रुकता हो तो रुक जाए लेकिन मुझे अभी यहाँ से नहीं जाना चाहिए।' इसी तरह के तमाम विचार परबतिया के मन में आ जा रहे थे और इसी वजह से वह जाते जाते अचानक रुक गई थी।

उसे उठने का प्रयास करते हुए और अचानक फिर से बैठते देखकर साधना के मुख पर मुस्कान गहरी हो गई। वह परबतिया के मन में चल रहे भावों को पढ़ने में सफल रही थी। और होती भी क्यों नहीं ? पूरा बचपन इन्हीं लोगों के साथ बिताया था। सबके मनोभावों को अच्छी तरह समझती थी।

घर के सामने के छोटे से मैदान के एक कोने में हाथ में पकड़ा हुआ लोटा रखते हुए गोपाल ने अपने चहुँ ओर का निरीक्षण किया। परबतिया पर नजर पड़ते ही उसने शिष्टता वश दूर से सर झुकाकर उसका अभिवादन किया। उसकी इस हरकत से परबतिया चाची बहुत खुश हुई थीं और लगे हाथ अपने चिर परिचित अंदाज में आशीर्वादों की झड़ी लगा दी, लेकिन गोपाल के चेहरे पर असमंजस के भाव थे। असमंजस के साथ ही नागवारी के भाव भी स्पष्ट नजर आ रहे थे। साधना उसके भी मनोभावों को बखुबी समझ रही थी लेकिन बिना कुछ कहे मंद मंद मुस्कुराते हुए उसने आँगन में रखी साबुनदानी और एक कलशे में पानी लाकर उसके सामने रख दिया।

उसका मंतव्य समझकर गोपाल ने साबुन लगाकर हाथ स्वच्छ धोया। साधना ने उसकी मदद की थी इस काम में ! लोटा वहीँ मिटटी से माँज कर साधना ने कलशी और लोटा आंगन में रख दिया और फिर घर के बाहरी दीवार के सहारे खड़ी किया हुआ लंबा बाँस लेकर सामने के नीम के पेड़ से दातून तोड़ने का प्रयास करने लगी। कुछ मिनटों में वह नीम की दातून जैसी पतली शाखें तोड़ लाई और गोपाल को पकड़ाते हुए बोली, "लीजिये, दातून कर लीजिये। तब तक मैं चाय बना देती हूँ।"

परबतिया की नजर ख़ामोशी से दोनों पर ही केंद्रित थीं। वह दोनों की हर हरकत और हावभाव का गंभीरता से निरिक्षण कर रही थी। गोपाल दातून लेकर दातून से जूझने लगा। शौच के लिए जाते हुए उसने कई ग्रामीणों के मुँह में दातून दबी हुई और चबाते हुए भी देखी थी। वह भी दातून चबाने लगा। साधना भी आंगन में बने चुल्हे पर चाय रखकर परबतिया चाची के सामने आकर दातून करने लगी। अब उसकी नक़ल करके दातून करना गोपाल के लिए आसान हो गया था क्योंकि गोपाल ने कभी किसी को इसके पूर्व दातून करते हुए नहीं देखा था। शहरों में भी बहुत लोग दातून करते लेकिन उनकी तरफ वह भला क्यों ध्यान दे ?

दातून कर हाथ मुँह धोकर गोपाल ने वहीँ खड़ी एक दूसरी खटिया बिछा दी और उसपर बैठ गया। तब तक साधना चाय ले कर आ गई। परबतिया और गोपाल के हाथों में चाय से भरी बड़ी गिलास पकड़ाकर साधना खुद भी परबतिया के पास आकर बैठ गई। दोनों हाथों से गिलास थामे हुए देहाती अंदाज में चाय सुड़कते हुए साधना ने परबतिया चाची की तरफ देखा।

गिलास हाथ में थामकर वह गोपाल से विपरीत दिशा में घूम गई और चाय सुड़कने लगी। साधना को उसकी यह हरकत देखकर हँसी आ गई, बोली, "चाची ! अब चाय पीने में क्या शर्माना ? और फिर गोपाल बाबू तो आपके सामने अभी बच्चे हैं।"
"चुप कर बेहया !" परबतिया ने प्यार से साधना को झिड़की दी थी, "एक तो पराये मरद के सामने चाय सुड़क रही है और ऊपर से पटर पटर जबान चला रही है। क्या यही सब शहर में पढ़कर आई है ?"

"चाची,.. किस ज़माने की बात कर रही हो तुम और किस ज़माने में जी रही हो ? आँखें खोलो और समाज में हो रहे बदलावों को महसूस करो। शहरों में तो लडके लड़कियाँ साथ ही बैठकर कैंटीन में नाश्ता करते हैं, चाय पीते हैं। और तो और अब तो शहरों में लड़कियाँ कार भी चलाती हैं। अपने पड़ोस के गाँव की रूबी तो अपने ही स्कूटर से कॉलेज आती थी। ऐसा जताती थी जैसे किसी बहुत बड़े रईस बाप की बेटी हो।" साधना ने चाय सुड़कते हुए परबतिया को अपने शहरी ज्ञान का नमूना दिखाया था।

परबतिया बुरा सा मुँह बनाते हुए ख़ामोशी से चाय सुड़कने लगी। साधना ने जानबूझकर उससे यह सब कहा था, वह परबतिया की नस नस से वाकिफ जो थी। वह जानती थी कि जब तक उसे कोई चीज नागवार नहीं गुजरेगी वह यहीं डेरा जमाए पड़ी रहेगी। जबकि उसे परबतिया की उपस्थिति खल रही थी। आज तो वह बड़ी धर्मसंकट में फंस गई थी जब बाबूजी ने गोपाल के बारे में उससे पूछ लिया था। उस समय तो ऐन वक्त पर परबतिया ने अचानक आकर उसे इस संकट से उबार लिया था लेकिन अब वह एकांत चाहती थी, ताकि वह खुलकर गोपाल से इस आनेवाले संकट के बारे में खुलकर बात कर सके। उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि शाम को वह अपने बाबूजी की नज़रों का सामना कैसे कर पाएगी ? क्या जवाब देगी गोपाल को लेकर उनके सवाल का ? यही सब सोचते हुए साधना साथ ही साथ चाय भी सुड़कते जा रही थी।

उसकी इस विचारणीय मुद्रा को व् उसके चाय पीने के देहाती अंदाज को देखकर गोपाल के अधरों पर बरबस ही मुस्कान फ़ैल गई। अब तक परबतिया चाची ने चाय का गिलास खाली कर दिया था। गिलास साधना को पकड़ाकर खटिये से उठते हुए वह बोली, "बेटा अपना ध्यान रखना। मुझे एक जरुरी काम याद आ गया है। निबटाकर अभी आती हूँ।"

सुनकर साधना की मुस्कान गहरी हो गई। अनायास ही उसके मन की मुराद पूरी हो रही थी लेकिन फिर भी उसका हाथ थाम कर उसे रोकने का प्रयास करते हुए वह बोली, "क्या बात है काकी ? आपको इस बुढापे में भी काम की फ़िक्र है ? अरे बैठिये ! बाबूजी आएंगे तभी जाना। मैं भी अकेली ही हूँ न ? फटाफट आपका भी खाना बना देती हूँ।"

"अरे नहीं नहीं ! अभी तो तू मुझे जाने दे! आगे फिर आने की सोचूँगी।" कहने के साथ ही परबतिया उठी और समीप ही रखी अपनी छोटी सी लाठी हाथ में ले टेकती हुई अपने घर की तरफ प्रस्थान कर गई।

उसके दूर जाते ही साधना ने गोपाल की तरफ देखा जिसने चाय पीकर अभी अभी गिलास नीचे रखा था। इधर उधर देखते हुए साधना धीरे से फुसफुसाई, "गोपाल बाबू ! अब आपको ही कुछ करना होगा। मैं अब इस रिश्ते को और नहीं झेल सकती। आज ही बाबूजी ने मुझसे पूछ लिया था आपके बारे में। मेरी तो हालत ख़राब हो गई थी। ऐन वक्त पर काकी के आ जाने से मैं बच गई नहीं तो क्या जवाब देती उनकी बातों का और कैसे ? अब आपको ही आगे बढ़ना होगा गोपाल बाबू !"
"तुम ठीक कह रही हो साधना ! अब हमारे रिश्ते को अंजाम तक पहुंचाने का वक्त आ गया है और यह भी सही है कि तुम इस बाबत कुछ नहीं कह पाओगी। मैं तुम्हारी दुविधा समझ रहा हूँ साधना ! इससे पहले कि मैं बाबूजी से तुम्हारे बारे में बात करूँ तुम मुझे यह बताओ तुम तो इस रिश्ते से खुश हो न ?" गोपाल ने बात को आगे बढ़ाया।

"कैसी बात कर रहे हैं आप गोपाल बाबू ? दिल लेना देना हँसी खेल नहीं। खासकर एक हिंदुस्तानी लड़की किसी गैर को जल्दी अपना नहीं बनाती और जब किसी को अपना बनाती है तो दिलोजान से उसकी हो जाती है। उसके लिए खुद का वजूद मिट जाने का भी परवाह नहीं करती। मैं भी आपके साथ ऐसे मक़ाम पर पहुँच गई हूँ जहाँ से वापसी के सभी रास्ते बंद हो जाते हैं। अब आपके बिना मेरा कोई वजूद नहीं है गोपाल बाबू !" कहते हुए साधना की आँखों में आँसू झिलमिलाने लगे थे। सजल नेत्रों से उसने आगे कहना जारी रखा, "अब फैसला मुझे नहीं करना है क्योंकि मैं तो फैसला करने के बाद ही आपके साथ आपके बंगले तक गई थी। फैसला अब आपको करना है।"

इधर उधर देखते हुए गोपाल ने नजदिक जाकर अपने हाथों से साधना के छलक आये आँसुओं को पोंछते हुए कहा, "साधना ! अब फैसला करने का समय नहीं है। हमारा फैसला तो भगवान का किया हुआ फैसला है। इसमें दखल देने वाले हम कौन होते हैं ? बस तुमसे एक निवेदन है। पहले भी किया था ,कब तक मुझे आप का संबोधन देकर अपने से दूर होने का अहसास कराती रहोगी। सचमुच तुम्हारे मुँह से मैं अपने लिए प्यार भरा तुम का संबोधन सुनना चाहता हूँ। और एक निवेदन और बाबूजी के आते ही मैं उनसे बात करूँगा लेकिन तुम्हें मुझसे वादा करना होगा कि हर हाल में तुम मेरा साथ निभाओगी। बाबूजी का फैसला हमारे खिलाफ हो तब भी।"

क्रमशः