अपने चेहरे पर सूर्य के किरणों की तपिश महसूस कर गोपाल की नींद खुल गई।
प्रतिदिन देर से सोने और देर तक सोने के आदि गोपाल को अपनी नींद में यह खलल नागवार गुजर रहा था लेकिन अपनी वस्तुस्थिति का भान होते ही उसकी सभी नाराजगी जाती रही। आँखें मसलते हुए वह खटिये पर ही उठ कर बैठ गया।
खटिये पर बैठे बैठे ही उसने अपने चारों तरफ का निरीक्षण किया। रात में अंधेरे की वजह से वह वहाँ की स्थिति का सही अनुमान नहीं लगा सका था। मकान के सामने थोडी सी खाली जगह के बाद बेतरतीब उग आई सरकंडे की झाडियाँ थीं और उनके ठीक पीछे एक छोटा सा कच्चा तालाब जैसा लग रहा था जिसमें नाम मात्र का ही पानी शेष था। इस तालाब या यूँ कह लिजिये कि इस खड्डे के चारों तरफ अधकच्चे मकान बने हुए थे। तालाब के किनारे पर पूरे गाँव भर का कूड़ा करकट पड़ा हुआ नजर आ रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे गाँव वालों में उस खड्डे को पाटने की होड़ सी लगी हो। गाँव की सारी गंदगी कूड़े के रूप में उस खड्डे नुमा तालाब में मौजूद थी।
दूर से ही 'कूड़ा - दर्शन ' करके गोपाल का मन खिन्न हो गया था कि तभी उसे अपनी पेट में मरोड़ का अहसास हुआ। नींद खुलते ही उसे सीधे शौचालय जाने की आदत थी। पेट की गड़गड़ाहट ने उसे अपनी दिनचर्या का ध्यान दिला दिया। उसने मदद के लिए अपने चारों तरफ नजर दौड़ाई। मास्टर रामकिशुन अपने घर में ही बरामदे से लगे हुए एक बड़े से कमरे में कुछ बच्चों को पढ़ा रहे थे।
बच्चों की उम्र देखकर गोपाल ने अंदाजा लगाया शायद दसवीं के विद्यार्थी हों। उनके पहनावे को देखकर एक बारगी उसे हँसी आ गई। सामने का दृश्य था भी वैसा ही।
दिवार से लगे एक तख्ते पर मास्टर रामकिशुन कुछ लिख कर समझा रहे थे। उनके सामने चिथड़ा हुए बोरों पर कुछ छात्र पालथी मारकर बैठे थे तो कुछ छात्र उकड़ूं बैठकर अपनी जाँघों पर हाथ से बनी सफ़ेद पन्नों वाली कापी रखकर उसमें कुछ लिख रहे थे। कुछ छात्र इधर उधर देखने में ही खासी दिलचस्पी दिखा रहे थे तो कुछ की निगाहें उसकी तरफ भी थीं। कुछ लड़कों ने मटमैली गंदी सी बनियान और उसके नीचे पायजामा पहन रखा था तो कुछ ने पायजामे की जगह बड़ी सी धारीदार कपड़ों की जाँघिया ही पहन रखा था। दो लड़कों ने बाकायदे राजकपूर स्टाइल के बाल रखे हुए थे और कमीज भी पहनी हुई थी। कुल मिलाकर गोपाल के लिए वह दृश्य बिलकुल नया व मजेदार था।
खटिये से पैर निचे उतार कर उसने समीप ही रखी चप्पल अपने पैरों में डालनी चाही, लेकिन पैर का संपर्क सीधे भूमि से होते ही उसका माथा ठनका। उसने निचे नजर दौडाई तो देखा, रात को सोने से पहले उसने जहाँ अपनी चप्पल रखी थी वहाँ तो उसकी चप्पल थी ही नहीं। आसपास भटक रहे कुछ गंदे आवारा कुत्तों को देखकर उसका मन घृणा से भर उठा। तभी उसे एक कुत्ते का पिल्ला सामने स्थित झाडियों में से निकलता हुआ दिखा। उसने मुँह में गोपाल की चप्पल पकड़ रखी थी। देखते ही गोपाल दौड़ पड़ा उस पिल्ले की तरफ। पता नहीं उसका डर काम आया या और कुछ, वह पिल्ला चप्पल मुँह से वहीं छोड़कर आगे की तरफ भाग खड़ा हुआ और पलटकर गोपाल की तरफ देखकर भौंकने लगा। गोपाल ने बिना डरे अपनी वह चप्पल उठाकर पैरों में डाल ली। संयोग से दूसरे पैर का चप्पल भी वहीं पडा हुआ उसे मिल गया था और उसकी यह सबसे बड़ी खुशकिस्मती रही कि कुत्ते के जबडे में पहुँचकर भी उसकी चप्पलें सुरक्षित थीं। उसने चैन की साँस ली।
अब उसकी नजरें साधना को तलाश रही थीं जिससे वह अपनी परेशानी कह पाता, लेकिन वह तो कहीं नजर ही नहीं आ रही थी। वह बरामदे से होते हुए आँगन में प्रवेश करनेवाले दरवाजे की तरफ बढ़ ही रहा था कि तभी उसे मास्टर रामकिशुन की आवाज सुनाई पड़ी, "उठ गए बेटा ? बड़ी देर तक सोते रहे आज ! सूर्योदय के बाद सोना सेहत के लिए नुकसानदेह होता है।"
"जी !" गोपाल का संक्षिप्त सा जवाब था।
वह उस भिड़े हुए दरवाजे को खोलने ही वाला था कि मास्टर रामकिशुन की आवाज फिर से सुनाई पड़ी, "अभी उधर नहीं जाना बेटा ! शायद साधना आंगन में नहा रही है, नहीं तो हमारे घर का दरवाजा हमेशा खुला ही रहता है।"
"ओह ! अच्छा हुआ काका आपने बता दिया !"कहकर वह बेमन से वापस आकर बाहर खटिये पर बैठ गया।
अभी वह बैठा ही था कि उन्हीं पढनेवाले बच्चों में से एक लड़के ने बरामदे के बाहर पड़े हुए एक लोटे में पानी भरकर उसके सामने रख दिया।
गोपाल ने सवालिया निगाहों से उसकी तरफ देखा। शायद उस लड़के ने गोपाल के मनोभावों को समझ लिया था। चेहरे पर गहरी मुस्कान लाते हुए उसने वहीँ से उस गंदे से तालाब के पार दूर नजर आ रहे गन्ने के खेतों की तरफ इशारा किया।
गोपाल उसके इशारे को समझ कर मुस्कुरा पड़ा। मरता क्या न करता ? चल पड़ा हाथ में लोटा थामे। खेतों में काम करते किसान अचरज भरी निगाहों से उसे एक बार देखते और फिर अपने काम में लग जाते। शायद अपने जिस्म पर मौजूद पतलून की वजह से गोपाल उन्हें किसी दूसरे ग्रह के वासी जैसा लग रहा था। खेतों की मेंड़ों पर से चलता हुआ गोपाल बस्ती से काफी दूर आ गया, तब कहीं जाकर वह पास ही नजर आनेवाले उस गन्ने के खेत तक पहुँच पाया था।
साधना नहा धोकर घर से बाहर निकली। उसका ख्याल था गोपाल सोया होगा अभी तक लेकिन बाहर उसकी खटिया खाली देखकर उसने मास्टर रामकिशुन से ही पूछ लिया, "बाबूजी ! ये गोपाल कहाँ गए ?"
साधना को देखते ही रामकिशुन ने सभी बच्चों से मुखातिब होते हुए कहा, "बच्चों ! आज की पढ़ाई समाप्त हुई। कल थोड़ा ज्यादा पढ़ा देंगे। अब सब जाओ अपने अपने घर। संभल कर जाना सब।"
और फिर कमरे से बाहर आकर साधना की बाँह पकड़कर उसे बरामदे में बिछे खटिये पर बैठाकर खुद भी उसकी बगल में बैठते हुए बोले, "बेटा ! आज तेरी माँ मुझे बहुत याद आ रही है। काश ! आज वह जिन्दा होती तो मुझे तुमसे वह सब नहीं पूछना पड़ता जो मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ। मुझे माफ़ कर देना बेटा, लेकिन ईश्वर गवाह है कि मैंने तुझे माँ और बाप दोनों ही बनकर पाला है। जब से तू आई है मेरे मन में एक सवाल काँटा बनकर चुभ रहा है लेकिन मुझे अवसर नहीं मिला था कि तुझसे कुछ पूछ सकूँ। इससे पहले कि वह लड़का वापस आ जाय बेटा ! सही सही बताना। इस समय मुझे अपनी माँ समझ कर बात करना। क्या वह लड़का यहाँ सिर्फ घूमने ही आया है ?"
साधना के सामने बड़ा धर्मसंकट उपस्थित हो गया था। बचपन से आज तक उसने कभी अपने बाबूजी से झूठ बोलने का प्रयास भी नहीं किया था। अब क्या करे ? कुछ भी तो उसने इस स्थिति के बारे में नहीं सोच रखा था। क्या जवाब दे ? झूठ बोल नहीं सकती थी और यह पता नहीं था कि सच जानकर उसके बाबूजी की क्या प्रतिक्रिया रहेगी। उसकी ख़ामोशी मास्टर रामकिशुन की बेचैनी बढ़ा रही थी।
क्रमशः