Blind Date - 1 in Hindi Short Stories by Jitin Tyagi books and stories PDF | ब्लाइंड डेट - भाग-1

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ब्लाइंड डेट - भाग-1


विकास शर्मा गोरखपुर यूनिवर्सिटी से पर्यावरण में अपना मास्टर पूरा करकर, दिल्ली एक NGO में इंटर्नशिप प्रोग्राम करने के लिए आया था। हालांकि दिल्ली में वो पहली बार आया था। पर दिल्ली आने तक और उसके बाद दिल्ली में एडजस्ट होने तक उसे कोई परेशानी नहीं हुई थी। क्योंकि उसके पापा के एक दोस्त ने खुद निजी रूप से उसे पहले स्टेशन पर जाकर रिसीव किया। और बाद में हर जगह साथ में जाकर उसके रहने से लेकर खाने-पीने का इंतज़ाम किया था। वो बात अलग है। इस ज़िम्मेदारी को निभाने के बाद विकास दिल्ली में है। भी या नहीं, इसका संज्ञान लेना उन्होंने जरूरी नहीं समझा था।

विकास को दिल्ली में रहते हुए। एक महीना बीत चुका था। और इस एक महीने में इंटर्नशिप प्रोग्राम ग्रुप के अंदर उसका जो एकमात्र दोस्त बना था। वो राजन था। राजन मूल रूप से दिल्ली का ही रहने वाला था। इसलिए उसे दिल्ली से कुछ ज़्यादा ही प्यार था।


कनॉट प्लेस में पिज़्ज़ा हट के अंदर दिसम्बर का महीना

'आज गर्मी कुछ ज्यादा नहीं हैं। ऐसा लग रहा है। जैसे सूरज आसमान में ना निकलकर हमारे सिर पर निकला हो’, विकास अपनी लेदर जैकेट निकालकर मेज़ पर रखते हुए बोला

‘इतनी सर्दी में भी गर्मी लग रही है। तुझे’, राजन सामने से जाती हुई लड़की को देखते हुए बोला

अजीब शहर है। ये दिल्ली, मुझे ख़ास पसंद नहीं आया। जैसा सुना था। इसके बारे में वैसा तो यहाँ कुछ है। ही नहीं, विकास कुर्सी पर बैठते हुए। उस गुजरने वाली लड़की को पीछे से देखते हुए बोला

क्यों, तेरा कुछ निजी नुकसान कर दिया क्या दिल्ली ने जो ऐसे शब्द तु आज बोल रहा हैं।, विकास की जैकेट को टेबल के एक तरफ रखते हुए राजन बोला

अबे निजी नुकसान तो कुछ नहीं किया। पर हैं। क्या यहाँ पर, मुगलों के द्वारा अपने आराम के लिए बनाए हुए किले जो अब देखने पर केवल खंडर दिखाई देते है।, अंग्रेज़ों की बनाई हुई इमारतें जिनमें बैठकर आज हमारी सरकारें देश चलाती हैं।, विदेशी इतिहास पुरुषों के नाम के बोर्ड होर्डिंग जो सड़कों के किनारे लगा दिए गए हैं। और दिल्ली के अपने इतिहास के नाम पर तो ऐसा लगता हैं। जैसे एक परिवार का इतिहास ही दिल्ली का इतिहास हो, और तो और मध्य काल में हर आक्रमणकारी द्वारा जगह-जगह जबरदस्ती खड़ी की गई मस्जिदें, उपनिवेश काल में अंग्रेजों द्वारा अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के लिए बनाए गए चर्च, और संविधान में लिखे शब्द धर्मनिरपेक्षता का पालन करने के लिए सब धर्मों की इमारतें खड़ी करने के लिए आमंत्रण देती सरकार, बस यहीं तो हैं। इस दिल्ली में, विकास गुस्से में बोलते हुए

तेरे इतिहास के ज्ञान को देखकर लगता हैं। कि तू एक पक्का राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी इंसान हैं। पर जरा इत्मीनान से अपनी इस लंबी कहानी की हाईलाइट बताएगा। इसकी शुरुआत कब हुई, राजन गंभीर होकर बोलते हुए

इसकी शुरुआत तो पता नहीं कब हो गई। लेकिन मुझे अच्छा नहीं लगता यहाँ पर…..मतलब… मेरा मन नहीं लगता दिल्ली में, अजीब सी जगह हैं। हर कोई अपने आप में जी रहा हैं। जवान लड़के-लड़की एक दूसरे में खोए हुए हैं। और खुश हैं। उम्रदराज़ भी खोकर ख़ुश होने की चाह तो रखते हैं। लेकिन पारिवारिक परवरिश में मिली पुश्तैनी शर्म से पीछा नहीं छुटा पा रहे हैं। जिस वजह से उन्हें somatisation disorder( काय आलंबिता विकार) हो गया हैं। और बूढ़े लोग इन सबको बात बना कर अपना समय काट रहे हैं।

अकेला आदमी यहाँ पर खुद को सबसे होशियार समझता हैं। लड़कियाँ इस शहर को फैशन की नगरी पेरिस बनाना चाहती हैं। और लड़के इसे बुडापेस्ट का वेश्यालय, हिंसा किस गली, नुकड़, सड़क, चौराहे पर हो जाए। पता नहीं चलता, और रेप की नगरी तो इसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों के मानक साबित कर ही चुके हैं।

वैसे तो आर्थिक राजधानी मुंबई को कहते हैं। लेकिन अगर शोध किया जाए। तो पता चलेगा देश का पेट दिल्ली पाल रही हैं। सच कहूँ तो पूरा देश इसे अपना दूसरा घर कह सकता हैं। वर्ग तो यहाँ पर बहुत हैं। पर वर्ग संघर्ष कम और धर्म संघर्ष ज्यादा देखने को मिलता हैं। रामलीला मैदान की तरफ जाओ तो पता चलेगा जैसे दुनिया की हर समस्या को लेकर एक इंसान वहाँ धरने पर बैठा हैं। पर इन लोगों पर भी अगर गहन शोध किया जाए। तो पता चलेगा समस्या वगैराह तो दूर की बात हैं। ये खुद भगवान के भरोसे बैठे हैं।, माफ़ी चाहता हूँ। यहाँ के बाजारों के बारे में तो कुछ कहना भूल ही गया। वो तो इंग्लैंड के आधुनिक युग, अमेरिका का पूंजीवादी युग, सोवियत संघ का समाजवादी युग और हाल ही में जो सारे संसार में चलन में हैं। सूचना युग, सब को खुद में समेटे हुए हैं। यानी कि एक इंसान की जेब में जिस युग के अनुसार पैसे हैं। वो उस हिसाब से अपनी सहूलियत को सर्वोपरि रखते हुए। बाजार चुन सकता हैं।

सच में यार यहाँ हर कोई किसी के इंतज़ार में हैं। हर कोई अंदर से खाली हैं। और अपने खालीपन को भरने वाले कि राह तक रहा हैं।, विकास एक लंबी साँस खींचकर चुप हो गया

राजन जो अब तक विकास की बात सुन रहा था। उठकर पिज़्ज़ा का आर्डर देने चला गया।


20 मिनट बाद


राजन पिज़्ज़ा खाते हुए, ‘एक कहानी हैं। दिल्ली के लोगों के ऊपर, अब कितनी सच हैं। कितनी झूठ, ये मैं नहीं जानता, पर ये दिल्ली में रहने का तरीका सिखाती हैं। जो कुछ इस तरह हैं।

“एक बार की बात हैं। एक बंगाली और एक मद्रासी दिल्ली घूमने आए हैं। घूमते हुए उन्हें पानी का एक गिरता हुआ झरना दिखा। बंगाली बोला कितना सुंदर झरना बहती हैं। जिसके जवाब में मद्रासी बोला, बहती नहीं; बहता हैं। इस बात पर दोनों की लड़ाई होने लगी। कि ये जो पानी का झरना हैं।, बहती हैं। कि बहता हैं।, बड़ी देर तक उनमें बहस चलती रही। जब कोई नतीजा नहीं निकला तो तय हुआ किसी स्थानीय व्यक्ति से पूछा जाए। कि झरने बहती हैं। कि बहता हैं?..........थोड़ी समय बाद एक स्थानीय व्यक्ति वहाँ से गुजर रहा था। उन दोनों ने उसे पकड़ा और उससे बोले, भाई साहब ये बताओं ‘ये जो झरना हैं। बहती हैं। कि बहता हैं।

उनकी बात सुनकर वो आदमी बोला, ‘ ना बहती हैं। ना बहता हैं। यूँ तो बहवै हैं।

तो इस कहानी से हमें ये सीख मिलती हैं। कि हमें किस चीज़ में आनंद आ रहा हैं। अब दिल्ली के लोग कैसे भी सही, किसी भी समय के, उन्हें जो उस वक़्त सही लगा। उन्होंने वो किया। अब तुम लोगों को जो सही लग रहा हैं। तुम करलो दिल्ली कौन सा तुम्हारी आज़ादी छीन रही हैं।

विकास, ‘तूने जो भी कहा हैं। उसका मेरी बातों से कोई खास सम्बन्ध दिखाई नहीं देता। फिर भी अगर मैं सम्बन्ध जोड़ना चाहूँ। तो भी मेरे लिए अचानक से सब कुछ बदल नहीं जाएगा।

राजन,’परेशानी तेरी नहीं हैं। तु जहाँ पला-बढ़ा हैं। उस आसपास के माहौल की हैं। जहाँ तुम लोगों को समाजशास्त्र में कहते हैं। ना नृजातिकेन्द्रवाद, इस सिद्धांत के तहत पाला जाता हैं।


तुझे पता हैं। दिल्ली मेरे दिल के इतनी करीब हैं। कि इसके लिए मैंने एक कविता भी लिखी हैं।


मेरे बचपन की किलकारियों को संभाला हैं। दिल्ली ने

बड़े होकर भागने पर मेरे पैरों की छाप हैं। दिल्ली में

मेरी पल-पल गुज़रती जवानी की हर उम्मीद हैं। दिल्ली में

और इसे दिल्ली ना समझकर मेरा दिल ही समझले

क्योंकि अब तक की मेरी ज़िंदगी के हर हिस्से को संभाला हैं। दिल्ली ने


विकास, ‘ग़ालिब ने कभी शेर पढ़ा था। तुरंत बनाकर, वो आजतक लोगों की जवान पर हैं। और कुछ तूने पढ़ा हैं। जो साहित्य की ऐसी तैसी कर रहा हैं। इसे तू ऐसे भी कह सकता था।


सँवारती रहती हैं। सदा ये मेरे लम्हों को

ये दिल्ली कोई जगह नहीं मेरा अंदर का ही एक हिस्सा हैं।

और जाऊं तो दूर कैसे जाऊं इससे

ये मेरी टीस, आवारगी, रतजगें, बेख्याली, सब महकमों का हिस्सा हैं।


वैसे जब तूने यहाँ की इतनी तारीफ कर ही दी हैं। तो यहाँ कुछ ऐसा दिखा अक्षरधाम के अलावा, जो मेरा इसके बारे में जो ख्याल हैं। उसे बदल दें।

राजन, ‘ ठीक हैं। तो आने वाले शनिवार की रात को आठ बजे मिलना।