वह अपने अंतिम दिनों में कहा करते थे, 'हिंदुस्तान की हॉकी ख़त्म हो गई है। ख़िलाड़ियों में डिवोशन (लगन) नहीं है। जीतने का जज़्बा ख़त्म हो गया है।' अपनी मौत से दो महीने पहले उन्होंने कहा, 'जब मैं मरूंगा तो दुनिया रोएगी, लेकिन भारत के लोग मेरे लिए आंसू नहीं बहाएंगे। मैं उन्हें जानता हूं।'
उनके डॉक्टर ने एक बार पूछा, 'भारतीय हॉकी का भविष्य क्या है?' जवाब था, 'भारत में हॉकी ख़त्म हो चुकी ह।'
डॉक्टर का अगला सवाल, 'ऐसा क्यों?' जवाब था, 'हमारे लड़के सिर्फ़ खाना चाहते हैं. वे काम नहीं करना चाहते।’
उनकी मौत के बाद उनके गृह ज़िले झांसी में उनकी एक मूर्ति लगाई गई। मूर्ति पहाड़ी पर है। आज मूर्ति के नीचे कुछ लोग ताश खेलते हैं, गांजा पीते हैं. इस स्थिति को देखकर 1979 में कही गई उनकी बात अक्षरश: सही लगती है। लगता है कि वह हॉकी के मैदान पर ही दूरदर्शी नहीं थे, बल्कि इंसान की प्रवृत्ति को लेकर भी उनमें एक दूरदर्शिता थी।
हम बात कर रहे हैं हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की। ध्यानचंद अपने ज़माने में दुनिया में वैसे ही जाने जाते थे, जैसे क्रिकेट के चाहने वाले डॉन ब्रैडमैन को जानते हैं। इतिहास के पन्नों को पलटें, तो कई मर्तबा लगता है कि ध्यानचंद बहुत आगे थे। शायद उनका कोई सानी नहीं था।
कहते हैं कि इंसान ने अपनी ज़िंदगी में क्या हासिल किया है, वह उसके अंतिम दिन में मालूम पड़ता है। तो ध्यानचंद का हासिल ये था कि उनकी अंतिम यात्रा में झांसी जैसे छोटे ज़िले में क़रीब 1 लाख लोग पहुंचे थे। कहा जाता है कि पुलिस की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उनका अंतिम संस्कार स्टेडियम में ही हुआ। इसके लिए सेना तक को बुलाना पड़ा। शव को अग्नि देने से पहले उन पर हॉकी स्टिक और गेंद रखी गई थी।
29 अगस्त 1905 में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में ध्यानचंद का जन्म हुआ. उनके पिता सेना में थे। बार-बार ट्रांसफ़र हुआ करता था। इससे ध्यानचंद की पढ़ाई प्रभावित हुई और वह 6वीं तक ही पढ़ पाए। 1922 में 16 साल की छोटी उम्र में उन्होंने सेना जॉइन कर लिया। सैनिक उन दिनों अपनी बटालियन के साथ हॉकी खेलते थे। ध्यानचंद उन्हें देखते और उम्मीद करते कि उन्हें भी खेलने को मिलेगा।
अपनी बटालियन के सुबेदार बाले तिवारी से उन्होंने हॉकी खेलने की इच्छा ज़ाहिर की। बाले तिवारी ने सहयोग किया और ध्यानचंद को ट्रेनिंग दी। कुछ हिज समाय में ध्यानचंद बटालियन के सबसे अच्छे हॉकी प्लेयर बन गए. 1926 में सेना चाहती थी कि हॉकी टीम न्यूज़ीलैंड जाए। इसके लिए खिलाडियों की तलाश शुरू हुई और ध्यानचंद का सिलेक्शन हो गया। ध्यानचंद के जीवन का ये टर्निंग पॉइंट था।
न्यूज़ीलैंड में कुल 121 मैच खेले गए। इसमें भारत 118 मैच जीतने में कामयाब हुआ। भारत ने कुल 192 गोल दागे, जिसमें 100 गोल सिर्फ़ मेजर ध्यानचंद के थे। यहीं से ध्यानचंद की प्रतिभा का लोहा माना जाने लगा।
1928 में एम्सर्टडम ओलंपिक में ध्यानचंद भारतीय टीम का हिस्सा थे. बताया जाता है कि हॉकी संघ के पास पर्याप्त पैसे नहीं थे। ऐसे में बंगाल हॉकी संघ आगे आया और आर्थिक मदद की. उधार लेकर मैच खेलने पहुंची टीम वर्ल्ड चैंपियन बन चुकी थी। विदेशी अख़बारों में 'जादू', 'जादूगर', 'जादू की छड़ी' जैसे शब्द छप चुके थे। और यहीं से ध्यानचंद को 'हॉकी का जादूगर' कहा जाने लगा।
1928 में ही हॉलैंड में ध्यानचंद के प्रदर्शन के बाद दूसरी टीम के खिलाडियों सहित कई लोगों ने ध्यानचंद की हॉकी स्टिक पर सवाल उठाया। उनकी स्टिक को तोड़कर जांचा गया कि उसमें चुंबक तो नहीं लगा। ये सिर्फ इसलिए था कि ध्यानचंद की स्टिक के पास बॉल आने के बाद वह सीधे गोल पर ही दिखाई देती थी। वो ड्रिबल नहीं करते थे, बल्कि हर एंगल से बॉल को गोल में पहुंचाने की क्षमता रखते थे।
साल 1932 का ओलंपिक लॉस एंजेल्स में हुआ. ये ऐसे टूर्नामेंट था, जिसमें ध्यानचंद के भाई भी शामिल हुए। सेना की तरफ़ से ध्यानचंद, तो संयुक्त प्रांत की तरफ़ से उनके भाई रूप सिंह भारतीय हॉकी टीम में शामिल हुए। इस टूर्नामेंट में भी पंजाब नेशनल बैंक और बंगाल हॉकी संघ ने आर्थिक मदद की थी। ये ओलंपिक भी भारत ने जीत लिया।
फिर वह ओलंपिक टूर्नामेंट आया, जिसकी चर्चा भारतीय टीम की जीत के लिए कम, बल्कि ध्यानचंद और हिटलर की मुलाकात के लिए होती है। साल 1936 के इस टूर्नामेंट में ध्यानचंद कप्तान थे। यह पहला ओलंपिक था, जिसे टीवी पर दिखाया गया था। ये हिटलर का दौर था।
15 अगस्त को भारत और जर्मनी के बीच मुकाबला हुआ। मैच के दौरान ध्यानचंद के दांतों में चोट लग गई। थोड़ी देर मैदान के बाहर रहे लेकिन फिर लौट आए। इसके बाद उन्होंने ताबड़तोड़ गोल दागे। भारत ने जर्मनी को ये मैच 1 के मुकाबले 8 गोल से हराया। कहा जाता है कि हिटलर बीच मैच में ही मैदान छोड़कर चला गया था।
फिर ओलंपिक सम्मान समारोह में हिटलर की मुलाकात ध्यानचंद से हो गई। हिटलर उनसे बहुत प्रभावित था। उसने ध्यानचंद को अपनी सेना में जनरल पद का ऑफ़र दिया लेकिन ध्यानचंद ने इसे ठुकरा दिया।
हॉकी के अलावा ध्यानचंद को बॉलीवुड की फ़िल्में बहुत पसंद थीं। अशोक कुमार और मधुबाला के वह फ़ैन थे लेकिन, वह सुरैया के गायकी पर फ़िदा थे। उन्होंने उनकी एक बड़ी सी तस्वीर अपने घर में लगा रखी थी। ध्यानचंद को मिट्टी के बर्तन में रबड़ी खाना बहुत पसंद था।
कहा जाता है कि ध्यानचंद का नाम ध्यान सिंह था। वह हॉकी का अभ्यास रात में करते थे। उनके कुछ दोस्त मज़ाक में कहा करते थे कि जैसे ही चांद निकलता है, ध्यान सिंह हॉकी की प्रैक्टिस करने लगता है। ऐसे में धीरे-धीरे उनके नाम के आगे चांद लगा दिया और उनका नाम ध्यानचंद पड़ गया।
ध्यानचंद हॉकी को इतना बारीकी से जानते-समझते थे, कि उन्हें गोल पोस्ट से लेकर ग्राउंड की हर स्थिति के बारे में पूरी जानकारी होती। कहा जाता है कि एक बार वह मैच के दौरान गोल नहीं कर पा रहे थे। उन्होंने रेफ़री से गोल पोस्ट की माप पर आपत्ति जताई. इसमें भी ध्यानचंद सही पाए गए। गोलपोस्ट अंतरराष्ट्रीय नियमों के तहत नहीं बना था।
ध्यानचंद के खेल पर जितनी बात होती है, उतनी ही उन्हें भारत रत्न दिए जाने पर होती है. एक बड़ा वर्ग पिछले काफ़ी समय से ये मांग कर रहा है कि ध्यानचंद को भारत रत्न मिले। साल 2012 से लेकर अबतक खेल मंत्रालय ने 4 बार ध्यानचंद को भारत रत्न मिले, इसकी सिफ़ारिश कर चुका है। हालांकि, ध्यानचंद की याद में हर साल 29 अगस्त को खेल दिवस मनाया जाता है। इस दिन खेल में बेहतर करने वाले लोगों को सम्मानित किया जाता है।