Raaj-Sinhasan - 12 in Hindi Classic Stories by Saroj Verma books and stories PDF | राज-सिंहासन--भाग(१२)

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राज-सिंहासन--भाग(१२)

ज्ञानश्रुति का ऐसा अद्भुत अभिनय देखकर सहस्त्रबाहु सच में भ्रमित हो गया था,उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि आज तो वो कन्या उसकी जीवनसंगिनी बनकर ही मानेगी,उसने ज्ञानश्रुति के इस अभिनय की प्रसंशा करते हुए कहा...
राजकुमार ज्ञानश्रुति! आज तो मेरे प्राण ही चले गए होते,आपका अभिनय अत्यधिक प्रभावशाली था,अब मुझे आप पर पूर्णतः विश्वास हो गया है कि आपको सुकेतुबाली नहीं पहचान पाएगा॥
धन्यवाद!सहस्त्र भ्राता! मैं अत्यधिक प्रसन्न हूँ कि आपको मेरा अभिनय भाया,किन्तु अब निपुणिका को बचाने में बिलम्ब नहीं होना चाहिए,मुझे हर क्षण मेरी बहन की चिन्ता रहती है कि ना जाने वो कैसीं होगी? ज्ञानश्रुति बोला।।
मैं समझ सकता हूँ राजकुमार ज्ञानश्रुति ! मैं शीघ्र ही मामाजी भानसिंह , माताश्री एवं पिताश्री से इस बात के लिए आज्ञा माँगता हूँ,हो सकता है कल ही हम यहाँ से सूरजगढ़ की ओर प्रस्थान कर जाएं,सहस्त्रबाहु बोला।।
मुझे आपसे ऐसी ही आशा है भ्राता! ज्ञानश्रुति बोला।।
सबके मध्य इसी प्रकार वार्तालाप चलता रहा एवं रात्रि के भोजन के समय इस विषय पर सहस्त्रबाहु ने अपनी माता-पिता एवं मामा श्री से वार्तालाप किया ,तभी भानसिंह बोले....
इतने वर्ष हो गए,आपको अभी तक ये रहस्य ज्ञात नहीं था,किन्तु यदि अब ज्ञात हो गया तो आपको शीघ्र ही अपने जन्म देने वाले माता-पिता की खोज करनी चाहिए कि वें कहाँ हैं ? एवं सुकेतुबाली ने उन्हें संसार के किस स्थान पर छुपा रखा है ।।
सुरजगढ़ के राज-सिंहासन पर तो सच्चा अधिकार आपका ही है,वो सुकेतुबाली तो वर्षो से निरर्थक ही उस राज-सिंहासन का सुख भोग रहा है,वो तो उसके योग्य भी नहीं है,उस राज्य के नागरिक तनिक भी प्रसन्न नहीं है,वो एक भ्रष्ट एवं दुराचारी राजा है।।
जी! मामाजी! अब प्रतिशोध का समय आ गया है,अब सुकेतुबाली को उसके कर्मों का उचित दण्ड मिलना ही चाहिए,सहस्त्रबाहु बोला।।
किन्तु,पुत्र! वो अत्यधिक धूर्त एवं कपटी है,उससे जीतना इतना भी सरल ना होगा,घगअनंग बोले।।
आपका कहना भी उचित है पिताश्री! किन्तु आपका बेटा इतना भी दुर्बल नहीं,आपकी दी हुई विद्या एवं संस्कार हैं ना मेरे पास,सुकेतुबाली मुझे कोई भी हानि ना पहुँचा पाएगा एवं ऋषि अनादिकल्पेश्वर जिसके गुरू हो ,उसे भला कौन सा संकट छू सकता है,सहस्त्रबाहु बोला।।
मुझे ज्ञात है कि मेरा पुत्र अत्यधिक साहसी एवं वीर है किन्तु तब भी सावधान रहना,उसके पास कुछ ऐसीं शक्तियाँ हों जिनका ज्ञान कदाचित किसी को ना हो,हीरा देवी बोली।।
आप निश्चिन्त रहें माता श्री मुझे कोई हानि ना होगी,मेरे संग मेरा भाई और बहन भी तो हैं,सहस्त्रबाहु बोला।।
किन्तु! पुत्र! मैं एक माँ हूँ इसलिए अत्यधिक भयभीत हो रही हूँ,हीरादेवी बोली।।
आपका भयभीत होना उचित है माताश्री! किन्तु ये कार्य तो मुझे करना ही होगा,मैं विवश हूँ,ज्ञानश्रुति की बहन निपुणनिका भी तो सुकेतुबाली के राजमहल में बंदी है,मुझे ज्ञानश्रुति की सहायता करनी ही होगी,सहस्त्रबाहु बोला।।
मैं भी यही चाहती हूँ पुत्र!किन्तु तुम सूरजगढ़ जाओगे तो मुझे तुम्हारी चिन्ता लगी रहेगी,हीरादेवी बोलीं।
आपके हृदय की पीड़ा मै भलीभाँति समझ सकता हूँ माताश्री!सहस्त्रबाहु बोला।।
मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे संग है सहस्त्रबाहु!जो कार्य इतने वर्षों से मैं ना कर सका,मुझे आशा है कि तुम अवश्य कर लोगें,भानसिंह बोले।।
आपका विश्वास कभी टुटने नहीं दूँगा मामाश्री!सहस्त्रबाहु बोला।।
पुत्र! मेरा आशीर्वाद भी सदैव तुम्हारे संग है,घगअनंग बोले।।
जी! पिताश्री! जब आप सब का आशीर्वाद मुझे मिल ही गया तो मेरी जय निश्चित है,सहस्त्रबाहु बोला।।
पुत्र! अब तुम अपनी कुटिया में जाकर विश्राम करो एवं अपनी योजनानुसार सबसे विचार-विमर्श भी कर लो,घगअनंग बोले।।
जी! पिताश्री! कदाचित वे सब भी अभी भोजन कर रहे होगें,सहस्त्रबाहु बोला।।
हाँ! तुम अपनी कुटिया में जाकर उन सबकी प्रतीक्षा करो,प्रातः हमारे मध्य पुनः वार्तालाप होगा,भानसिंह बोले।।
जी! मामाश्री!और इतना कहकर सहस्त्रबाहु अपनी कुटिया में आ पहुँचा।।
और उधर वीरप्रताप की माँ मधुमती भी रात्रि का भोजन पका रहीं थीं एवं वहाँ नीलमणी,सोनमयी ,वीरप्रताप और ज्ञानश्रुति बैठकर भोजन कर रहे थे एवं उनके मध्य वार्तालाप चल रहा था।।
माता! आप भोजन अत्यधिक स्वादिष्ट पकातीं हैं,ज्ञानश्रुति ने वीरप्रताप की माँ सोनमयी से कहा।।
हाँ! मेरी माँ सचमुच अत्यधिक स्वादिष्ट भोजन पकातीं हैं,वीरप्रताप बोला।।
जी! माता! सच में आप सबकी बहुत याद आएंगी,वहाँ राजमहल में तो ऐसा भोजन कतई नहीं मिलेगा,नीलमणी बोलीं।।
आप तो राजकुमारी हैं,आपका जब भी जी चाहें आप अपना मनपसंद भोजन पकवा सकतीं हैं,राजकुमारी नीलमणी! वीरप्रताप बोला।।
मनपसंद भोजन तो मैं रसोइए से कहकर पकवा सकती हूँ,परन्तु ये स्वाद तो कदापि नहीं आएगा,आप सबके साथ इस कुटिया बैठकर भोजन करने में जो आनन्द है वो किसी राजमहल में अकेले बैठकर भोजन करने में कहाँ? ऐसी स्नेहमयी माता भी तो वहाँ ना होगीं,मुझे प्रेमपूर्वक खिलाने के लिए,
इनकी ममता की छाँव पाकर मुझे ज्ञात हुआ कि माँ क्या होती है? एवं केतकी माता भी तो मुझे अत्यधिक प्रेम करने लगी हैं,केवल कुछ ही दिनों में मैने ऐसा जीवन इस स्थान पर जी लिया है जो वर्षों से उस राजमहल में नहीं जी पाई,ये अलग ही संसार है जहाँ केवल प्रेम बसता है और इतना कहते कहते नीलमणी की आँखें भर आई।।
नीलमणी! ऐसे दुखी मत हो,मैं तो तुम्हारे संग चल रही हूँ ना,वहाँ अब तुम अकेली नहीं हो,जब स्थिति पूर्णतः अच्छी हो जाएगी तो हम सब पुनः यहाँ आएंगे और इसी प्रकार साथ रहेगें,सोनमयी बोली।।
हाँ! राजकुमारी नीलमणी आप उदास ना हो,मुझे विश्वास है कि हम अवश्य विजयी होगें,वीरप्रताप बोला।।
जी! मुझे भी ऐसी ही आशा है,नीलमणी बोली।।
मैं एक बात कहूँ! ज्ञानश्रुति बोला।।
जी कहिए! राजकुमार ज्ञानश्रुति,सोनमयी बोली।।
मैं तो कहता हूँ कि वर्तमान का देखें भविष्य की चिन्ता करें,मैं अभी भोजन कर रहा हूँ एवं आप सब निराशाजनक बातें करके मेरे भोजन का आनन्द कम कर रहे हैं,ज्ञानश्रुति बोला।।
राजकुमार ज्ञानश्रुति ! आप तो अत्यधिक स्वार्थी निकले,सोनमयी बोली।।
जी! देवी! सोनमयी,इतने अत्यन्त स्वादिष्ट भोजन हेतु स्वार्थी होना ही पड़ता है ,क्योंकि इतना स्वादिष्ट भोजन ना जाने कब पुनः भाग्य मे लिखा हो,हम जहाँ जाने वाले वहाँ की दशा अत्यन्त दयनीय है एवं अधिक कष्ट तो मुझे मिलने वाला है,आप सब ने कभी सोचा कि मुझे वहाँ कन्या का वेष धरकर जाना है,ना जाने कितने पुरूषों की कुदृष्टि मुझ अबला पर होगी,अभद्र टिप्पणियाँ भी होगीं मुझ पर, मैं कैसे सबसे बचूँगी ,मैं तो ये सोच रही हूँ ,ज्ञानश्रुति कन्या की वाणी निकालते हुए बोला।।
ज्ञानश्रुति की बात सुनकर सब हँस पड़े,नीलमणी के मुँख पर भी हँसीं आ गई,अब वातावरण की स्थिति कुछ ठीक हुई ,तभी वीरप्रताप ने पूछा...
तो राजकुमार ज्ञानश्रुति ! आपने अपना नाम क्या निश्चित किया है?
जी! नाम तो वही रहेगा जो हीरादेवी माँ से कहा था कि मैं आपकी पुत्रवधु कादम्बरी हूँ,ज्ञानश्रुति बोली।।
नाम तो सुन्दर रखा आपने,सोनमयी बोली।।
अत्यधिक आभार आपका,देवी सोनमयी! ज्ञानश्रुति बोला।।
चलो तो अब भोजन समाप्त हो गया है ,सहस्त्र भ्राता हमारी प्रतीक्षा करते होगें,चलिए उनकी कुटिया की ओर चलते हैं और योजना के विषय में विचार करते हैं,वीरप्रताप बोला।।
जी,चलिए और सभी ने सहस्त्र की कुटिया मे पहुँचकर अपने अपने विचार रखें,सभी के विचारों के आधार पर योजना बनी एवं अगले दिन सूरजगढ़ के लिए सभी ने प्रस्थान करने का सोचा।।
रात्रि को सभी विश्राम करने हेतु अपनी अपनी कुटिया में चले गए,प्रातः सभी ने सूरजगढ़ जाने हेतु अपनी अपनी तैयारी बना ली,ज्ञानश्रुति ने कादम्बरी का वेष धरा एवं सभी बड़ो से आशीर्वाद लेकर वे सूरजगढ़ की ओर अपने अपने अश्वों पर निकल पड़े।।
सूरजगढ़ की यात्रा इतनी भी सरल नहीं थी क्योंकि राज्य में सभी के आने जाने की सूचना सर्वप्रथम वहाँ के राजा सुकेतुबाली को दी जाती थी,किसी पर संदेह होने पर उन्हें राजा के समक्ष प्रस्तुत किया जाता था एवं यदि वो दोषी पाया जाता था तो राजा उसे शीघ्रतापूर्वक मृत्युदण्ड सुना देते थे।।
मैदान,जंगल और पहाड़ो को पार करके सभी सूरजगढ़ पहुँचे,उन्हें सरलता से राज्य में प्रवेश करने दिया गया क्योंकि उनके संग राजकुमारी नीलमणी थीं,इसलिए किसी ने कोई भी प्रश्न किए बिना ही उन्हें राजमहल में भी प्रवेश दे दिया।।
अब राजकुमारी को अपने पिता के समक्ष जाकर सबका परिचय देना था,परिचय भी ऐसा हो कि राजा कोई भी संदेह ना कर पाएं,राजकुमारी पूरे विश्वास के साथ अपने पिता सुकेतुबाली के समक्ष गई और उनसे बोली.....
पितामहाराज! ये मेरी सखी सोनमयी एवं कादम्बरी है,इन दोनों के माता- पिता ने मेरा पूरा ध्यान दिया एवं किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं होने दी एवं ये रहें रघुवीर इन्होंने ने उस दिन मुझे उस अपहरणकर्ता से बचाया था ,नीलमणी ने सहस्त्रबाहु की ओर इंगित करते हुए कहा एवं ये रहे श्रवन ये भी उस दिन इनके ही संग थे,मुझे अपहरणकर्ता से बचाने में इनका भी योगदान था ,नीलमणी ने वीरप्रताप की ओर इंगित करते हुए कहा....
आप सभी का बहुत बहुत आभार! आप सभी ने मेरी पुत्री की रक्षा की,दासियों सभी अतिथियों के स्वागत का प्रबन्ध किया जाए,सुकेतुबाली बोला।।
पिता महाराज! मुझे आपसे और भी कुछ कहना था,नीलमणी बोली।।
बोलो पुत्री,सुकेतुबाली बोला।।
मैं चाहती थी कि ये मेरी सखियाँ सोनमयी और कादम्बरी ,दासी बनकर क्या मेरे कक्ष में रह सकतीं हैं?नीलमणी बोली।।
क्यों नहीं पुत्री? अवश्य रह सकतीं हैं,सुकेतुबाली बोला।।
धन्यवाद पिता महाराज,नीलमणी बोली।।
तो दासियों रघुनाथ एवं श्रवन के ठहरने का प्रबन्ध अतिथिगृह में कर दिया जाएं,सुकेतुबाली बोली।।
परन्तु ! पिता महाराज!ये दोनों यहाँ कार्य हेतु पधारें हैं,ये चाहते हैं कि इन्हें आपकी अश्वशाला में कुछ कार्य मिल जाए,नीलमणी बोली।।
क्यों नहीं पुत्री? इन्होंने तुम्हारे प्राणों की रक्षा की है,इन्हें अवश्य अश्वशाला में कार्य दिया जाएगा,सुकेतुबाली बोला।।
अत्यधिक आभार आपका महाराज! आप कितने दयालु हैं,रघुनाथ बना सहस्त्र बोला।।
परन्तु! अभी आप लोंग कुछ दिन अतिथिगृह में ठहर कर अपनी आवभगत का आनन्द उठाए,इसके उपरांत तो आप सभी को कार्य करना ही है,सुकेतुबाली बोला।।
जी अवश्य! जैसी आपकी आज्ञा महाराज,श्रवन बना वीरप्रताप बोला।।
किन्तु सुकेतुबाली ने सोचा कि उन सभी को अभी ये ज्ञात नहीं था कि ये सब तो सुकेतुबाली का षणयंत्र था,वो सर्वप्रथम किसी भी अपरिचित को अतिथिगृह में रखकर ,उन पर दृष्टि रखता था ताकि वो ये ज्ञात कर सकें कि ये कोई शत्रु तो नहीं जो वेष बदलकर उसके रहस्यों को ज्ञात करने का प्रयास कर रहा है।।
एवं ये बात नीलमणी को ज्ञात थी कि उसके पिता महाराज यही करने वाले हैं,इसलिए उसने पहले ही सबको सावधान कर दिया था।
तभी सुकेतुबाली बोला.....
पुत्री! आपकी सखी कादम्बरी की आभा तो देखते ही बनती हैं,ये अत्यधिक सुन्दर हैं।।
ये सुनते ही कादम्बरी का मुँख उतर गया और मन में बोला....
मुझे ज्ञात था कि इस दम्भी की कुदृष्टि मेरे ऊपर अवश्य पड़ेगी.....

क्रमशः...
सरोज वर्मा......