Raaj-Sinhasan - 4 in Hindi Classic Stories by Saroj Verma books and stories PDF | राज-सिंहासन--भाग(४)

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राज-सिंहासन--भाग(४)

भानसिंह अपनी बहन हीरादेवी,बहनोई घगअनंग ,शिष्य शम्भूनाथ और राजकुमार को लेकर अनादिकल्पेश्वर के आश्रम के ओर निकले ही थे कि इधर ज्ञानेश्वर ऋषि के आश्रम में सुकेतुबाली अपनी सेना के संग राजकुमार को खोजते हुए आ पहुँचा,जब आश्रम में किसी ने भी राजकुमार के विषय में नहीं बताया तो उसने ज्ञानेश्वर ऋषि समेत सबकी हत्या करवा दी और आश्रम को अग्नि के सुपुर्द करके भाग गया किन्तु उस आश्रम से एक वीरभद्र नामक युवक भाग निकला।।
उसने कहीं से एक अश्व का प्रबन्ध किया और भानसिंह की खोज में निकल पड़ा कि वो भानसिंह को ये बता सकें ऋषि ज्ञानेश्वर अब इस संसार में नही रहे एवं राजकुमार के प्राणों पर गहरा संकट मड़रा रहा है,सुकेतुबाली किसी भी भाँति राजकुमार को पाकर उसकी हत्या करना चाहता है।।
इसी प्रकार निरन्तर यात्रा के उपरांत वीरभद्र ने भानसिंह को खोज ही लिया,वें पाँचों भी अभी तक अनादिकल्पेश्वर ऋषि के आश्रम नहीं पहुँचे थे,वीरभद्र को देखते ही भानसिंह ने उससे पूछा___
अरे,मित्र! आप यहाँ,कोई कारण है या कि तुम गुरू ज्ञानेश्वर का कोई संदेश लेकर आएं हो।।
अनर्थ हो गया महामंत्री जी! आपके जाते ही सुकेतुबाली अपनी सेना के संग आश्रम आ पहुंचा और उसने सबसे आपके विषय में पूछा,परन्तु किसी ने भी कोई उत्तर ना दिया,तब क्रोधित होकर उसने गुरूदेव समेत सबकी हत्या करवा दी और आश्रम की सभी कुटियाओं को अग्नि के सुपुर्द कर दिया,मैं तो गौशाला में रखें पुवाल में जाकर छिप गया था,इसलिए बच गया,सुकेतुबाली के जाते ही मैं शीघ्रतापूर्वक आपको ये अशुभ समाचार देने चला आया,वीरभद्र बोला।।
मित्र! वीरभद्र! ये तो तुमने अत्यन्त ही अशुभ समाचार सुनाया,ऐसा अक्षम्य अपराध करके सुकेतुबाली ने अपनी कायरता का परिचय दिया,भला निहत्थो की हत्या करना कौन सा साहस का कार्य है,अब सुकेतुबाली को उसके कर्मों का दण्ड तो मिलना चाहिए,तभी मेरी आत्मा तृप्त होगी,भानसिंह बोले।।
अब मैं कहाँ जाऊँ? गुरूदेव ही मेरे सबकुछ थे,मेरा तो कोई परिवार भी नहीं है,मैं उन्हें जंगल में मिला था,उन्होंने और गुरूमाता ने ही मुझे पालपोसकर बड़ा किया था,वीरभद्र बोला।।
घबराओं नहीं मित्र! तुम हमारे संग आ सकते हो,यदि तुम्हें कोई आपत्ति ना हो तो,भानसिंह बोले।।
ये तो आपका उपकार होगा मुझ पर,यदि आप मुझे अपने संग आने को कह रहे हैं,भला इससे मुझे क्या आपत्ति हो सकती है? वीरभद्र बोला।।
और सब ने अनादिकल्पेश्वर के आश्रम की ओर पुनः प्रस्थान किया,चलते चलते सायंकाल हो आई थी एवं कुछ अँधेरा भी गहराने लगा था,तभी वीरभद्र ने भानसिंह से कहा....
महामन्त्री! क्यों ना! हम सब रात्रि को यहीं कोई उचित स्थान देखकर विश्राम करें,प्रातःकाल यात्रा पुनः प्रारम्भ कर देंगें....
भानसिंह को वीरभद्र की सलाह उचित लगी और वें बोले....
हाँ,मित्र! तुम्हारा कहना बिल्कुल ठीक है,ये स्थान विश्राम करने की दृष्टि से अति उत्तम है एवं यहाँ सरोवर भी हैं,जल का भी प्रबन्ध है।।
अति उत्तम!विश्राम करने हेतु ये ही स्थान उचित रहेगा,शम्भूनाथ ने भी अपनी अनुमति जताते हुए कहा......
किन्तु,राजकुमार के दुग्ध की ब्यवस्था कैसें होगी,अब तो दुग्ध भी नहीं बचा है,हीरादेवी बोली।।
किन्तु इस वन में दुग्ध कहाँ मिलेगा?घगअनंग ने कहा।।
मैं कुछ देखता हूँ,यद्यपि कहीं कुछ मिल जाए,जब तक तुम बालक को मधु चखा दो,भानसिंह बोलें।।
भानसिंह का इतना ही कहना था कि ना जाने कहाँ से एक बाण आया और वृक्ष पर जा लगा,भानसिंह ने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई परन्तु उन्हें कुछ भी दिखाई ना दिया,किसी को कुछ भी समझ आता उससे पहले ही दो चार बाण और वायु के वेग से उस स्थान पर आए किन्तु किसी को लगे नहीं,कदाचित वो बाण उन सभी को भयभीत करने हेतु चलाए गए थे।।
भानसिंह ने भी अपना धनुष तान लिया,परन्तु उनके तरकस मे पर्याप्त बाण नहीं थे,उन्होंने तब भी हार नहीं मानी और बाण छोड़ते रहे,जब उनके सभी बाण अपध्वस्त हो गए तो सिवाय तलवार निकालने के और कोई मार्ग नहीं रह गया,उन्हें ये विश्वास हो गया था कि शत्रु के ही सैनिक हैं और सुकेतुबाली भी संग होगा,परन्तु उनका अनुमान कितना सही था ये कोई नहीं जानता था।।
तभी मनुष्यों के किसी झुण्ड ने उन सब को आकर घेर लिया अँधकार इतना घना था कि झुण्ड मे से किसी का मुँख दिखाई ना देता था तभी सभी ने देखा कि सामने से एक व्यक्ति हाथों में जलती हुई मशाल लेकर उपस्थित हुआ,मशाल के प्रकाश में जब सबने उस व्यक्ति का मुँख देखा तो उसके पहनावें एवं साजसज्जा को देखकर ऐसा प्रतीत हुआ कि वो कदाचित एक आदिवासी है,उसे देखकर एक सभी को संतुष्टि हुई कि ये सुकेतुबाली नहीं है।।
कदाचित वो आदिवासियों के दल का मुखिया था,क्योंकि उसने अपने मस्तक पर एक प्रकार का मुकुट धारण कर रखा था,मुखिया सबके निकट आया और उसने अपनी भाषा में पूछा कि ...
तुम लोंग कौन हो और हमारे वन में क्या कर रहे हो?
परन्तु किसी को भी उसकी भाषा समझ नहीं आई सिवाय वीरभद्र के,क्योंकि वीरभद्र ज्ञानेश्वर ऋषि के संग वन में ही वास करता था,यदाकदा वहाँ वनवासी आते रहते थे,इसलिए वीरभद्र को उनकी भाषा आती थी,वीरभद्र ने आदिवासियों के मुखिया के प्रश्न सुने तो उनका उत्तर देने लगा,वो उनकी ही भाषा में बोला....
जी,महाराज! ये नन्हा बालक सूरजगढ़ राज्य का राजकुमार है,इनके प्राण संकट में हैं,इनके काकाश्री इनके माता पिता को तोता और मैना में परिवर्तित करके अपने संग बंदी बना कर ना जाने कहाँ ले गए हैं,इस बालक के प्राणों की रक्षा हेतु इन्हें हम उत्तरदिशा में रहने वाले ऋषि अनादिकल्पेश्वर के आश्रम लेकर जा रहे हैं,मार्ग में रात्रि हो गई तो हम सभी ने इस स्थान पर विश्राम करने का सोचा,यदि आपको कोई आपत्ति ना हो तो क्या हम सभी इस स्थान पर ठहर सकते हैं?
आदिवासियों के मुखिया ने जब वीरभद्र की बात सुनी तो उन्हें उन सभी पर दया आ गई और उन्होंने अपने आदिवासी साथियों से कहा कि इन सबको मुक्त कर दो और सभी को मुक्त कर दिया गया।।
तब सभी ने हाथ जोड़कर आदिवासियों के राजा को आभार प्रकट किया.....
तब वीरभद्र ने बारी बारी से सभी के नाम बताएं....
आदिवासी मुखिया ने अपना नाम वनराज बताया,उसने कहा कि.....
मैं यहाँ का मुखिया हूँ एवं यहाँ हो रही गतिविधियों पर दृष्टि रखना मेरा कर्तव्य है,मेरे कारण जो आप सभी को कष्ट हुआ उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ ,मैं आप सभी से अपरिचित था,मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि कोई हमारे वन को हानि पहुँचाने आया है और उसने हाथ जोड़कर सभी से क्षमा माँगी।।
तभी वीरभद्र बोला.....
हमें कोई भी कष्ट नहीं हुआ वनराज! ये तो आपका कर्तव्य था,अपने वन और वनवासियों की रक्षा करना आपका धर्म हैं।।
अत्यधिक आभार आप सबका,आप सभी यहाँ नहीं,हमारे निवासस्थान पर विश्राम करें,हमें प्रसन्नता होगी,वनराज बोला।।
जी,आपका अत्यधिक आभार! इस बालक के लिए दुग्ध चाहिए था,ना जाने ये कबसे भूखा है,वीरभद्र बोला।।
ठीक है,आप सभी हमारे निवासस्थान चलिए,वहाँ सभी वस्तुओं का प्रबन्ध हो जाएगा,वनराज बोले।।
सभी जन वनराज के निवासस्थान पर पहुँचे,वहाँ के सभी जनों ने सबका भव्य स्वागत किया,नन्हे बालक को भी दुग्ध मिल गया,रात्रि को सभी ने विश्राम किया और प्रातःकाल वनराज ने सबको प्रसन्नतापूर्वक विदा किया,संग में कुछ ऐसी वस्तुएं भी दे दीं जो यात्रा में प्रयोग की जा सकें,उन्होंने बालक के दुग्ध हेतु एक बकरी भी दी,जो सरलता से रथ में आ सकती थीं,वनराज की पत्नी ने भी हीरादेवी को एक बहन की भाँति स्नेह किया तथा उपहारस्वरूप कुछ आभूषण भी भेंट किए और इस प्रकार वें सभी पुनः अनादिकल्पेश्वर के आश्रम हेतु चल पड़े।।
मार्ग में कोई बाधाएँ नहीं आईं एवं वें सभी सरलतापूर्वक अनादिकल्पेश्वर के आश्रम पहुँच गए,वे सभी अनादिकल्पेश्वर ऋषि से मिले एवं उन्होंने सारी बात ऋषि को बता दी।।
ऋषि अनादिकल्पेश्वर ने अपनी तान्त्रिक शक्तियों द्वारा ज्ञात किया कि महाराज सोनभद्र एवं महारानी विजयलक्ष्मी किसी समुद्र की तलहटी के जलमहल में बंदी हैं एवं उन्हें खोज पाना अत्यधिक कठिन है क्योंकि वो भी अपनी शक्तियों द्वारा उस स्थान को ज्ञात करने में असफल रहें।।
ये सुनकर भानसिंह गहरी सोच में पड़ गए किस प्रकार महाराज और महारानी को खोजा जाएं,ये राजकुमार उनकी धरोहर है एवं मैं किस प्रकार शत्रुओं से इसकी रक्षा करूँ,मुझे तो कोई भी मार्ग नहीं सूझ रहा,मैं किस प्रकार राजकुमार सहस्त्रबाहु को उनका राज्य और उनके माता पिता को वापस उनके समीप ला पाऊँगा,हे ईश्वर! ये किस दुविधा मेँ डाल दिया है मुझे,कृपया कोई मार्ग सुझाएं।।
ऋषि अनादिकल्पेश्वर ने भानसिंह से कहा....
वत्स! अब तुम सब इसी इसी आश्रम में रह सकते हो,क्योंकि इस स्थान के सिवाय तुम सबके लिए और कोई भी स्थान सुरक्षित नहीं रहेगा,यहाँ राजकुमार भी सुरक्षित रहेगें और उनका पालन पोषण भी इसी स्थान पर उचित प्रकार से हो सकता है यदि तुम्हें कोई आपत्ति ना हो।।
गुरूदेव! भला ! मुझे क्या आपत्ति हो सकती है? आपकी छत्रछाया में राजकुमार का पालन पोषण होगा,आप उसे तन्त्र मन्त्र की विद्या में निपुण बनाएंगे और धनुर्विद्या मैं उसे निपुण बनाऊँगा,भानसिंह बोले।।
तो यही उचित रहेगा,मैं राजकुमार की माँ एवं मेरे पति राजकुमार के पिता कहलाएंगे,हम महाराज और महारानी की धरोहर का हम भलीभाँति ध्यान रखेंगें,ये हम पति पत्नी प्रतिज्ञा लेते हैं...हीरादेवी बोली।।
इस प्रकार राजकुमार का पालन पोषण अनादिकल्पेश्वर ऋषि के आश्रम में होने लगा....

क्रमशः....
सरोज वर्मा...