सुकेतुबाली की कटार दासी की पीठ पर जा लगी,किन्तु दासी ने जब वहाँ से भागने का प्रयास किया तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वो अब आगें नहीं बढ़ पाएगी तब उसने राजमहल के गलियारे के वातायन से ही महल के प्रांगण में राजकुमार को अपनी गोद में लिए हुए महामंत्री भानसिंह को उच्च स्वर में पुकारा....
महामंत्री जी! राजकुमार के प्राणों की रक्षा कीजिए,उनके प्राण संकट में हैं,
तभी महामंत्री जी ने वातायन की ओर देखा कि सुकेतुबाली उस दासी को बलपूर्वक उसके केशों द्वारा पकड़ कर ले गया,अब महामंत्री जी को पूरी बात समझ में आ गई और उन्होंने बिना कुछ विचारें ही निकट में ही खड़ी अपनी बहन हीरादेवी को साथ लिवाया,राजकुमार को गोद मे उठाकर रथ की ओर भागे जब तक सुकेतुबाली कुछ कर पाता,वे राजमहल से भागने में सफल भी हो गए।।
और वो तब तक भागते रहें जब तक कि वो किसी सुरक्षित स्थान पर ना पहुँच गए और वो स्थान था ज्ञानेश्वर ऋषि का आश्रम,महामंत्री जी ने आश्रम से बहुत दूर रथ को रोका और हीरादेवी से बोले___
हीरा अब हमें से पैदल ही जाना होगा,मैं तुम्हें और राजकुमार को गुरूदेव के समक्ष छोड़कर पुनः राजमहल वापस जाऊँगा ताकि मैं महाराज और महारानी के विषय में जान सकूँ कि उस दुष्ट सुकेतुबाली ने उन दोनों के साथ क्या किया है? और मुझे तुम्हारे स्वामी घगअनंग को भी तो लाना है,तुम दोनों इस वन में गुरूदेव के निकट बिल्कुल सुरक्षित हो,
कुछ ही समय में तीनों ज्ञानेश्वर ऋषि के आश्रम में थे,तब महामंत्री जी ने ऋषि से कहा....
गुरूदेव! कृपया! इस बालक की रक्षा कीजिए,इसके प्राण संकट में हैं।।
हाँ! वत्स ! तुम चिन्तित ना हो,अब ये हमारी शरण में है,अब इसे कुछ नहीं होगा,ऋषि ज्ञानेश्वर बोले।।
बहुत बहुत आभार गुरूदेव!मैं अब चलता हूँ,आप इन दोनों की सुरक्षा कीजिए,मैं वापस राजमहल जाकर महाराज और महारानी की स्थिति देखकर आता हूँ,साथ में अपने बहनोई घगअनंग को लेकर लौटूँगा,महामंत्री भानसिंह बोले।।
तुम्हें वहाँ वेष बदलकर जाना होगा,नहीं तो शत्रु तुम्हें पहचान लेगा,ऋषि ज्ञानेश्वर बोले।।
किन्तु,मैं ऐसा कौन सा वेष धरूँ कि शत्रु मुझे पहचान ही ना पा पाए,महामंत्री भानसिंह ने ऋषि ज्ञानेश्वर से पूछा।।
तुम ऐसा करो पुत्र एक नर्तकी का वेष धरकर जाओं,संग में मैं अपने एक दो शिष्यों को भी भेज देता हूँ,जो उनमे से एक गायक होगा और दूसरा मृदंग बजाने वाला,ऋषि ज्ञानेश्वर बोले।।
यही उचित रहेगा गुरूदेव! तो शीघ्र ही मैं वेष बदलता हूँ और आप अपने दोनों शिष्यों को भी बुलवा लीजिए,महामंत्री भानसिंह बोले।।
हाँ!वत्स! तुम भीतर चलो ,मैं तुम्हारी ऋषि माता को बुलाकर तुम्हारे निकट उपस्थित होता हूँ,वो तुम्हारा श्रृंगार करने में तुम्हारी सहायता करेंगीं,ऋषि ज्ञानेश्वर बोले।।
बहुत बहुत आभार गुरुदेव!बस,किसी भी भाँति मुझे राजपरिवार की सुरक्षा करनी है,आप इसमें मेरी सहायता कर रहें हैं,आपका मुझ पर बहुत बहुत उपकार हैं,महामंत्री भानसिंह बोले।।
इसमें उपकार कैसा वत्स! सोनभद्र मेरा भी तो शिष्य रह चुका है एवं वो एक अत्यन्त दयालु और न्यायप्रिय राजा है,उसके राज्य के नागरिक उसका अत्यधिक आदर करते हैं सो ऐसे राजा की सहायता करने में भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है? अब शीघ्रता से वेष बदलो एवं राजा की सहायता हेतु शीघ्र राजमहल पहुँचों,वहाँ ना जाने उन दोनों की क्या स्थिति हो,ऋषि ज्ञानेश्वर बोले।।
जी गुरूदेव!चलिए ,इतना कहकर भानसिंह वेष बदलने हेतु गुरूदेव की कुटिया में पहुँचा और कुछ समय पश्चात भानसिंह ने अपने दो सहायकों के संग राजमहल की ओर प्रस्थान किया।।
कुछ ही समय उपरांत वो राजमहल पहुँच गया,वहाँ के राजदरबारियों ने उन्हें राजमहल के भीतर प्रवेश करने से रोक दिया....
तभी नर्तकी के वेष में भानसिंह बोला.....
अरे,मैं तो एक नर्तकी हूँ,भला! मुझे में राजमहल में प्रवेश करने से क्यों रोक रहे हो?...मेरा रूप देखों,मेरा यौवन देखों,मेरा श्रृंगार देखों,तुम्हारे हृदय में कुछ नहीं होता,मुझे देखकर।।
ए...अपने यौवन का मंतर किसी और पर चलाना,मैं अनुमति देने वाला नहीं,उनमें से एक दरबान बोला।।
भला! मैं किसी को क्या हानि पहुँचा सकती हूँ? मैं ने तो अपने नृत्य और सुन्दरता से पाषाण हृदयों को भी पिघला दिया है,नर्तकी बना भानसिंह बोला।।
सर्प्रथम अपना नाम तो बताओ,दूसरे दरबान ने पूछा।।
मैं भानुमति हूँ और ये मेरे सहायक हैं,भानुमति बोली।।
ठीक है,तुम यहीं ठहरो मैं भीतर से अनुमति लेकर आता हूँ,पहला दरबान बोला।।
भानसिंह को राजमहल के भीतर प्रवेश करने की अनुमति मिल गई,तीनों भीतर चले गए एवं भीतर जाकर भानसिंह ने एक दास से पूछा....
इस राजमहल के राजा कहाँ हैं? हमें उनको ही नृत्य दिखाना है,हमने सुना है राजा के यहाँ राजकुमार ने जन्म लिया है.....
तभी दास ने मद्धम स्वर में कहा....
आपको नहीं ज्ञात,कुछ समय पूर्व ही महाराज के चचेरे भाई ने महाराज एवं महारानी को जन्तर-मन्तर द्वारा तोता और मैना में परिवर्तित करवाकर उसी जादूगर के साथ ना जाने किस लोक में भेज दिया है एवं स्वयं राजा बनकर राज-सिंहासन पर बैठ गए हैं,वो तो भला हो महामंत्री जी का जो वो राजकुमार को यहाँ से सुरक्षित बचाकर ले गए,लेकिन नया राजा राजकुमार की खोज में हैं,उसे खोजकर उसकी हत्या कर देने का उसका विचार है,भगवान करें राजकुमार कभी भी उसे ना मिले।।
दास की बात सुनकर महामंत्री भानसिंह को सब समझ आ गया,परन्तु अब क्या किए जाए? हम तीन लोग तो सुकेतुबाली का सामना नहीं कर सकते और यदि उसने मुझे भी बंदी बना लिया तो अवश्य ही वो राजकुमार तक पहुँच ही जाएगा तो इस प्रकार मैं ना तो महाराज की रक्षा कर पाऊँगा और ना ही राजकुमार की,इससे अच्छा है कि मैं अभी इसी समय मैं अपने पग पीछे ले लूँ,सर्वप्रथम राजकुमार की सुरक्षा अत्यन्त आवश्यक है और यही सोचकर भानसिंह ने राजमहल से वापस आने का विचार बना लिया,वो सुकेतुबाली से मिले बिना ही राजमहल से वापस आ गया।
वो राज्य के भीतर पहुँचा और उसनें अपने बहनोई घगअनंग को संग लिया एवं वापस ज्ञानेश्वर ऋषि के आश्रम आ पहुँचा,भानसिंह ने सारी समस्या गुरूदेव को बताई।।
तभी गुरूदेव बोले___
यहाँ से उत्तर दिशा की ओर मेरे एक मित्र हैं,जो की तन्त्र-मन्त्र की विद्या में अत्यधिक निपुण हैं,साथ में वो अपने शिष्यों को इस सब की शिक्षा भी देते हैं,वहाँ उनका आश्रम भी है,तुम उनके आश्रम मे इस नन्हें राजकुमार को ले जाओ,वहाँ तुम्हें इसकी सुरक्षा की भी चिन्ता नहीं रहेगी एवं मेरे मित्र अपनी तन्त्र विद्या के माध्यम से कदाचित महाराज और महारानी के विषय में भी कुछ बता सकें क्योंकि अगर सुकेतुबाली ने उस जादूगर के माध्यम से महाराज और महारानी को तोता मैना बना दिया है तो अवश्य ही वो राजकुमार को भी कोई ना कोई क्षति पहुँचा सकता है,मेरे मित्र का नाम अनादिकल्पेश्वर है,ऋषि ज्ञानेश्वर बोले।।
बिल्कुल सत्य कथन है गुरूदेव! मैं अभी इसी समय राजकुमार को लेकर निकलता हूँ एवं सबको ये ही बताऊँगा कि मेरी बहन और बहनोई ही इसके माता पिता हैं,भानसिंह बोला।।
यही उत्तम रहेगा,वत्स!मैं संग में एक शिष्य को भेज दता हूँ,जो तुम्हें गुरूदेव तक ले जाएगा,गुरूदेव बोले।।
जी गुरूदेव! भानसिंह बोला।।
और गुरूदेव की आज्ञानुसार भानसिंह राजकुमार को लेकर अपने बहन बहनोई के संग उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा....
क्रमशः....
सरोज वर्मा....