Ayash--Part(35) in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | अय्याश--भाग(३५)

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अय्याश--भाग(३५)

शुभगामिनी ने संगिनी से बहुत ही खुले दिल से बातें की इसलिए संगिनी ने भी शुभगामिनी के समक्ष अपना दिल खोलकर रख दिया,संगिनी की बात सुनकर शुभगामिनी बोली.....
बहन! तुम चिन्ता मत करो,सत्यकाम बाबू बहुत ही अच्छे इन्सान हैं,उन्होंने अपनी जिन्दगी में बहुत कष्ट देखें हैं,जिसे वें अपना मानने लगें वो ही उनसे बिछड़ गया,इसलिए अब वें शायद रिश्तों के नाम से डरने लगें हैं,लेकिन तुम्हारे आने से शायद अब उनके उजड़े हुए जीवन में बहार आ जाएं,अब तुम आ गई हो तो मुझे उम्मीद है कि उनके सारे दुःख बाँट लोगी,उन्हें एक सच्चे दोस्त की बहुत आवश्यकता है जो कि तुम बन सकती हो,तुम उन्हें सहारा दोगी तो वें भी तुम्हारा सहारा बन जाऐगें......
जी!शुभगामिनी बहन!मुझे भी स्वयं से यही उम्मीद है,संगिनी बोली।।
तो बहन फिर निराश मत हो,ईश्वर सब ठीक कर देगें और एक ना एक दिन सत्यकाम बाबू के हृदय में तुम्हारा प्रेम फूल बनकर खिलेगा,उस दिन तुम अपने सारे दुख भूल जाओगी,शुभगामिनी बोली।।
जिस दिन उन्होंने मुझे अपना लिया था तो उसी दिन मैं अपने सारे दुख भूल गई थी,संगिनी बोली।।
तो बहन अब ऐसी निराशाजनक बातें मत किया करो,देखना सब अच्छा ही होगा,शुभगामिनी बोली।।
मुझे भी यही आशा है कि एक ना एक उनके हृदय में मैं अपने प्रेम की ज्योति जलाने में सफल हूँगी,संगिनी बोली।।
बस!बहन उम्मीद का साथ मत छोड़ना क्योंकि सारी दुनिया ही उम्मीद पर टिकी है,शुभगामिनी बोली।।
जी! शुभगामिनी बहन! मैं आज बहुत खुश हूँ जो मुझे आपसी बहन मिल गई,संगिनी बोली।।
मैं भी तो अकेली ही हूँ,मैं भी सोचूँगी कि मेरे मायके से मेरी बहन आई है,शुभगामिनी बोली।।
क्या हुआ?जीजी!ऐसी बातें क्यों करती हो? क्या आपके मायके में कोई नहीं है,संगिनी ने पूछा।।
सब हैं पगली! भरा पूरा परिवार है लेकिन इनसे प्रेमविवाह जो किया है इसलिए सबने मुझे त्याग दिया,इतना कहते कहते शुभगामिनी की आँखों से आँसू छलक पड़े....
अच्छा! इसलिए उन्होंने आपको त्याग दिया,संगिनी ने पूछा।।
हाँ! हमारे समाज में लड़की की पसंद मायने नहीं रखती,लड़की जब अपनी पसंद की चींजें छोड़ देती है तभी वो महान कहलाती है नहीं तो सदा के लिए कुलकलंकिनी हो जाती है,शुभगामिनी बोली।।
जीजी!लड़कियों का जीवन इतना कठिन क्यों होता है?संगिनी ने पूछा।।
कठिन होता नहीं उनका जीवन,ये समाज कठिन बना देता है,शुभगामिनी बोली।।
लेकिन क्यों? हमें पुरूषों के समान सभी अधिकार क्यों नहीं दिए जातें?संगिनी ने पूछा।।
क्योंकि पुरुषों को मालूम है कि हम महिलाओं उनसे ज्यादा सक्षम हैं और अगर हमें और भी अधिकार मिल गए तो उनकी पराजय निश्चित है इसलिए उन्हें अपनी सत्ता खोने का भय रहता है,शुभगामिनी बोली।।
तो क्या विजय भइया भी ऐसे हैं?संगिनी ने पूछा।।
नहीं! वें वैसे नहीं हैं इसलिए तो मैनें उन्हें चुना है,शुभगामिनी बोली।।
बाबूजी भी ऐसे नहीं हैं,संगिनी मुस्कुराते हुए बोली....
तुम उन्हें बाबूजी कहती हो.....हा....हा...हा...हा....शुभगामिनी हँसते हुए बोली।।
अच्छा नहीं है क्या? संगिनी ने झेपते हुए पूछा।।
नहीं! बहुत अच्छा है,तुम्हारे मुँह से प्यारा लगता है,शुभगामिनी बोली।।
सच्ची! संगिनी ने खुश होकर पूछा।।
हाँ!बाबा!सच्ची!शुभगामिनी बोली।।
अच्छा!तो लाइए फिर मुझे भी कुछ काम करने दीजिए,संगिनी बोली।।
अरे!तुम मेहमान हो,चुपचाप बैठो,शुभगामिनी बोली।।
ना!मैं भी आपका हाथ बटाऊँगीं,संगिनी अधिकारपूर्वक बोली।।
अच्छा!तो लो ये सब्जियांँ काट दो,मैं जब तक बेटी को सुला दूँ,शायद उसे नींद आ रही है,शुभगामिनी बोली।।
ठीक है,आप उसे सुला दो,बाकी का काम मैं कर देती हूँ,संगिनी बोली।।
और फिर उस दिन दोनों ने मिलकर खाना बनाया और अपना सुख दुख भी साँझा किया,उस दिन से दोनों अच्छी सहेलियाँ भी बन गए और दो चार दिन बाद सत्यकाम को विजय बाबू के मुहल्ले में ही अच्छा सा मकान मिल गया,मकान मिलने के बाद सत्यकाम ने अपनी गृहस्थी भी जुटानी शुरु कर दी.....
अब संगिनी ने अपनी गृहस्थी पूर्णतः सम्भाल ली थी,गृहस्थी का अधिकतर समान भी दोनों के पास जुट गया था,अगर नहीं जुट पाया था तो वो था उनके बीच पति-पत्नी का सम्बन्ध,ऐसा नहीं था कि कि दोनों एकदूसरे से प्रेम नहीं करते थे लेकिन एकदूसरे से बस व्यक्त नहीं कर पा रहे थे,अच्छी तरह से दोनों एकदूसरे का ख्याल भी रखते थें,इस बात को शुभगामिनी भी भलीभाँति जानती थी और वो संगिनी को बहुत समझाती थी कि तुम ही पहल कर लो,लेकिन शुभगामिनी की बात सुनकर संगिनी कहती...
शुभी जीजी! मैं उनका प्रेम शारीरिक नहीं आत्मिक प्रेम चाहती हूँ,मैं चाहती हूँ कि वें मुझे हृदय से स्वीकारे,जब तक आत्माओं का मिलन नहीं तो वहाँ प्रेम निर्रथक हो जाता है और मेरा प्रेम उनके प्रति निर्रथक नहीं,उसमें बहुत ही गहरा अर्थ छुपा है....
संगिनी की ऐसी बात सुनकर शुभगामिनी कहती...
बस...बस...रहने दो ये तुम्हारी ज्ञान की बातें,जब वें विश्वामित्र बने हैं तो तुम ही मेनका बनकर उनका ध्यान भंग कर दो,
ये मुझसे ना होगा जीजी! जब उनकी साधना पूरी हो जाएगी तो उनकी कृपादृष्टि मुझ पर जरूर होगी,संगिनी बोली।।
तो तुम इसी आस में बूढ़ी हो जाना,शुभगामिनी बोली....
ऐसा कभी ना होगा जीजी!संगिनी बोली।।
फिर दिन बीते,महीने बीते और एक साल बीत गया लेकिन सत्यकाम की अभी भी संगिनी पर कृपादृष्टि ना हुई थी,संगिनी ने भी हार नहीं मानी थी,वो भी यूँ ही अपने कर्तव्यों का पालन कर रही थी,सत्यकाम को डर था कि यदि उसने संगिनी को अपना लिया तो वो कहीं उससे दूर ना हो जाए......
फिर एक दिन सत्यकाम और संगिनी दशहरे का मेला देखने गए,ना जाने कहाँ से एक खूँखार बैल मेले में आ पहुँचा,मेले में भगदड़ मच गई,सत्यकाम ने संगिनी का हाथ पकड़ा और छुपने के लिए सुरक्षित जगह ढ़ूढ़ने लगा,तभी सत्यकाम ने देखा कि वो बैल एक छोटे बच्चे की ओर आ रहा है फिर क्या था सत्यकाम उस बच्चे को बचाने के लिए दौड़ पड़ा,उसने बच्चे को तो बैल की चपेट में आने से बचा लिया लेकिन स्वयं को ना बचा सका,बैल ने सत्यकाम को जोर की टक्कर मारी और सत्यकाम धरती पर जा गिरा,तब तक और बहुत से लोंग अपने अपने लट्ठ लेकर उस बैल की ओर दौड़ पड़े और उसे खदेड़ते हुए मेले से बाहर ले गए लेकिन इधर सत्यकाम को माथे में और दाँए हाथ में बहुत चोट आई थी,कुछ भले लोगों ने उसे डाँक्टर के पास भी पहुँचा दिया,डाँक्टर ने सत्यकाम का इलाज किया और उसे आराम करने की हिदायत दी क्योंकि उसके दाँएं हाथ में बहुत चोट आई थी,बस गनीमत ये रही कि कोई हड्डी नहीं टूटी.....
उन भले लोगों ने उन पति-पत्नी को घर भी पहुँचा दिया,उस दिन सारी रात दर्द के मारे सत्या सो ना सका और संगिनी भी उसके पास बैठकर उसकी सेवा करती रही,पंखा झलते झलते अचानक संगिनी की आँख लग गई,तब सत्या ने बड़े प्यार से संगिनी के सिर पर हाथ फेरा और मन में बोला......
तुम बहुत अच्छी हो संगिनी! और तुम्हें खोने से डर लगता है।।
चोट लगने के कारण सत्या ने विद्यालय से कुछ दिनों की छुट्टी ले ली थी,अब विजय बाबू ही उनके बाहर के सारे काम कर रहे थे जैसे कि राशन लाना,दवाइयांँ और डाँक्टर को बुलाना,वें सत्यकाम के मुहल्ले में ही रहते थे इसलिए जब भी समय मिलता सत्यकाम का हाल चाल पूछने आ जाते और कभी कभी उनके संग शुभगामिनी भी आ जाती.....
अब संगिनी रात दिन सत्यकाम की सेवा में लगी रहती,सत्या के दाँएं हाथ में चोट थी तो इसलिए वो ना तो खुद से भोजन कर सकता था और ना ही अन्य कोई काम कर सकता था,इसलिए अब सत्यकाम पूरी तरह से संगिनी पर ही निर्भर था,सत्यकाम अब धीरे धीरे अच्छा हो रहा था और अब दोनों के बीच नजदीकियांँ भी बढ़ने लगीं थीं,लेकिन रिश्ते ने दोस्ती के आगें का रूप नहीं लिया था,संगिनी जब सत्या को स्नान करवाती या फिर उसका कुर्ता बदलती तो अपनी आँखें मींच लेती,ये सब सत्या अनुभव कर रहा था लेकिन कहता कुछ नहीं,सत्या अभी भी संगिनी के लिए परपुरुष ही था,उनके मध्य अब भी अनछुई गहरी दीवार थी,जिसे संगिनी लज्जावश नहीं तोड़ रही थी और सत्या संकोचवश नहीं तोड़ पा रहा था,ऐसे ही करवाचौथ भी आ पहुँचा,उस दिन संगिनी ने सत्या के लिए निर्जल व्रत रखा,सुबह से शाम होने को थी और संगिनी पूजा की तैयारी में लगी थी,लेकिन इस बीच उसने सत्या का भी ख्याल रखा,शाम को उसने खाना तैयार करके रख दिया और फिर सँजने सँवरने में लग गई,सँज-सँवर वो जैसे ही कमरें से बाहर निकली तो सत्या की नजर उस पर ठहर गई,संगिनी ने महसूस भी किया लेकिन सत्या जब कुछ ना बोला तो वो मन मसोसकर रह गई....
फिर वो सत्या से बोली.....
मैं शुभगामिनी जीजी के घर पूजा करने जा रही हूँ,आप भी संग चलते तो मुझे अच्छा लगता,मेरा पहला करवाचौथ है,आपका मुँख देखकर ही व्रत तोड़ूगी.....
अच्छा...अच्छा....पहले क्यों नहीं कहा?मैं पहले ही तैयार हो जाता,सत्या बोला....
तो फिर तैयार हो जाइएं,संगिनी बोली।।
बस!दो मिनट ठहरो,कुरता बदल लूँ जरा! सत्या बोला।।
खुद से बदल लेगें या मेरी मदद चाहिए,संगिनी ने पूछा...
नहीं! मैं कर लूँगा,सत्या बोला।।
फिर सत्या और संगिनी विजय बाबू के घर चल पड़े,कुछ ही देर में दोनों वहाँ पहुँचें तो शुभगामिनी ने ज्यों ही संगिनी को पूरे श्रृंगार और लाल साड़ी में देखा तो बोली....
ओ...माँ! नज़र ना लगें,चलो काला टीका लगा दूँ।।
दोनों भीतर कमरें में पहुँची तो शुभगामिनी ने संगिनी से मज़ाक करते हुए कहा.....
संगिनी! आज रात मेनका बनकर विश्वामित्र की साधना भंग कर ही दो।।
जीजी! ये मेरे वश में नहीं है इसलिए तो आज तक उनके दिल में जगह नहीं पा पाई,संगिनी बोली।।
आज तो उनका ध्यान भंग जरूर होगा,देख लेना,शुभगामिनी बोली।।
मुझे ऐसे तैयार देखकर कुछ नहीं बोले,मैं तो सफल ना हो सकी उनकी तपस्या भंग करने में, ये सब छोड़िए, चलिए पूजा की तैयारी करते हैं,संगिनी बोली।।
अच्छा!चलो,शुभगामिनी बोली।।
चाँद निकलते निकलते काफी देर हो गई थी,चाँद निकलने के बाद दोनों ने अपने अपने पतियों के साथ छत पर जाकर चाँद की पूजा की फिर संगिनी को सत्या ने जल पिलाकर उसका व्रत तोड़ा,पूजा के बाद दोनों घर आ गए और फिर भोजन किया,भोजन करने के बाद संगिनी बोली....
मैं साड़ी बदलकर आती हूँ,साड़ी बहुत भारी है.....
संगिनी बहुत ही सुन्दर लग रही थी,सत्या चाहता था कि वो ऐसे ही सँजी सँवरी उसके सामने बैठी रहें,आज उसका हृदय विह्वल हुआ जाता था,उसके मन पर आज उसका काबू ना रह गया था,संगिनी की मोहनी सूरत ने आज उसका मन मोह लिया था और आज वो अपने मन के भावों को संगिनी से कह देना चाहता था इसलिए भावों में बहकर सत्यकाम संगिनी से बोला......
इस एक साल में तुम सच में मेरी संगिनी बन गई हो.....
तो इसका मैं क्या मतलब समझूँ? संगिनी ने पूछा।।
मतलब तो एकदम आइने की तरह साफ है,सत्यकाम बोला।।
जी!आप कहना क्या चाहते हैं?संगिनी बोली।।
यही कि मैं अब अपना प्रेम नहीं छुपा सकता,मैं तुमसे प्रेम करने लगा हूँ संगिनी,क्या तुम मेरा प्रेम स्वीकार करोगी? सत्यकाम ने संगिनी से पूछा।।
इस क्षण का इन्तजार तो मैं जाने कब से कर रही थी?संगिनी बोली।।
सच!तो फिर मेरे नजदीक आकर बैठो,मैं आज तुम्हें करीब से देखना चाहता हूँ,सत्यकाम बोला।।
संगिनी झट से सत्यकाम के सीने से लग गई और उस करवाचौथ की रात संगिनी का सपना सच हो गया,उसके प्रियतम ने आज उसे हृदय से स्वीकार करके अपने जीवन में स्थान जो दे दिया था.....

क्रमशः......
सरोज वर्मा.......