Ayash-Part(28) in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | अय्याश--भाग(२८)

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अय्याश--भाग(२८)

देवनन्दिनी के कमरें में आने के बाद माधव कमरें से चला गया,उस दिन के बाद जब भी जमींदार बाहर गए होते तो मुझे माधव से मिलने का मौका मिल जाता,मैं वहाँ से आजाद होना चाहती थी,मैनें कई बार वहाँ से भागने की कोशिश की लेकिन कामयाब ना हो सकीं,जमींदार अब मुझ पर और भी कड़ी निगरानी रखता,उसे कहीं से भनक हो गई थी कि माधव मुझसे मिलने आता है,इसलिए उसने कहा कि....
अगर मुझे पता हो गया कि तू माधव से मिली है तो उसी रात मैं माधव की बोटियाँ बोटियाँ करके गाँव की नदी में बहवा दूँगा।।
मैं इस बात से बहुत डर गई क्योंकि मैं माधव को बहुत चाहने लगी थी इसलिए उसकी सलामती की खातिर मैनें उससे मिलना जुलना छोड़ दिया,बस कभी कभार झरोखें से उसकी झलक देखकर तसल्ली कर लेती,वो जब भी मुझे देखता था तो उसकी आँखों में मेरे लिए प्यार झलकता था,माधव मेरा पति था लेकिन आज तक हमारे बीच पति पत्नी वाले सम्बन्ध नहीं बनें थें,हम दोनों का प्रेम गंगाजल की भाँति पवित्र था जो केवल आत्मिक था शारीरिक नहीं।।
जमींदार मुझे अपनी हवस का शिकार बनाता रहता और मैं बनती रहती,मेरा दम घुटने लगा था उस हवेली में,केवल माधव और देवनन्दिनी ही मेरे मन का हाल समझ सकते थें,ऐसे ही दिन गुजर रहे थे और एक दिन मुझे पता चला कि मैं अष्टबाहु के बच्चे की माँ बनने वाली हूँ,जब मुझे ये बात पता चली तो मेरा जी धक् से रह गया कि इस पापी के बीज को मुझे अपने गर्भ में पालना पड़ेगा,लेकिन फिर ये सोचकर तसल्ली कर ली कि चलों बच्चे को जन्म देते ही मुझे इस हवेली से छुटकारा मिल जाएगा,इस हवेली का वारिस मैं इन लोंगो को सौंपकर यहाँ से चली जाऊँगीं और फिर माधव के साथ अपनी नयी दुनिया बसाऊँगीं और मैं जैसा सोच रही थी उसके लिए मैं हमेशा ईश्वर से दुआएँ माँगतीं रहती और उधर माधव भी देवनन्दिनी से समय समय पर मेरी खबर लेता रहता,उसे कोई फर्क नहीं पड़ा था कि मैं जमींदार के बच्चे की माँ बनने वाली हूँ और जमींदार ने मेरे बदन को छूकर मुझे अपवित्र कर दिया था,वो कहता था कि .....
मैं तुझसे सच्चा प्रेम करता हूँ,मुझे तेरी सूरत और तन से नहीं तेरी सीरत से प्यार है ,
और मैं उसकी बातें सुनकर रो पड़ती ,तब वो कहता.....
रोती है पगली ,मैं हूँ ना थ्हाणें संग और एक दिन हम जरूर साथ में अपनी गृहस्थी बसाऐगें....
मैं उसकी ऐसी बातें सुनकर गदगद हो जाती......
इसी बीच मुझे एक ऐसी खबर पता चली जिसने मेरी रातों कि नींद उड़ा दी और मेरे पास सिवाय रोने के और कोई रास्ता नहीं था,हुआ यूँ कि जब मैं अपने गाँव ना पहुँची तो मेरी आजी को मेरी चिन्ता होने लगी और वो रोजाना हवेली जाकर राजलक्ष्मी से मेरे बारें में पूछने लगी,कुछ दिनों तक तो राजलक्ष्मी बात को यूँ ही टालती रही कि रामप्यारी जल्द ही लौट आएगी और जब मैं नहीं लौटी तो आजी ने गाँव भर में हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि जाने मेरी पोती को जमींदारन कहाँ ले गई और वहीं छोड़ आई है इस बात से राजलक्ष्मी की बदनामी होने लगी और उसे गुस्सा आ गया,क्योंकि अब उसे अपने परिवार से भी सच्चाई को रुबरु करवाना पड़ा,इस बात से राजलक्ष्मी के पति बिगड़ गए और बोलें....
इस मामले को जल्दी से रफादफा करो,वो बुढ़िया गाँव भर में हम लोगों की बदनामी करती फिरती है....
इस बात से राजलक्ष्मी की रातों की नींद उड़ गई और फिर उसने एक रात अपने लठैंतों से आजी को मरवाकर एक सूखें कुएँ में फिकवा दिया,जब वहाँ से गुजरने वालों को आजी की लाश की बदबू आई तो उन्होंने उसे वहाँ से निकलवाकर उसका अन्तिम संस्कार कर दिया,जब मुझे ये बात अष्टबाहु ने बताईं तो....
उस दिन मैनें उसकी गर्दन दबोचकर कहा कि.....
मेरे गर्भ में एक नन्ही जान पल रही है नहीं तो जो तेरी बहन ने किया है ना तो उसका बदला मैं तेरा खून पीकर लेती,खबरदार! जो आज के बाद अपनी मनहूस शकल मुझे दिखाई,तेरा बच्चा पैदा होते ही मैं यहाँ से चली जाऊँगी,मैं थूकती हूँ तेरे जैसे लोगों पर और इस हवेली पर.....
मेरी बात सुनकर अष्टबाहु बोला.......
ये इतना अकड़ मत! पहले मैं भी सोच रहा था कि बच्चा पैदा होने के बाद मैं तुझे इस हवेली से रिहाई दे दूँगा,लेकिन अब मेरी जान मेरा दिल आ गया है तुझ पर,मैं भी देखता हूँ कि तू यहाँ से कैसें भाग पाती है?
तू मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता,देख लेना मैं यहाँ से जाकर रहूँगी,मैनें कहा....
चल...चल.....जा...जा! बीते भर की छोकरी और जुबान गज भर की,अब तो तू जिन्दगी भर यही रहेगीं,इसी हवेली में,अष्टबाहु बोला।।
मुझे अष्टबाहु की बात सुनकर गुस्सा आ गया और मैनें अपने पास में ही रखा फूलदान उठाकर अष्टबाहु के माथे पर दे मारा और उसके माथे से खून बहने लगा,खून बहता देखकर वो बिल्कुल थर्रा गया और कमरें से जाते हुए बोला....
देख लूँगा तुझे,मैं भी देखता हूँ कि तू अपनी मनमानी कैसे कर पाती है?।।
हाँ....हाँ....देख लेना,आया बड़ा जमींदार!मैं बोली।।
दिन ऐसे ही बीतते जा रहे थे लेकिन अब अष्टबाहु मेरे कमरें में ना आता,वो शायद या तो कोई योजना बना रहा था या तो फिर मुझसे डरने लगा था,अब मेरे भीतर अष्टबाहु का बीज आकार लेने लगा था,मुझे उसकी गतिविधियांँ अपने भीतर महसूस भी होने लगी थी और दिनबदिन मेरे पेट का आकार बढ़ रहा था,ऐसे ही आठ महीने पूरे हो चुके थे और नौवाँ लग चुका था,नौवाँ महीना पूरा होते होते,मुझे एक रात प्रसवपीड़ा उठी और उस रात मैनें एक बच्ची को जन्म दिया,बच्ची को देखकर सबका मुँह बन गया और आँखों ही आँखों में उन सबके बीच इशारे हो गए,उन इशारों को देवनन्दिनी भलीभाँति समझ गई और सबसे चीख चीखकर कहने लगी....
मत मारो इसे,नन्ही सी जान है इसने किसी का क्या बिगाड़ा है? मैं पाल लूँगी इसे,इसकी जान बख्श दो,देवनन्दिनी की बात सुनकर मैनें भी शोर मचाना शुरु कर दिया.......
लेकिन तब दाईमाँ ने मुझसे कहा.....
ऐसा कुछ नहीं होगा रामप्यारी? तुम देवनन्दिनी की बातों में मत आओ.....
और मुझे थोड़ी देर बाद दूध में अफीम घोलकर पिला दी गई जिससे मैं सोती रह गई और उधर मेरी बेटी का काम तमाम कर दिया गया,जब मुझे होश आया तो देवनन्दिनी मेरे पास रोते हुए आई और बोली.....
नहीं छोड़ा!बहन...नहीं छोड़ा.....उस नन्ही सी जान को ये लोंग मेरे हाथों से छीनकर ले गए और ना जाने कहाँ उसे ले जाकर उसकी कहानी खत्म कर दी,मैं चीखती रही और उनके पीछे भी भागी तो देखों मेरा क्या हाल किया? ये देखो मेरे तन पर चोटों के निशान.....
ये सुनकर मेरी चीख निकल गई,मैं कई दिनों तक यूँ ही बिस्तर पर पड़ी पड़ी रोती रही,मेरा स्वास्थ्य बिगड़ने लगा तो मुझे एक दिन देवनन्दिनी ने माधव से मिलवाते हुए कहा......
माधव! समझा ले अपनी लुगाई को,मेरी तो सुनती नहीं,ना खाती है ना पीती है बस बिस्तर पर पड़े पड़़े रोया करती है.....
देवनन्दिनी की बात सुनकर तब माधव बोला......
रामप्यारी! क्या कहबें हैं नन्दिनी जीजी? तू अपनी सेहद का ख्याल नहीं रखेगी कि तो कैसे चलेगा?
मुझे नहीं जीना,मेरे भीतर जीने की इच्छा खतम हो गई है माधव! मैं बोलीं।।
तू जीती ना रहबेगी तो फिर मैं जीकर क्या करूँगा?तुझे देखकर तो म्हाणें में जीने की हिम्मत जागें हैं,जब तू ही हिम्मत हारेगी कि तो मैं हिम्मत कहाँ से लाऊँगों?तू म्हारी नज़रन के सामने रहें है तो मुझ में जीने की आस जाग जावें हैं,तुझे अगर कुछ हो गयों तों मैं तो जीते जी मण जावेंगों।।
उस दिन माधव की प्यार भरी बातें सुनकर मेरी आँखें भर आईं और फिर मैनें अपना ख्याल रखना शुरु कर दिया,जब कोई सच्चा चाहने वाला मिल जावें हैं ना तो आग का दरिया भी पार किया जा सकता है,सीता जी को भी तो राम के प्यार ने आत्मबल दिया था,तभी तो वें लंका में अपना समय काट पाईं थीं,तो मैनें सोचा मैं भी अपने माधव के प्यार के सहारे ये दिन काट लूँगीं......
अब मेरा स्वास्थ्य ठीक हो गया तो जमींदार अष्टबाहु ने फिर मेरे नजदीक आने का मन बना लिया लेकिन अब मैं उससे नहीं डरती थी और उसे हाथ भी नहीं लगाने देती थी,वो ऐसे ही गुस्सा होकर चला जाता,क्योंकि मैं उससे हमेशा यही सवाल करती थी कि....
क्यों मारा मेरी बेटी को? और तुम्हारे कुकृत्यों के कारण फिर से बेटी हुई तो तुम उसे फिर से मरवा दोगें इसलिए खबरदार! जो मेरे करीब आएं और अगर मेरे करीब आएं तो मैं इस झरोखें से कूद जाऊँगीं.....
मेरी धमकी सुनकर अष्टबाहु उल्टे पैर लौट जाता....
वो कहते हैं ना! कि सब अच्छा और भोला इन्सान बुरा बन जाता है तो फिर वो अपनी सारी हदें भूल जाता है,इसलिए भोले इन्सान को कभी भी बुरा बनने पर मजबूर नहीं करना चाहिए।।
अब जब अष्टबाहु को मैं हाथ नहीं लगाने देती तो वो अपनी रातें बाहर गुजारने लगा और मौका देखकर माधव मेरे पास आ जाता ,देवनन्दिनी इसमें पूरा पूरा साथ देती,ऐसे ही दिन गुजर रहे थे मैं और माधव एकदूसरे के साथ बहुत खुश थे,फिर मुझे पता चला कि माधव और मेरे प्रेम की निशानी मेरे गर्भ में पल रही है,अब ये बात छुप ना सकीं,अष्टबाहु तक भी पहुँच गई.....
फिर एक दिन अष्टबाहु मेरे पास आकर बोला.....
ये मैं क्या सुन रहा हूँ?
सही सुना तुमने,मैनें कहा।।
तेरी इतनी हिम्मत!तू मेरी पीठ पीछे दूसरों के संग रंगरलियाँ मनाती रही,अष्टबाहु बोला।।
वो कोई और नहीं, मेरा पति है,मैं उसकी ब्याहता हूँ,मैं बोली।।
उस दो कौड़ी के छोकरें की इतनी हिम्मत,मैं अभी उसकी खाल खिंचवाता हूँ,अष्टबाहु बोला।।
और तुम जैसा नपुंसक कर ही क्या सकता है? नन्ही नन्ही बच्चियों की हत्या और अपने से कमजोर लोगों पर जुल्म,तुम ने अगर माधव का बाल भी बाँका किया तो फिर मैं सबको चीख चीखकर बता दूँगीं कि ये बच्चा माधव का है,इससे मेरी नहीं तुम्हारी बदनामी होगी कि तुम ही बाप बनने के काबिल नहीं ,तुम तो मुझे बेटा दे ना सकें शायद इस बार बेटा ही पैदा हो जाएं और तुम्हें इस हवेली का वारिस मिल जाएं,मैं बोली।।
तेरी अकड़ तो मैं एक ना एक दिन निकालकर ही रहूँगा,दो कौड़ी की औरत मुझे धमकी देती है,अष्टबाहु बोला।।
मेरा मोल तो दो कौड़ी का है लेकिन तुम्हारी इज्जत करोड़ो की है,देखना कहीं खाक़ में ना मिल जाएं,अगर मैनें बाहर कुछ बोल दिया तो,मैं बोली।।
मेरी बात सुनकर फिर अष्टबाहु बाहर चला गया और कुछ ना बोला.....
दिन बीतते और फिर महीने बीते और इस बार मैनें एक बेटे को जन्म दिया,अष्टबाहु भी खुश था कि उसे इस हवेली का वारिस मिल गया,मेरे बेटे के पैदा होने पर जश्न मनाया गया,सारें गाँव को भोज पर बुलाया गया,माधव भी अपनी सन्तान देखकर बहुत खुश था,राजलक्ष्मी भी आई थी लेकिन मैनें उस धोखेबाज से बात नहीं की,सबसे ज्यादा खुश देवनन्दिनी थी ,बेटे का नाम वीरप्रताप रखा गया,बहुत सुन्दर था वो और मैं उसकी बलैइयाँ लेते ना थकती थीं।।
मुझे वीरप्रताप के साथ रहते दो महीने ही बीते थे कि एक दिन अष्टबाहु ने कह दिया कि तुम्हारा काम पूरा हो चुका है अब तुम इस हवेली से जा सकती हो,लेकिन अब मैं उस हवेली से जाने को तैयार नही थी मैं अपने बेटे को छोड़कर कैसे जा सकती थी भला ?क्योंकि मुझे मालूम था कि ये अष्टबाहु का नहीं माधव का खून है,मैं बड़ी दुविधा में थीं,बेटे का मोह मुझसे ना छूटता था लेकिन फिर एक रात अष्टबाहु ने मेरे बच्चे को मेरी गोद से छीन लिया और मुझे हवेली से बाहर निकाल दिया......
देवनन्दिनी ने एक नौकरानी के जरिऐ ये बात माधव तक पहुँचा दी और वो भी मेरे साथ आ गया,हम दोनों रात को ही रोते बिलखते गाँव के बाहर चल पड़े लेकिन इसमें अष्टबाहु की चाल थी वो मुझसे और माधव से बदला लेना चाहता था,इसलिए उसने हमारे पीछे लठैत लगवा दिए थे हम दोनों को मारने के लिए,हम दोनों उन सबसे बचकर भागते रहें लेकिन बच ना पाएं,हम दो दिनों तक अपनी जान बचाते रहें लेकिन फिर तीसरे दिन उन्होंने हमें पकड़ लिया, माधव ने उन सबका बहुत मुकाबला किया लेकिन उसके सिर में चोंट लग चुकी थी और मुझे भी चोट लग चुकी थी और दोनों ही रात भर यूँ ही बेहोश पड़े रहें तब एक गड़रिये ने मेरी जान बचाई ।।
मुझे कई दिनों बाद होश आया और होश में आतें ही मैनें बूढ़े गड़रिये से माधव के बारें में पूछा......
तब वें बोलें.......
माँफ करना बेटी! मैं उसे नहीं बचा पाया,उसके सिर में बहुत गहरी चोट लगीं थी काफी खून बह गया था।।
ये सुनकर मेरी चीख निकल गई और मेरी हालत भी अच्छी नहीं थी इसलिए मैं गड़रिया बाबा और उनकी पत्नी के साथ ही उनके घर में रहने लगी और ठीक होने पर ये मिट्टी के बरतन बनाने का काम करने लगी, कुछ सालों बाद वें दोनों भी मुझे छोड़कर भगवान के पास चले गए,तब से अब तक मैं यहीं हूँ,तो ये थी मेरी रामकहानी,रामप्यारी बोली।।।
माईं! तुम फिर दोबारा अपने बेटे से मिलने नहीं गई,सत्या ने पूछा।।
नहीं! मैं तो उसे यहीं से आशीर्वाद देती रहती हूँ,रामप्यारी बोली।।।
गाँव का नाम क्या बताया? सत्यकाम ने पूछा।।
राधानगर नाम है गाँव का,रामप्यारी बोली।।
तो फिर तुम भी तैयार हो जाओ,मेरे साथ चलने के लिए क्योकिं मेरे मामा जी का गाँव भी पास ही है,मैं तुम्हें तुम्हारे बेटे से मिलवा दूँगा और मैं अपनी माँ से मिल लूँगा,दोनों को उन घरों में आसरा मिल जाएगा तो ठीक नहीं तो अपना तो ये घर हैं ही,सत्यकाम बोला।।
सच! मैं अपने वीर से मिल पाऊँगी,रामप्यारी बोली।।
जरूर!माईं! सामान बाँधो और चलने की तैयारी करो,सत्या बोला...

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.......