Ayash-Part(26) in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | अय्याश--भाग(२६)

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अय्याश--भाग(२६)

आजी को ये सुनकर भरोसा ही नहीं हुआ कि जमींदारन मुझे अपनी भाभी बनाना चाहती है इसलिए आजी ने उनसे पूछा....
मालकिन! ये कैसे हो सकता है,हमरी पोती आपके खानदान के जोड़ की नहीं है,
तो क्या हुआ ?खानदान ही सबकुछ नहीं होता,रूपरंग भी तो कुछ होता है,तुम्हारी पोती की खूबसूरती ने मुझे मोह लिया है,अब तो यही मेरी भाभी बनेगी,जमींदारन राजलक्ष्मी बोली...
लेकिन हमरी औकात नहीं है आपकी बराबरी करने की,आजी बोली।।
ऐसे ना कहो आजी! इस दुनिया में भगवान ने सभी को एक जैसा ही बनाकर भेजा है,वो तो इन्सानों ने भेदभाव बना दिए है,नहीं तो तुम्हारा खून भी लाल है और मेरा भी खून लाल है...राजलक्ष्मी बोली।।
लेकिन हम कुछ भी दान-दहेज ना दे पाएंगे,आजी बोली।।
मैनें तुमसे माँगा....नहीं ना! फिर तुम काहें चिन्ता करती हो,मुझे अपनी अपनी पोती सौंप दो,मैं अगले हफ्ते मायके जाऊँगी तो इसे लेती जाऊँगी अपने साथ और वहीं इसका ब्याह रचा दूँगी,राजलक्ष्मी बोली।।
तो का ब्याह हमरे गाँव से ना होगा,आजी ने पूछा।।
तुम सबकी खातिरदारी नहीं सम्भाल पाओगी आजी! ब्याह के बाद मैं इसे लेकर आऊँगी ना तुम्हारे पास,राजलक्ष्मी बोली।।
लेकिन ई कैसा ब्याह हुआ भला? आजी बोली।।
तो तुम भी साथ चलो मेरे मायके,राजलक्ष्मी बोली।।
नहीं! हम ना जा पाऐगें,आजी बोली।।
तो फिर चिन्ता मत करो,मैं वहाँ सब सम्भाल लूँगी ,तुम्हारी रामप्यारी को वहाँ कोई भी कष्ट ना होगा,राजलक्ष्मी बोली।।
लेकिन आपके माँ बाप और भाई इस ब्याह के लिए राजी हो जाऐगें,आजी ने पूछा।।
उन्होंने ये जिम्मेदारी मेरे ऊपर ही सौंपी थी,राजलक्ष्मी बोली।।
अच्छा! तो अब हम का बोले,आजी बोली।।
तो फिर मैं ये रिश्ता पक्का समझूँ,राजलक्ष्मी ने पूछा।।
हमें कुछ सूझता नहीं है मालकिन!आजी बोली।।
ये रहें शगुन के कंगन और ये कहकर राजलक्ष्मी ने मेरी कलाइयों में रत्नजड़ित सोने के कंगन डाल दिए फिर मुझसे बोली....
बनोगी ना ! मेरी भाभी!
मैं कुछ ना बोल सकीं,भला कहती भी क्या? जब आजी मना ना कर पाई इस ब्याह के लिए तो फिर मेरी क्या बिसात थी,उस रात मारे खुशी के मुझे नींद नहीं आई,सोने के गहने,गोटा वाली लाल चूनर के बारें में सोच सोचकर ही मेरा मन हर्षाने लगा,
फिर एक हफ्तें बाद राजलक्ष्मी मुझे लेने आई,आजी ने दुखी मन से मुझे उनके साथ भेजा,राजलक्ष्मी के मायके के रास्ते में पड़ने वाली एक बावड़ी(धर्मशाला सहित छोटा सा तालाब )में हम दोनों चार नौकरानियों और आठ नौकरों सहित रात को ठहरें,फिर सुबह नौकरानियों ने सुबह का नाश्ता बना दिया और फिर राजलक्ष्मी ने अपनी नौकरानियों को आदेश दिया कि इसे अच्छे से नहला धुलाकर ये रेशमी लाल साड़ी और ये गहने पहना कर तैयार कर दो,ये बिल्कुल रानी लगनी चाहिए...रानी....
नौकरानियों ने राजलक्ष्मी का आदेश मानते हुए मुझे उसके कहे अनुसार नहलाधुलाकर रेशमी साड़ी और गहने पहना दिए,मुझे सँजा धँजा देखते ही राजलक्ष्मी की आँखेँ चौंधिया गई,वो बोली.....
अब तुम लग रही हो मेरे घर की होने वाली बहु! चलों नाश्ता कर लो फिर निकलते हैं,लम्बा सफर है,शाम तक पालकी मेरे मायके वाली हवेली में पहुँचेगी....
मुझे अब राजलक्ष्मी की बातों पर कुछ कुछ विश्वास हो चला था और फिर दिनभर के सफर के बाद हम रात होने से पहले हवेली पहुँच ही गए,राजलक्ष्मी ने अपने परिजनों को हवेली के बाहर पुकारा और फिर उनसे बोली....
देखो! मैं इस घर के वारिस को पैदा करने वाली को ले आईं हूँ,इसे ध्यान से इसके कमरें में पहुँचा दो,खातिरदारी करो इसकी ,इसे ये एहसास ना होने पाएं कि ये इस घर की नहीं है और मैं कल सुबह ही अपने ससुराल लौट जाऊँगीं,ससुराल वालों को इस बारें में कुछ भी पता नहीं हैं,मैं तो इन सब नौकरों के साथ कुलदेवी के दर्शन करने का बहाना लेकर निकली थी.....
फिर राजलक्ष्मी मेरी पालकी के पास आकर बोली.....
घूँघट कर लो और पालकी से उतरकर अपने कमरें में जाकर आराम करों।।
मैं राजलक्ष्मी के अदेशानुसार पालकी से उतर गई तब राजलक्ष्मी ने किसी को पुकारा.....
देवनन्दिनी! रामप्यारी को उसके कमरें में ले जाओ।।
देवनन्दिनी आई और मुझे हौले हौले से लेकर मेरे कमरें की ओर बढ़ चली,फिर देवनन्दिनी कमरें के भीतर पहुँचकर मुझसे बोलीं.....
तुम्हें पता है ना कि तुम्हें यहाँ क्यों लाया गया है?
मैनें कहा,हाँ! पता है।।
और तुम यहाँ आ भी गई,देवनन्दिनी बोली।।
मालकिन ने कहा कि वो मुझे अपनी भाभी बनाऐगीं इसलिए मैं यहाँ आ गई उनके साथ,मैनें कहा।।
बड़े लोंग और उनकी बड़ी बड़ी बातें,ये हवेली नहीं है बहन!श्मशानघाट है ,जहाँ ना जाने कितनों के अरमानों को जलाकर खाक़ कर दिया गया है,देवनन्दिनी बोली।।
ये कैसी बातें करती हो तुम?मैनें पूछा।।
कुछ ही दिनों में तुम्हें सब समझ आ जाएगा,देवनन्दिनी बोली।।
क्या समझ में आ जाएगा? मैनें पूछा।।
कुछ नहीं! जरा अपना चेहरा तो दिखाओं,देवनन्दिनी बोली।।
फिर मैनें देवनन्दिनी के कहने पर अपना घूँघट हटाया तो देवनन्दिनी मुझे देखकर बोली......
सच में! चाँद का टुकड़ा हो और कुछ ही वक्त में तुम पर ग्रहण लग जाएगा,
मैं कुछ समझी नहीं! मैनें कहा।।
तुम ना ही समझों इन बातों को तो ही अच्छा! गुसलखाने में पानी भरकर रख दिया है जाकर मुँह हाथ धो लो,मैं जब तक तुम्हारे लिए खाना लेकर आती हूँ,देवनन्दिनी इतना कहकर खाना लेने चली गई और मैं गुसलखाने से हाथ मुँह धोकर बाहर आ गई फिर मैं घूम घूमकर अपने कमरें को देखने लगी उस कमरें की साज सज्जा देखकर मेरी आँखें खुली की खुली रह गई,मैं कमरें के झरोखें के पास खड़े होकर बाहर झाँकने लगी,अच्छा लग रहा था ऊँची अटारी पर खड़ा होकर,वो सब तो मेरे लिए एक सपने जैसा था और मैं उस वक्त खुली आँखों से सपना देख रही थीं.....
तब तक देवनन्दिनी खाना लेकर आ चुकी थी,वो मुझसे उम्र में काफी बड़ी थी इसलिए मैनें उससे पूछा....
क्या मैं तुम्हें जीजी कहकर पुकारूँ?
वो बोली,मेरा तुम्हारा रिश्ता तो यही बनता है,
क्या मतलब? मैने पूछा।।
कुछ नहीं ! पहले ये खाना खालो।।
और मैं खाना खाने लगी फिर उससे भी पूछा....
जीजी! तुम ना खाओगी।।
तुम खा लो,मेरी तो भूख ही मर गई है,देवनन्दिनी बोली।।
क्यों? इत्ते बड़े महल जैसे घर में रहती हो ,भला तुम्हें क्या दुख हो सकता है? मैं बोली।।
बड़ा घर नहीं है,कैदखाना है ये,देवनन्दिनी बोली।।
मुझे तो ऐसा ना लागें है,मैं बोली।।
अभी कुछ दिन यहांँ रहोगी तो लगने लगेगा तुम्हें भी ये घर कैदखाना,देवनन्दिनी बोली।।
लो मेरा खाना तो हो गया,अब तो मैं सोऊँगीं,मैं बोली।।
ठीक है तुम वहीं बिस्तर पर सो रहो,मैं यहाँ नीचें चटाई पर सो जाऊँगी,देवनन्दिनी बोली।।
तुम यहांँ कितने साल से नौकरानी हो,मैनें देवनन्दिनी से पूछा।।
बहुत साल हो गए,देवनन्दिनी बोली।।
कौन कौन हैं तुम्हारे घर में,अपने घर नहीं जाती तुम कभी,? मैनें उससे पूछा।।
जब सब यहीं रहते हैं तो फिर कहाँ जाऊँगी? देवनन्दिनी बोली।।
माँग में सिन्दूर से तो लगता है कि ब्याही-वरी हो तो बच्चे भी होगें,कहाँ हैं वें सब,?,मैनें पूछा।।
ब्याही-वरी तो हूँ लेकिन इतने साल बाद भी बाँझ हूँ,उसी की सजा तो भोग रही हूँ,देवनन्दिनी बोली।।
तब तो सास बहुत कोसती होगी और पति ....भी ताने मारते होगें,मैनें पूछा।।
बाँझ होने से तो अच्छा था कि मुझे मौत आ जाती,देवनन्दिनी बोली।।
मैं तुम्हारा दुख समझ सकती हूँ जीजी! मैं बोली।।
और फिर मैं और देवनन्दिनी बहुत देर तक बातें करते रहें,उसने मेरा सिर भी दबाया,उसके सिर दबाते ही मुझे नींद आ गई।।
फिर सुबह हुई ,तब मेरे कमरें में देवनन्दिनी नहीं थी,मैं जागकर फिर झरोखें पर आकर बाहर झाँकने,सुबह की ठण्डी हवा आ रही थी झरोखे से और मेरे खुले हुए बाल उड़ रहें थें,मैनें अपनी चूनर भी ठीक से नहीं सम्भाली थी जो कि ऐसे ही मेरे काँधे पर पड़ी थी,तभी मेरी नज़र नीचें खड़े एक नवयुवक पर पड़ी,जिसने की लाल पगड़ी और धोती के साथ बन्डी पहनी थी,मैं उसे बड़े ध्यान से देख रही थी,तभी एकाएक हवा का झोंका आया और मेरी चूनर को अपने साथ उड़ा ले गया और चूनर ने जाकर उस नवयुवक के चेहरे को ढ़ँक लिया,उस नवयुवक ने अपने चेहरे से चूनर हटाई और इधर उधर देखने लगा.....
तभी मैने उसे इशारे से....शी...शी....करके बुलाया.....
उसने ऊपर देखा और इशारों में पूछा....
ये चूनर तुम्हारी है।।
मैनें इशारों में कहा,हाँ।।
फिर उसने उस चूनर में एक छोटा सा पत्थर लपेटा और वो चूनर मेरे झरोखें की ओर फेंक दी,मैनें चूनर खोली और फौरन सिर पर ओढ़ ली.....
मुझे चूनर ओढ़ा देखकर वो इशारों में बोला.....
बहुत ही सुन्दर लग रही हो.....
मैं उसकी बात सुनकर शरमा गई,तब तक देवनन्दिनी भी मेरे कमरें में आ चुकी थी और बोली.....
चलो!तैयार हो जाओ फिर नाश्ता करके नीचे चलो.....
मैनें पूछा,क्यों?
वो बोली....
तुम्हारी लिए कुछ कपड़े और गहने आएं हैं उन्हें पसंद कर लो,पाँच रोज़ के बाद तुम्हारा ब्याह है,
मैनें कहा,ठीक है।
फिर वो जाने लगी तो मैनें देवनन्दिनी से पूछा,
राजलक्ष्मी मालकिन चली गईं क्या?
वो बोली,हाँ! निकल गईं।।
देवनन्दिनी के जाने के बाद फिर मैं तैयार होने चली गई लेकिन उसके बाद अब मुझे किसी चीज का सुध ना था,मुझे तो वो पगड़ी वाला लड़का रह रहकर याद आ रहा था और अब जब भी मुझे समय मिलता तो मैं झरोखें के पास जाकर खड़ी हो जाती,वो लड़का मुझे दिख जाता तो मैं खुश हो जाती और अगर ना दिखता तो उदास होकर झरोखें से हट जाती....
फिर एक दिन वो नीचें खड़ा था तो उसे किसी ने पुकारा तब मुझे पता चला कि उसका नाम माधव है,
उसे झरोखें से देखने का सिलसिला दिन में तीन चार बार तो हो ही जाता था और जब उसकी नज़र भी मुझ पर पड़ती तो वो मुस्कुरा देता,मुझे ये लगने लगा था कि वो भी मुझे पसंद करने लगा है।।
ज्यों ज्यों मेरे ब्याह का दिन नजदीक आता जा रहा था तो मेरा कलेजा बैठा जा रहा और फिर वो दिन आ ही गया और मुझे उस दिन देवनन्दिनी ने नए कपड़े और गहने पहनाकर दुल्हन की तरह तैयार किया,मैं ब्याह के मण्डप में पहुँचीं और घूँघट की आड़ से दूल्हे का चेहरा देखा,दूल्हे का चेहरा देख कर मेरी खुशी की सीमा ना रही क्योंकि वो लड़का माधव ही था.....
अब मेरी आँखों में रंगीन सपने तैरने लगें थे,ब्याह की सभी विधियों को निभाने के बाद मेरी और माधव के मिलन की बेला आई....
मेरे कमरें को फूलों की लड़ियों से सँजाया गया और मुझे तैयार करके सुहागसेज पर बैठा दिया गया,रात को कमरें के किवाड़ खटके मैनें सोचा शायद माधव होगा और मैं घूँघट की आड़ में मंद मंद मुस्कुराने लगी,तभी मेरा घूँघट उठाया गया लेकिन जिसने मेरा घूँघट उठाया था वो माधव ही नहीं था.....
तब मैनें उससे पूछा.......
कौन हो तुम?
वो बोला......जमींदार अष्टबाहु।।
मैनें पूछा,मेरा पति माधव कहाँ है?
वो बोला,वो ब्याह तो एक दिखावा था,दुनिया को धोखा देने के लिए।।
मैनें कहा,दिखावा...कैसा दिखावा?

क्रमशः.......
सरोज वर्मा......