बंगले के बोर्ड पर चार नाम अंकित थे : पति, बृजमोहन नारंग का; पत्नी, श्यामा नारंग का; बड़े बेटे, विजयमोहन नारंग का; और छोटे बेटे इन्द्रमोहन नारंग का।
एजेंसी के कर्मचारी ने अपना पत्र बाहर पहरा दे रहे गार्ड को थमा दिया और बोला, ’’अन्दर अपनी मैडम को बता ादो मालती की सबस्टीट्यूट (एवज़ी) आई है।’’
मलती मेरी माँ है मगर एजेंसी के मालिक ने कहा था, ’’क्लाइंट को रिश्ता बताने की कोई ज़रूरत नहीं.....।’
इस एजेंसी से माँ पिछले चौदह वर्षों से जुड़ी थीं। जब से मेरे पिता की पहली पत्नी ने माँ की इस शादी को अवैध घोषित करके हमें अपने घर से निकाल दिया था। उस समय मैं चार वर्ष की थी और माँ मुझे लेकर नानी के पास आ गई थीं। नानी विद्यवा थीं और एक नर्सिंग होम में एक आया का काम करती थीं और इस एजेंसी का पता नानी को उसी नर्सिंग होम से मिला था। एजेंसी अमीर घरों के बच्चों और अक्षम, अस्वस्थ बूढ़ों के लिए निजी टहलिनें सप्लाई करती थी। अपनी कमीशन और शर्तों के साथ। टहलिन को वेतन एजेंसी के माध्यम से मिला करता। उसका पाँचवाँ भाग कमीशन के रूप कटवाकर। साथ ही टहलिन क्लाइंट का छह महीने से पहले नहीं छोड़ सकती थी। यदि छोड़ती तो उसे फिर पूरी अवधि की पूरी तनख्वाह भी छोड़नी होती ।
माँ की तनख्वाह की चिन्ता ही ने मुझे यहाँ आने पर मजबूर किया था। अपने काम के पाँचवें महीने माँ को टायफ़ायड ने आन घेरा था और डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने मुझे पन्द्रह दिनों के लिए अपनी एपज़ में भेज दिया था ताकि उस बीच वे अपना दवा-दरमन और आराम नियमित रूप से पा सकें।
बंगले के अगले भाग में एक बड़ी कम्पनी का एक बोर्ड टंगा था और उसके बरामदे के सभी कमरों के दरवाजों में अच्छी-खासी आवाजाही जारी थी।
हमें बंगले के पिछले भाग में बने बरामदे में पहुँचाया गया ।
मेरा सूटकेस मुझे वहीं टिकाने को कहा गया और जभी मेरा प्रवेश श्यामा नारंग के वातानुकूलित आलीशान कमरे में सम्भव हो सका।
उसका पैर पलस्तर में था और अपने बिस्तर पर वह दो तकियों की टेक लिए बैठी थी। सामने रखे अपने टी.वी. सेट का रिमोट हाथ में थामे।
’’यह लड़की तो बहुत छोटी है’’, मुझे देखते ही उसने नाक सिकोड़ ली।
’’नहीं, मैडम’’, एजेंसी का कर्मचारी सतर्क हो लिया, ’’हम लोगों ने इसे पूरी ट्रेनिंग दे रखी है और यह पहले भी कई जगह एवज़ी रह चुकी है। और किसी भी क्लाइंट को इससे कोई शिकायत नहीं रही.....’’
’’जी मैडम’’, मैंने जोड़ा, ’’मैं छोटी नहीं, मेरी उम्र 20 साल है।’’ माँ ने मुझे चेता रखा था। अपनी आयु मुझे दो वर्ष बढ़ाकर बतानी होगी। साथ में अपने को अनुभवी टहलिनी भी बनाना पड़ेगा।
’’अपना काम ठीक से जानती हो?’’ वह कुछ नरम पड़ गई।
’’जी, मैडम। टायलट सँभाल लेती हूँ। स्पंज बाथ दे सकती हूँ। कपड़े और बिस्तर सब चेंज कर सकती हूँ......’’
’’क्या नाम है?’’
’’जी कमला’’, अपना असली नाम, शशि मैंने छिपा लिया ।
’’कहाँ तक पढ़ी हो?’’
’’आठवीं तक’’, मैंने दूसरा झूठ बोला हालाँकि यू.पी. बोर्ड की इंटर की परीक्षा मैंने उसी साल दी जिसका परिणाम उसी महीने निकलने वाला था। किसी भी दिन।
’’परिवार में कौन-कौन हैं?’’
’’अपाहिज पिता हैं’’, मैंने तीसरी झूठ बोल दिया, ’’पाँच बहनें हैं और दो भाई.....’’
’’तुम जा सकते हो’’, सन्तुष्ट होकर श्यामा नारंग ने एजेंसी के कर्मचारी की ओर देखा, ’’फ़िलहाल इसी लड़की को रख लेती हूँ। मगर तुम लोग अपना वादा भूलना नहीं, मालती पन्द्रह दिन तक ज़रूर मेरे पास पहुँच जानी चाहिए.....’’
’’जी, मैडम....’’
डसके लोप होते ही श्यामा नारंग ने मुझे अपने हाथ धोने को बोला और फिर कमरे का दरवाज़ा बन्द करने को। सिटकिनी चढ़ाते हुए। मुझे उसे तत्काल शौच करवाना था। अपने हाथ धोने के उपरान्त हाथ धोने एवं शौच का कमोड लेने मैं उसके कमरे से संलग्न बाथरूम में गई तो उसमें पैर धरते ही मुझे ध्यान आया मुझे भी अपने को हल्का करना था। मगर उसका वह बाथरूम इतनी चमक और खूशबू लिए था कि मैं उसे प्रयोग में लाने का साहस जुटा नहीं पाई।
हूबहू माँ के सिखाए तरीके से मैंने उसे शौच करवाया, स्पंज-स्नान दिया।
बीच-बीच में अपने वमन को रोकती हुई, फूल रही अपनी साँस को सँभालती हुई, अपनी पूरी ताकत लगाकर।
थुलथुले, झुर्रीदार उसके शरीर को बिस्तर पर ठहराए-ठहराए।
एकदम चुप्पी साधकर।
उसकी प्रसाधन-सामग्री तथा पोशाक पहले ही से बिस्तर पर मौजूद रहीं : साबुन, पाउडर, तौलिए, क्रीम, ऊपरी भाग की कुरती-कमीज, एक पैर से उधेड़कर खोला गया पायजामा ताकि उसके पलस्तर के जाँघ वाला भाग ढँका जा सके।
’’मालूम है?’’ पायजामा पहनते समय वह बोल पड़ी, ’’मेरा पूरा पैर पलस्तर में क्यों है?’’
’’नहीं, मैडम’’, जानबूझकर मैंने अनभिज्ञता जतलाई।
’’मैं बाथरूम में फिसल गई थी और इस टाँग की मांसपेशियों को इस पैर की एड़ी के साथ जोड़ने वाली मेरी नस फट गई थी। डॉक्टर ने लापरवाही दिखाई। उस नस की मेरी एड़ी के साथ सिलाई तो ठीक-ठाक कर दी मगर सिलाई करने के बाद उसमें पलस्तर ठीक से चढ़ाया नहीं। इसीलिए तीसरे महीने मुझे दोबारा पलस्तर चढ़वाना पड़ा....’’
’’जी, मैडम’’, पायजामे का इलैस्टिक व्यवस्थित करते हुए मैं बोली।
’’आप लोग को एजेंसी वाले चुप रहने को बोलते हैं?’’ वह थोड़ी झल्लाई, ’’मालती भी बहुत चुप रहा करती थी....’’
मैं समझ गई आगामी मेरी पढ़ाई की फ़ीस की चिन्ता में ध्यानमग्न माँ को उसकी बातचीत में तनिक रूचि नहीं रही होगी।
’’जी, मैडम’’, मैं हाँकी, ’’हमें बताया जाता है गम्भीर लोग अपने टहलवों से बातचीत नहीं चाहते, केवल अपने आदेश का पालन चाहते हैं.....’’
’’ऐसा क्या’’, वह हँसने लगी।
’’जी, मैडम’’, गीले तौलिए, गन्दले पानी से भरे तसले और उसके पिछले दिन के कपड़े समेटते हुए मैंने कहा।
’’अभी मैं थक गई हूँ। थोड़ी देर लेटी रहना चाहती हूँ। मेरे बाल बाद में बना देना। जब तक तुम यह सारा सामान मेरे बाथरूम में धो डालो। और देखो, बाथरूम जिस दालान में उधर से खुलता है, वहाँ कपड़े सुखाने का एक रैक रखा है। यह सामान उसी रैक पर फैलाना है.....’’
’’जी, मैडम’’,
’’कपड़े फैलाकर सीधी इधर ही आना....’’
’’जी, मैडम’’,
अपने हाथ का काम निपटा कर मैं श्यामा नारंग के कमरे में लौटी तो वह अपने बिस्तर पर फिर से तकियों की टेक लिए अधलेटी अवस्था में अपने टी.वी. के विभिन्न चैनल अदल-बदल रही थी।
’’फ्रि़ज में से मुझे मेरी डाएट पेप्सी नीचे से निकाल दो’’, मुझे देखते ही वह बोल उठी, ’’मुझे प्यास लगी है.....’’
जभी मुझ ध्यान आया, प्यास तो मुझे भी बहुत जोर से लग रही थी। गला मानो और सूखने लगा मेरा।
टी.वी. ही की बगल में एक फ्रि़ज भी रखा था। दो दरवाज़ों वाला। ऐसा फ्रि़ज मैं पहली बार देख रही थी। नानी के नर्सिंग होम के फ्रि़ज का दरवाज़ा एक ही था।
श्यामा नारंग के फ्रि़ज में कई पेय रखे थे। कुछ गत्ते के डिब्बों में तो कुछ बोतलों में।
’’कहाँ रखी है, मैडम?’’ मुझे डायट पेप्सी कहीं दिखाई नहीं दी।
’’कभी देखी नहीं पहले?’’ वह झल्लाई, ’’इसी निचले दरवाज़े के बीच वाले खाने में टिन की छोटी-सी कनस्तरी है.....’’
’’जी, मैडम! देख ली....’’
’’अब तुम्हें मेरे बाल बनाने हैं’’, पेप्सी उसने अपने ही हाथ से खोली और उसे पीने लगी।
उसके बाल कटे हुए थे।
मगर कम थे और महीन थे।
उनमें सफेदी नाम मात्र की भी नहीं थी। माँ ने मुझे बता रखा था हर शनिवार को एक ब्यूटी पार्लर से एक लड़की आती है, उसके बाल रँगती है। उसके चेहरे पर मास्क लगाती है, उसके पूरे शरीर की मालिश करती है-कभी जैतून के तेल से तो कभी पाउडर से-उसके पैर के नाखून बनाती है, सँवारती है, पालिश करती है। नौ सौ शुल्क पर।
’’टिं्रग.... टिं्रग’’, उसका मोबाइल बज उठा।
’’हाँ, हाँ, आ जाओ’’, मोबाइल पर वह कुछ सुनकर बोली।
’’मेरे पति से तुम अभी नहीं मिलीं?’’ श्यामा नारंग ने अपना मोबाइल बन्द कर दिया।
’’नहीं, मैडम.....’’
पत्नी की तुलना में बृजमोहन नारंग छरहरा था, चुस्त था। सिर से आधा गंजा, मगर बचे हुए अपने बाल उसने रँगे हुए थे। उसके चेहरे का बुढ़ापा पत्नी से ज्यादा गहरा था मगर वह ताज़ी शेव स ेचमक रहा था : चटकीला और महकदार....।
’’यह नई लड़की है?’’ वह पत्नी के बिस्तर की बगल में रखे सोफे पर बैठ गया।
’’हाँ....मालती की एवज़ी.....’’
’’नमस्कार, सर,’’ मैंने अपने हाथ जोड़ दिए।
’’तुम्हें तो स्कूल में होना चाहिए, यहाँ नहीं.....’’
’’जी, सर....’’
’’इस उम्र में अब स्कूल जाएगी’’, श्यामा नारंग पति पर खीझ ली, ’’बीस साल की है, कोई बच्ची नहीं....’’
’’खाना लगवा दो। डेढ़ बज रहा है....’’ पति ने विषय बदल डाला।
’’ठीक है सुमित्रा को बुलाती हूँ’’, अपने बिस्तर ही से उसने एक घंटी उठाई और बजा दी।
एक नौकरानी दौड़ी आई।
’’खाना तैयार है?’’
’’जी, मैडम...’’
’’पहले इस लड़की को मालती वाला कमरा दिखा दो, फिर ट्रौली इधर लाना.....’’
’’तुम अपने कमरे में जाओ, लड़की’’, बृजमोहन नारंग ने मेरी तरफ देखा, ’’तुम्हें बुलाना होगा तो वहाँ की घंटी बजा दी जाएगी...’’
’’जी, सर.....’’
मेरा कमरा बंगले के पिछवाड़े बने खुले दालान में था।
अपनी बगल में तीन कमरे लिए।
’’क्या कुछ इसमें भरा है!’’ मैंने अपना सूटकेस कमरे के एक-चौथाई भाग में बिछे तख़्त के नीचे टिका दिया। उसके बाकी तीन भाग पुराने और फालतू सामान से भरे थे : टूटे बर्तनों से, धूल-धूसरित मैगज़ीन और अखबार से जीर्ण-शीर्ण खुले कूलरों से, दीमक लगी पेपरबैक किताबों से, भंग-विभंग कुर्सी-मेज़ों से।
’’मुझे बाथरूम जाना था’’, मैंने झिझकते हुए सुमित्रा से कह ही दिया।
’’इधर हम तीन परिवार रहते हैं और एक साझा बाथरूम इस्तेमाल करते हैं तुम्हें इस समय खाली भी मिल सकता है और खाली नहीं भी.....’’
’’ठीक है, मैं देख लेती हूँ.....’’
’’तुम्हारा खाना मैं ही लाऊँगी, लगभग तीन, साढ़े तीन बजे....’’
बाथरूम खाली नहीं था। अन्दर से किसी के नहाने की आवाज़ आ रही थी।
निराश होकर मैं स्टोर-नुमा अपने कमरे में लौट ली।
श्यामा नारंग के ए.सी. के बाद अकस्मात मुझे लगा, यह कमरा बहुत गरम था।
मैंने उसका पंखा आन किया तो वह आवाज़ करता हुआ बहुत धीमी स्पीड पर हिलने लगा।
उसकी स्पीड मैंने तेज़ करनी चाही तो उसकी किर्र-किर्र भी साथ ही में तेज हो ली। फिर वह इतनी ज़ोर से हिला कि मुझे लगा वह अब गिरा, कब गिरा।
मैं उसे पुरानी स्पीड पर ले आई और तख़्त पर लेट गई।
मैं बहुत थक गई थी। पहली बार मुझे ध्यान आया माँ तो उम्र में मुझसे कितनी बड़ी थीं, वह तो बहुत ज्यादा थक जाती होंगी। तिस पर इतनी गरमी!
तख़्त पर बिछा गद्दा बीच-बीच में कई जगह से खोखला हो चुका होने के कारण जैसे ही मेरे शरीर में गड़ने लगा, मैं उठकर बैठ गई।
माँ यहाँ कैसे सोती हांगी?
माँ याद आईं तो उनके दिए बिस्कुट के पैकेट भी याद आ गए। माँ ने कहा था, वहाँ खाना कभी माँगना नहीं। देर से मिल रहा हो तो मौका ढूँढ़कर ये बिस्कुट चबा लेना।
श्यामा नारंग की घंटी पूरी एक घंटे बाद बजी।
मैं उधर दौड़ ली।
’’तुम्हें मेरे हाथ धुलाने हैं। मुझे कुल्ला करवाना है और फिर मुझे लिटाकर पेशाब करवाना है.....’’
’’जी, मैडम....’’
’’फिर तुम अपने कमरे में जा बैठना, तुम्हारा खाना वहीं पहुँचाया जाएगा.....’’
’’जी, मैडम....’’
मेरे खाने की थाली साढ़े तीन बजे प्रकट हुई। ’’खाना खाकर यह बरतन धोकर यहीं रख देना’’, सुमित्रा जाते-जाते मुझे बोलती गई।
थाली का सामान देखकर मुझे उबकाई आ गई : पानी में तैर रहे उबले आलू, सूखे काले चने, दो चपाती और ग्यारह-बारह ग्रास मोटा चावल।
माँ मुझे क्यों बताया करती थीं, रईसों के यहाँ उन्हें रईसी खाना मिला करता है?
किन्तु जल्दी ही मेरी भूख ने मेरी उबकाई पर काबू पा लिया और मैं थाली पर टूट पड़ी।
बीच-बीच में माँ की याद करती हुई ।
’’खाना खा लिया?’’ चार बजे के लगभग सुमित्रा फिर आई, ’’बरतन उठा लूँ....’’
’’रसोई में यही सब बनता है?’’ जिज्ञासावश मैंने पूछ ही लिया।
’’जो वह बनता है वह तुम्हारे लिए नहीं बनता। सिर्फ़ बुढ़ऊ और बुढ़िया के लिए बनता है.....’’
वे लोग ऐसा खाना खा भी नहीं सकेंगे.....’’
’’बिल्कुल नहीं। उनका खाना जैतून के तेल में बनता है। उनकी सब्ज़ियाँ भी ख़ास होती हैं, अलग किस्म की और बहुत महँगी। बीज बाहर के और खाद देसी और ख़ालिस। बैंजनी गोभी, लाल-पीली सिमला मिर्च, सफ़ेद बैंगन, बच्चा-मक्की, बच्चा टमाटर......’’
’’और घर के बाल-बच्चों का खाना?’’
’’दो बेटे हैं। दोनों उधर कहीं अमेरिका में रहते हैं। बारी से साल-दो साल में दो-एक बार आते हैं, कभी अकेले तो कभी परिवार के साथ.......’’
’’और यह दोनों यहाँ रहते हैं?’’
’’आगे का हिस्सा किराए पर उठाए हैं और पीछे के हिस्से में पति-पत्नी।’’
जभी श्यामा नारंग की घंटी गूँज उठी।
’’अभी से मुझे बुला लिया?’’
’’पेशाब करवाना होगा’’, सुमित्रा हँसने लगी।
’’तो क्या रात में भी जगा दिया करती हैं?’’ अपनी माँ के लिए मेरी चिन्ता और बढ़ ली।
’’आपकी एजेंसी को पाँच हजार रूपया इसी टहल के लिए ही तो मिला करता है......’’
जभी घंटी दोबारा बजी।
मैं लपककर वहाँ पहुँची तो देखा बृजमोहन नारंग भी वहीं अपने सोफ़े पर पत्नी के पास बैठा था। अपने हाथ में टी.वी. का रिमोट लिए।
मैंने टी.वी. पर निगाह दौड़ाई तो स्क्रीन पर मेरी नानी बोल रही थीं, ’’हमें तो मालूम था हमारी नातिन एक दिन जरूर नाम कमाएगी.....’’
’’इसे पहचानती हो?’’ श्यामा नारंग चिल्लाई । गहरी उत्तेजना में।
बृजमोहन नारंग ने उसी पल चैनल बदला तो माँ सामने आ गईं। अपने दुबले, पीले चेहरे के साथ। अपने तख़्त पर बैठी हुईं।
’’इसे भी नहीं पहचानती?’’ श्यामा नारंग फिर चिल्लाई।
जभी माँ बोलने लगीं, ’’आजकल अपने रिश्तेदार के पास गई हुई है। पन्द्रह दिन बाद आएगी....’’
’’हमें उस रिश्तेदार का पता दे दीजिए’’, न्यूज वाले उस चैनल की एन्कर बोली, ’’हम उसे खोज लेंगी। हमें उसका इंटरव्यू लेना है....’’
’’और इसे भी नहीं पहचानती?’’ बृजमोहन नारंग ने अपनी व्यंग्योक्ति कसी। ऊँची, धमकी-भरी आवाज़ में।
टी.वी. पर यू.पी.बोर्ड का मेरा पहचान-पत्र दिखाया जा रहा था और मेरी फ़ोटो के ऊपर शीर्षक आ रहा था, ’’बोर्ड में प्रथम स्थान पाने वाली शशि....’’ जभी टी.वी. बन्द कर दिया गया।
’’हम से इतना बड़ा धोखा? इतना बड़ा झूठ?’’ श्यामा नारंग मुझ पर बरस पड़ीं, ’’तुमने आज आकर मुझे क्या कहा? ’मेरा नाम कमला है’, ’मैं सिर्फ़ आठवीं तक पढ़ी हूँ’, ’मेरे पिता अपाहिज हैं’, ’मेरी पाँच बहनें हैं, दो भाई हैं’...’’
’’उस एजेंसी को हम छोड़ेंगे नहीं’’, बृजमोहन नारंग भी पत्नी की तरह चिल्लाने लगा, ’’अपने क्लाइंटस को भुलावे में रखती है। जब चाहे, जिसे चाहे बदल दे...भेज दे...’’
’’उस एजेंसी का इसमें कोई दोष नहीं,’’ मैं रोने लगी, ’’सारा दोष हमारा है। माँ का टायफायड गम्भीर रूप ले रहा था और हमें रूपयों की सख़्त ज़रूरत थी। मुझे आगे भी पढ़ना है और...’’
’’मजाक है कोई?’’उत्तेजित अवस्था में श्यामा नारंग अपने मोबाइल पर कुछ नाम घुमाने लगी, ’’हमारे साथ एजेंसी का कॉन्ट्रैक्ट है, छह महीने से पहले कोई टहलिन बीच में काम छोड़कर नहीं जाएगी....’’
’’हम लोग आपका काम बीच में क्यों छोडे़गी, मैडम।’’ मैं बहुत डर गई, ’’मैं ये पन्द्रह दिन ज़रूर पूरे करूँगी, मैडम। जब तक मेरी माँ अच्छी हो जाएँगी और यहाँ लौट लेंगी....’’
जभी सुमित्रा दौड़ी आई, ’’सर बाहर गार्ड बता रहा है, बाहर कई टी.वी. चैनल वाले भीड़ लगा रहे हैं....’’
’’ज़रूर तुम्हारी माँ ने उन्हें यहाँ का पता दिया होगा?’’ बृजमोहन नारंग मुझ पर चिल्लाया, ’’अब वे चैनल वाले घर में आ घुसेंगे।’’ उसे नई चिन्ता लग गई थी।
’’वे लोग यहाँ नहीं आ सकते’’, श्यामा नारंग भी चिल्लाई, और अपने मोबाइल के साथ फिर भिड़ लीं, ’’इस एजेंसी की मैं अभी खबर लेती हूँ....’’
’’रूको, टी.वी. देखते हैं’’, बृजमोहन नारंग ने टी.वी. खोल दिया।
टी.वी. पर नानी के नर्सिंग होम की बड़ी डॉक्टर बोल रही थी, ’’हाँ, वह एजेंसी मेरे भई चलाते हैं....’’
’’देखिए सर’’, मैं रोने लगी, ’’मैं जानती थी मेरी माँ उन चैनल वालों का आप लोगों का पता हरगिज़ नहीं दे सकतीं। आप मेरी माँ को या मुझे यहाँ से जाने को मत कहिएगा, मैडम....’’
’’मगर....’’
जभी बगल के, पिछवाड़े वाले भाग की कॉल-बैल जोर से घनघनाई।
’’वे लोग आ पहुँचे हैं’’, बृजमोहन नारंग ने टी.वी. बन्द कर दिया। और सोफ़े से उठ खड़ा हुआ, ’’अब कोई तमाशा नहीं....’’
’’मैडम, दरवाजा खोलना है क्या?’’ सुमित्रा ने श्यामा नारंग की ओर देखा।
’’खोलना ही पड़ेगा। वे लोग यहाँ इस लड़की के लिए आए हैं’’, बृजमोहन नारंग के स्वर परिवर्तन ने मुझे चौंका दिया।
’’जी, सर....’’
सुमित्रा ने श्यामा नारंग के कमरे से बाहर का रूख किया।
’’तुम उन्हें यहाँ लाओगे?’’ श्यामा नारंग चिल्लाई।
’’इस समय तुम चिल्लाओ नहीं । सारा हिन्दुस्तान हमें देखने वाला है। वे लोग इस लड़की को शाबाशी देने आए हैं। उनके साथ हम भी इसे शाबाशी देंगे। कहेंगे, हम इसे आगे पढ़ने में भी इसकी मदद करेंगे इसकी माँ का साथ देंगे.....’’ बृजमोहन नारंग ने अपना स्वर और धीमा कर लिया।
लगभग साज़िशी।