Mamta ki Pariksha - 28 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 28

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ममता की परीक्षा - 28



छात्रावास के मुख्य द्वार के पास साधना के आते ही गोपाल ने लपककर बक्सा उसके हाथों से ले लिया।

गेट से परे हटकर उसने सड़क से जा रहे एक साइकिल रिक्शे वाले को हाथ के इशारे से रोका और फिर बिना उसे कुछ कहे हाथ का बक्सा रिक्शे में लाद दिया। नजदीक ही खड़ी साधना का हाथ थामकर रिक्शे पर बैठते हुए उसने रिक्शेवाले से बस अड्डे चलने के लिए कह दिया।

कुछ ही मिनट बाद दोनों बस अड्डे में खड़ी सुजानपुर जानेवाली अंतिम बस में बैठे थे। बस के कंडक्टर ने, जो कि शायद सुजानपुर का ही था साधना को पहचान लिया। साधना के साथ एक अपरिचित लडके को बैठा देखकर उसके चेहरे पर अजीब सा भाव आ गया था वहीँ साधना भी उससे नजरें मिलाने का साहस नहीं कर पा रही थी। गोपाल भी इस स्थिति को महसूस कर खुद को असहज महसूस कर रहा था कि तभी बस चल पड़ी।

जिस वक्त बस ने सुजानपुर गाँव की सीमा में प्रवेश किया, अँधेरा गहरा चुका था। बस से उतरकर गोपाल ने बक्से को नीचे उतारा और साधना की तरफ देखा। वह भी कनखियों से उसी की तरफ देख रही थी। बस से सभी सवारियाँ उतरकर अपने गंतव्य को रवाना हो गई थीं। बस के ड्राइवर कंडक्टर ने बस घूमा लिया था। इस बीच कंडक्टर जो कि उसी गाँव का था बराबर साधना की तरफ ही देखे जा रहा था। उसकी नज़रों का आशय समझकर साधना स्वयं ही उसके सम्मुख चली गई और दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते करते हुए बताया, "नमस्ते काका ! ये गोपाल जी हैं। मेरे साथ ही कॉलेज में पढ़ते हैं। आज से हमारी छुट्टियाँ शुरू हो गई हैं। गाँव कभी देखे नहीं थे सो मेरे साथ ही गाँव घूमने आ गए हैं।"

कंडक्टर ने प्यार से साधना की तरफ देखते हुए कहा, "कोई बात नहीं बिटिया ! शहरों में रहनेवालों के दिलों में गाँवों का विशेष आकर्षण होता है। गोपाल बाबू हमारे मेहमान हैं। गाँव के साथ ही इन्हें आसपास की सभी देखने लायक दर्शनीय स्थलों की सैर भी जरूर करवा देना। शुभ रात्रि बिटिया !"

और गोपाल मन ही मन साधना की समझदारी से खुश हो गया। उसने बड़ी होशियारी से कंडक्टर से मिलकर उसके मन में उठ रहे कई तरह की अटकलों पर पूर्ण विराम लगा दिया था। गोपाल जानता था कि यदि साधना उससे मिलकर उसे यह सब नहीं बताती तो गाँव में तुरंत ही कानाफूसी शुरू हो जाती और फिर शुरू हो जाता अनंत मनगढंत किस्सों का सिलसिला। साधना गाँवों के प्रचारतंत्र से बखूबी परिचित थी इसीलिये वह कंडक्टर को अधिक देर तक नजरअंदाज नहीं कर सकी थी।

गाँव की अँधेरी गलियों से होती हुई साधना आगे आगे अपने घर की तरफ अग्रसर थी और उसका अनुसरण करता बक्सा उठाए गोपाल उसके पीछे पीछे बढ़ा जा रहा था। रास्ते में कुछ टुकुर टुकुर ताकती निगाहों को नजरअंदाज करती वह गाँव के दूसरे छोर पर बने अपने घर के सामने पहुँच गई।

यह एक अधपक्का मकान था जैसा कि अक्सर गाँवों में दिखाई पड़ता है। लकड़े के मोटे से किवाड़ पर साधना ने धीमे से थपकी दी और दरवाजे के बगल में खड़ी हो गई। तब तक गोपाल भी उसके पीछे आकर खड़ा हो चुका था। गर्मी और उमस से बेचैन बिना आदत पैदल चलने से गोपाल पसीने से तरबतर हो चुका था।

दरवाजा मास्टर रामकिशुन जी ने खोला और अँधेरे में झाँक कर बाहर खड़े साये को पहचानने की कोशिश करने लगे। आगंतुक से कुछ पूछते कि तभी साधना आगे बढ़कर उनके चरण स्पर्श कर उनसे लिपट गई। अपनी प्यारी बिटिया का स्पर्श पहचानकर ही मास्टर रामकिशुन की आँखों में आनंदाश्रु आ गए। उन्होंने किसी अबोध बालिका की तरह साधना को अपने आगोश में ले लिया। कुछ देर वह पिता पुत्री यूँ ही एक दूसरे से ख़ामोशी से संवाद करते रहे और और एक दूसरे के पावन स्पर्श का माधुर्य महसूस करते रहे।

अचानक छनाक से दरवाजे के सामने टंगा बिजली का बल्ब रोशन हो उठा। शायद बिजली अनायास ही आ गई थी। दरवाजे के सामने की जगह रोशन हो गई और इसी के साथ स्पष्ट हो गई थी गोपाल की आकृति जिसपर अँधेरे की वजह से रामकिशुन की नजर अब तक नहीं पड़ी थी। उसपर नजर पड़ते ही चौंकते हुए रामकिशुन ने साधना को परे हटाते हुए उससे पूछा, "ये कौन है बेटी ? क्या तेरे साथ आये हैं ?"

" जी बाबूजी ! इनका नाम गोपाल है और ये मेरे साथ ही आये हैं।" कहते हुए साधना की नजरें झुक गई थीं।

रामकिशुन की अनुभवी आँखों ने अपनी तीखी नज़रों से गोपाल का मुआयना किया। साफ़ सुथरे नए फैशन के कपडे , सलीके से सँवारे गए बाल और पैरों में बाटा के नए जूते पहने गोल चेहरे व गोरी रंगत का स्वामी वह युवक काफी आकर्षक लग रहा था जिसका नाम साधना ने गोपाल बताया था। पहली नजर में ही वह किसी रईस परिवार का सदस्य लग रहा था। नज़रों से नजरें मिलते ही गोपाल ने आगे बढ़कर रामकिशुन के चरण स्पर्श किये और अपने संस्कार का परिचय दिया।
मास्टर रामकिशुन ने गोपाल को संबोधित किया, "अंदर आओ बेटा ! बाहर क्यों खड़े हो ?"

गोपाल को जैसे उनके इन्हीं शब्दों की प्रतिक्षा थी। बक्सा लिए उसने दरवाजे से घर के अंदर प्रवेश किया।

साधना शीघ्र ही घर में घुसकर भोजन वगैरह की तैयारी में लग गई जबकि गोपाल मास्टर रामकिशुन के साथ घर के सामने खुली जगह में एक खटिये पर बैठा उनसे बातें करने में व्यस्त हो गया। अपना परिचय देने में उसने पूरी सावधानी बरती थी और साधना द्वारा कंडक्टर को बताया गया परिचय ही दुहरा दिया। उसकी पूरी बात सुनकर मास्टर रामकिशुन ने अपने मन की शंका जाहिर की, " बेटा ! बुरा न मानना ! मैं ये जानना चाहता था कि तुम यहाँ घूमने आए हो इसकी जानकारी तुम्हारे माता पिता को तो है न ? तुमने उनकी इजाजत तो ले ली है न ?"

गोपाल क्या जवाब देता ? झूठ बोलना अब उसकी मजबूरी बन गई थी ! किसी ने सच ही कहा है 'एक सच छुपाने के लिए सौ झूठ बोलना पड़ता है' बोला, "काका ! पिताजी के पास तो समय नहीं है हमारी बात सुनने के लिए ! माताजी भी पिताजी से अलग नहीं हैं, फिर हम किससे अपना दुखड़ा रोएं ? किससे अपने दिल की बात कहें ? धन दौलत की कोई कमी नहीं है हमें न हमारे माता पिता को ! लेकिन फिर भी हमें ऐसा लगता है कि हमारे पास कुछ भी नहीं। हम दुनिया में सबसे बेचारी संतान हैं जिसके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है क्यों कि हमारे पास न बाप के प्यार का अनुभव है और न माँ की ममता का ! अब ऐसे में आप ही बताइए मैं किससे इजाजत लेता ? और क्या कहकर इजाजत माँगता कि मुझे इजाजत दे दो मैं उस सुकून की तलाश में , उस ममता और प्यार की तलाश में जाना चाहता हूँ जो मुझे आप लोगों से नहीं मिला ?"
" फिर भी बेटा तुम्हें अपनी माताजी को एक बार खबर कर देनी चाहिए। कोई बात नहीं ! मैं गाँव के डाकखाने से तुम्हारे लिए ट्रंक कॉल बुक करा दूँगा! तुम चाहो तो मैं भी उनसे बात करके उनको तुम्हारी तरफ से आश्वस्त कर दूँगा।"

क्रमशः