Rasbi kee chitthee Kinzan ke naam - 16 - last part in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 16 (अंतिम भाग)

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रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 16 (अंतिम भाग)

चल बेटा, अब बंद करती हूं।
मैं ये तो नहीं कहूंगी कि तू मेरी ज़िंदगी से कोई सीख ले, पर ये ज़रूर कहूंगी कि मेरी ज़िंदगी ने ख़ुद मुझे बहुत सिखाया।
वैसे भी, ये बेकार की बातें हैं कि दूसरों के जीवन से हम बहुत सीखते हैं। सच तो ये है कि हम सब अपने ही जीवन से सीखते हैं। यदि दूसरों की ज़िंदगी हमें सिखा दे, तो खुद अपनी ज़िंदगी का हम क्या करें?
कहा जाता है अपने अपने जीवन में हम सब अकेले हैं। पर मुझे तो हमेशा से ये लगता है कि कोई अकेला नहीं है, अपने अपने बदन में भी हम सब कई- कई रूपों में बसे हैं। एक के साथ हम अच्छे बन जाते हैं, दूसरे के साथ बुरे, किसी को चाहते हैं तो किसी को दुत्कारते हैं। फिर अपने जिस्म के भीतर भी हम बाहर से कुछ और हैं तो भीतर से कुछ और। एक हम अपने लिए हैं, एक दूसरों के लिए... कोई शायर कह भी गया है न -
"हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना!"
तू तो मेरे अपने जिस्म का टुकड़ा था। तेरे पिता ने अपना सत्व देकर तुझे मेरे जिस्म से ही खींचा था। हमने तुझे पाला था। मैंने अपना दूध तुझे पिलाया, तेरे पिता ने अपने सपने तुझ में बोए। वो कंधे पर तुझे उठाए घूमते थे।
लेकिन जब मेरी दुनिया बिखरी तो वो मेरे तन से दूर हो गए, तू मन से।
नहीं नहीं... माफ़ करदे बेटा। तू मन से मुझसे दूर कभी नहीं हुआ। मैं जानती हूं कि तू मुझे बहुत प्यार करता था। गलती मेरी ही थी जो मैं तुझ से अलग सोचती थी। मैं तेरे सपने में अपनी उमंग के रंग नहीं भर पाई।
ये दुनिया ऐसी ही है, किसी फिरोज़ा झील सी। हम सब के सपने यहां मछलियों की तरह तैरते हैं और एक दूसरे के सपनों से टकराते रहते हैं। हम सब के भीतर छिपी मछलियां ही हमें दुनिया में किसी के लिए अपना तो किसी के लिए पराया बनाती हैं।
बेटा, अब इन बातों का तो कोई अंत ही नहीं है। जब तक जीवन है तब तक बातें हैं।
ले, मैं भी कैसी भुलक्कड़ हूं। मुझे कुछ याद ही नहीं रहता। अब कहां है जीवन? मैं तो बरसों पहले ही मर गई थी और अब तू भी मर गया। अब बातें कैसी?
लेकिन तू कुछ भी कह, एक बात तो मैं ज़रूर कहूंगी। दुनिया में मज़ा तो बहुत आया।
मैं तो पैदा ही एक जेल में हुई थी। नहीं नहीं, मैंने कोई अपराध नहीं किया था। अपराधी थी मेरी मां! हत्या उसने की थी।
औरों को तो मैं कुछ नहीं बता सकी। उन्हें जो कुछ बताया पास -पड़ौस वालों ने, भीड़ ने, पुलिस ने, कचहरी ने बताया। पर तुझे तो मैं बता ही सकती हूं। मेरी मां हत्या करने नहीं गई थी। तू खुद सोच, हत्या करने जाती तो साथ में बंदूक, तमंचा, छुरी, खंजर कुछ तो लेकर निकलती न?
वो तो पानी की बाल्टी लेकर घर से निकली थी। पानी का मटका थामे निकली थी। वो बेचारी क्या करती! प्यास तो सबको लगती थी न। पानी न लाती तो क्या सबको प्यासा तड़पते हुए देखती? उसके पानी के बर्तन को एक औरत ने फोड़ दिया। बस, उसने औरत का सिर फोड़ दिया।
इतनी सी बात थी।
... नहीं बेटा। ये इतनी सी बात नहीं थी।
- जाने दे, हम अब न कोई हत्या की बात करेंगे, न अपराध की और न ही पानी की! बातों का क्या, कभी ख़त्म थोड़े ही होती हैं बातें?
मैं मर गई, तू भी मर गया! हमें अब क्या करना। करना है तो दुनिया वाले करेंगे...
पानी है ही ऐसी चीज़। सफीने इसी में तैरते हैं इसी में डूबते हैं!
(समाप्त)