चर्चा के बहाने
आर्त्तनाद : मानवता का प्रश्न
डॉ. रेनू यादव , ग्रेटर नोएडा
किसी भी कहानी का प्लॉट उठाने के लिए लेखक का अनुभव जितना नजदीक से होगा उतनी ही संवेदना और गहराई लेखन में होगी । लेखिका नीलम कुलश्रेष्ठ की कहानियाँ अनुभव की कसौटी से निकलती हैं और बहुत अधिक कल्पना की डोर खींचे बगैर यथार्थ की ओर मुड़ जाती हैं ।
‘आर्त्तनाद’ ग्रामीण परिवेश की कहानी है । जहाँ अवैध संबंध को छुपाने के लिए अवैध संबंध रखने वाली महिला मेंहदी के पति की हत्या कर दी जाती है और हत्या का आरोप अवैध संबंध की चश्मदीद गवाह मनदेवी पर लगा कर उसका सर मुँडवा कर, उसके मुँह पर कालिख पोत कर तथा गधे पर बैठाकर अर्द्धनग्न अवस्था में गाँव में घुमाने जैसा भयानक दंड दिया जाता है । प्रायः ग्रामीण परिवेश में अवैध संबंध रखने वालों के लिए सज़ा सुनाई जाती है, किंतु इस कहानी में चश्मदीद गवाह को सज़ा मिलती है । क्योंकि इस कहानी में मात्र दो लोगों का व्यक्तिगत संबंध नहीं है, बल्कि पूरी की पूरी वर्चस्ववादी सत्ता इस संबंध को फलने-फूलने और उसका विस्तार करने देने में शामिल है, इसलिए विरोध करने वाले को सज़ा मिलती है न कि अपराधी को ।
इस तरह की घटनाएँ गाँव में सहज ही घटती हैं, (यह मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रही हूँ) और सहज ही स्वीकार ली जाती हैं और कुछ दिनों तक चर्चा के केन्द्र में गरम माहौल रहने के बाद ठंड़ा जाती हैं । हैरानी की बात है कि ऐसे अपराधों को छुपाने में पूरा का पूरा गाँव एक साथ खड़ा हो जाता है , कभी कभी तो पुलिस भी साथ देती है ।
इस कहानी में वर्चस्ववादी सत्ता पर जितना दबाव नैतिकता को दिखाने में हैं, उससे कहीं अधिक दबाव अनैतिकता को छुपाने में है । सत्य और मिथ्या तथा अफवाह के बीच एक झीना पर्दा है, जिससे दिखता सबकुछ साफ-साफ है पर कोई देखना नहीं चाहता क्योंकि सत्य अफवाह और मित्था के नीचे दब गया है । अधिकतर समय गाँवों में अफवाह एक आग की तरह फैलती है और सत्य को अपने लपेटे में लेकर जलाने में कामयाब भी हो जाती है, जितने मुँह उतनी कहानियाँ बनती चली जाती है ।
यह कहानी ग्रामीण परिवेश की विसंगतियों को प्रस्तुत करती है, जहाँ एक तरफ मनदेवी जैसे भोले-भाले लोग है, जो सीधे-सीधे कह आते हैं कि मैं तेरा पोल खोल दूँगी और दूसरी ओर मेंहदी और सुन्दरदास जैसे चालाक लोग, जिन्होंने अवैध संबंधों को छुपाने के लिए न केवल आपराधिक रास्ता चुनते हैं बल्कि क्रूरता की सारी हदें पार कर जाते हैं ।
मेरा व्यक्तिगत विचार है कि यदि यह कहानी मनदेवी के नज़रिए से लिखी गई होती तो इसकी संवेदना कुछ और होती, लेकिन इस कहानी को पत्रकार जल्पा के नज़रिए देखा गया है, जो आशा सहयोगिनी से कहानी सुनती है । इसलिए कथानक की बुनावट किसी किस्से को सुनने सुनाने जैसा है और प्रतीत होता है हम कहानी सुनते हुए सिंहर रहे हों । दूसरी बात की जल्पा मनदेवी की मनःस्थिति को समझते हुए घटनाओं पर केन्द्रित रहती है, वह मनदेवी की मन में प्रवेश कर घटना को समझने का प्रयास नहीं करती । लेखिका इस कहानी को परकाया प्रवेश से बचाते हुए बड़ी ही साफगोई से मूल कहानी पर ही ध्यान केन्द्रित रखती हैं और एक द्रष्टा के नज़रिए से प्रस्तुत करती हैं ।
इस कहानी में पात्र मेंहदी की कहानी शुरू होते ही उसके प्रति एक संवेदना जागृत होती है कि उसका पति परदेश कमाने गया है और इसकी इच्छाएँ, अपेक्षाएँ, संवेदनाएँ पति की वापसी तक प्रतीक्षारत् हैं, लेकिन जैसे ही सुन्दरदास का प्रसंग शुरू होता है और पंचायत के सदस्य तथा गाँव के अन्य सदस्यों तक आते आते मेंहदी के प्रति संवेदना घृणा में बदल जाती है और अंत में वह एक अपराधी बनकर रह जाती है । मनदेवी एक साधारण घरेलू महिला है, उसने अवैध संबंधों की सच्चाई जान ली है, उसे दंड देने के लिए उसके साथ ऐसा क्रूर अमानवीय व्यवहार उस पूरे वर्चस्ववादी सत्ता की संवेदनहीनता को दर्शाती है । ऐसा कहा जाता है कि सत्ता निरंकूश होती है । अपने अपराध को छुपाने की खातीर मनदेवी के साथ क्रूर अमानवीय व्यवहार करके उस गाँव की वर्चस्ववादी सत्ता निरंकूशता और क्रूरता की सारी हदें पार कर देती है । दलित महिला विधवा भाग्यवती हो अथवा भूरीदेवी अथवा वे खामोश महिलाएँ जो जल्पा से कुछ भी बताने से परहेज करती हैं, वे सभी विक्टिम हैं, लेकिन जमूदेवी जैसी महिलाएँ भी हैं जो लड़कर उसी समाज में अपना रास्ता बना लेती हैं, अपना अधिकार हासिल कर लेती हैं । यह ध्यान देने योग्य बात है कि यहाँ की ग्रामीण महिलाओं में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे अपराध के खिलाफ अपनी आवाज़ उठा सकें या किसी से सच्चाई बता सकें । अथवा वे सत्ता की मानसिकता में ढ़ल कर खामोश हो चुकी हैं अथवा उन्हें पता है कि बताने का कोई फायदा नहीं है । यहाँ पर एक पक्ष स्त्री-विमर्श का भी दिखाई देता है ।
लेकिन यहाँ विमर्श मात्र स्त्री के लिए नहीं है, यहाँ जाति का, आर्थिक आधार का, नैतिकता के प्रश्न का तथा मीडिया की भूमिका पर भी विमर्श खड़ा होता है, इन सबसे अधिक विमर्श खड़ा होता है मानवता का, और इस कहानी में मानवता हारती हुई दिखाई दे रही है । यह हार ही इस कहानी का सबसे बड़ा प्रश्न है ।
यह कहानी पत्रकार जल्पा के माध्यम से आगे बढ़ती है । लेखिका नीलम कुलश्रेष्ठ जी घर की चौखट लाँघ कर बाहर निकलने वाली नौकरीपेशा, व्यावसायी औरतों की कहानियाँ लिखती हैं । यहाँ पर इन्होंने पत्रकार को चुना है । यह कहानी मीडिया की भूमिका पर भी प्रश्न खड़ा करती हैं, जिसमें एक खास तरह की मीडिया है जो बिना रिसर्च किए न्यूज़ बनाकर छाप देती है तो दूसरे तरफ एक ऐसी भी मीडिया है जो कहानी के तह तक जाना चाहती है ‘स्टोरी बिहाइन्डअ स्टोरी’ की खोज करती है । यह कहानी पढ़ते समय मेन स्ट्रीम मीडिया और हाशिए की मीडिया दोनों की छवि दिमाग में उभरती है ।
इस कहानी की यही खास बात है कि इसे अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखते हुए भी यथार्थवाद की कसौटी पर देखा जा सकता है क्योंकि हमारे समाज की यह सच्चाई है । लेखिका ने कहानी का अंत नहीं बताया है, क्योंकि इस कहानी की पीड़ा और परिणाम अंतहीन है । आज के समय में ग्रामीण परिवेश पर लिखी जाने वाली ऐसी कहानियों को लोग पुराने समय की गाँव की कहानियाँ कह कर दरकिनार कर देते हैं, जो कि अत्यंत आश्चर्यजनक बात है । गाँव सिनेमा जगत में दिखाए गए गाँवों से अभी भी बहुत अलग है, वहाँ बादल के बरसने पर सज-सँवर कर कोई नाचता नहीं बल्कि खेतों की ओर भागते हैं कि उनकी रोपनी-सोहनी बाकी है, जल्द से जल्द निपटा लिया जाए । कोई दुर्घटना घटते ही पूरा गाँव एक हो जाता है और यदि किसी घर में कोई अपराध हो गया तो उस समय अपराध को छुपाने के लिए पूरा का पूरा गाँव एकवट कर उस अपराध को छिपाने में लग जाता है, जैसे कि छिपाना उनका कोई मिशन हो । ये सभी घटनाएँ अलग अलग रूपों में अब भी है । भारत में गाँव का विकास जितना समझाया जाता है अभी उतना हुआ नहीं है । शहरों में भी इस तरह के अपराध होते हैं पर पढ़े लिखे लोगों को कानूनी दाँव-पेंच मालूम होता है लेकिन गाँव में कानूनी-दाँव-पेंच बहुत कम काम करते हैं । गाँव की परिस्थितियाँ स्थितियों से बाहर निकलने का रास्ता बनाती हैं, न कि पूरी तरह से कानून । गाँव की यही बिडम्बना है और आर्त्तनाद भी ।
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डॉ. रेनू यादव
रिसर्च / फेकल्टी असोसिएट
भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय
यमुना एक्सप्रेस-वे,
ग्रेटर नोएडा – 201 312 (उ.प्र.)
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