Jivan ka Ganit - 12 in Hindi Fiction Stories by Seema Singh books and stories PDF | जीवन का गणित - भाग-12

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जीवन का गणित - भाग-12

भाग- 12


डिनर के बाद वॉक करने का अपना नियम वैभव अभी भी लगातार बनाए हुए था। लॉन में थोड़ी देर वॉक करने के बाद वैभव अपने रूम की ओर बढ़ गया। हालांकि ज्यादा थकान नहीं थी फिर भी कुछ और करने को नहीं था तो सोचा कमरे में जाकर लैपटॉप पर ही कुछ देखा जाए।

जब उसने अचानक दिल्ली जाने का प्रोग्राम बना लिया तब मोहित ने वैभव से कहा था, ‘खुशी हो या उदासी हो, सब आपके अपने भीतर होते हैं, जो आपके साथ चलते हैं। उनसे इनसान पीछा छुड़ा नहीं सकता वे मन के किसी कोने में छुपे रहते हैं जहां आपको पाते हैं आ घेरते हैं।’

मोहित की कही बात वैभव के दिमाग में रह रह कर घूम रही थी।

अब यह बात वैभव को बहुत अच्छी तरह समझ आ रही थी। अपने ख्यालों में खोया वैभव चलते हुए हॉल के बीच आकर रुक गया। घर में बेडरूम की सीढ़ियां हॉल में होकर गुजरती थी। वैभव धीरे धीरे सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर की मंजिल पर आया। ऊपर आकर बाईं ओर उसके पिता का बेडरूम और दाहिनी ओर उसका अपना बैडरूम था। आधी ही सीढ़ियों से म्यूजिक की हल्की हल्की आवाज़ आ रही थी। जिसपर उसका ध्यान थोड़ी देर से गया। आवाज़ पिता के कमरे से आ रही थी। यह उनका बैड टाइम म्यूजिक था जगजीत सिंह के स्वर में। जिसने वैभव का इरादा बदल दिया था,आयुषी के बात होने के कोई चांस नजर नहीं आ रहे थे। उसके कदम खुद ब खुद पिता के कमरे की बढ़ गए। हल्के से दरवाज़ा नॉक किया,राघवेंद्र को जैसे पता था कि वैभव ही होगा, "आ जाओ बेटा, दरवाज़ा खुला है।"

"आपको पता था मैं ही हूं?" मुस्कुराते हुए वैभव ने कमरे में प्रवेश किया और दरवाज़ा वापस चिपकाते हुए कहा।

"अभी अपनी बातें ही कहां हुई थी?" अपने लैपटॉप से नज़र उठाए बिना ही राघवेन्द्र ने कहा।

"मैं डिनर के बाद वॉक करने लगा हूं।" वैभव ने बताया तो राघवेंद्र ने लैपटॉप से सिर निकाल झांककर वैभव को देखा जो हमेशा की तरह उनकी टेबल के पास कर खड़ा था।

"तुम एक साल के थे तब हम गोवा गए थे वहीं की फोटो है।" राघवेन्द्र ने सैकड़ों बार की दोहराई हुई बात फिर से दोहरा दी थी।

"हांजी,आपने बताया है मुझे।"

वैभव फिर से उस फ़ोटो में खो गया। जिसमें आगे की ओर छोटा सा वैभव दोनों हाथों की मुठ्ठी में कसकर रेत भर कर बैठा है और उससे थोड़ा सा दूर पीछे अवंतिका, दरी पर बैठी हुई वैभव को देखकर खिलखिला कर हंस रही है। वैभव को यह तस्वीर बहुत प्यारी लगती है हमेशा उनके कमरे में आकर देखता है।

"बस दो मिनट का काम और है हटा रहा ही रहा हूं।" राघवेंद्र ने सरसरी नज़र से वैभव को देखा तो वह फ़ोटो देखना छोड़ आगे बढ़ कर इधर उधर देख रहा था। उसके हावभाव से पता चल रहा था कि वह ऊब रहा है।

"आप आराम से कर लीजिए मुझे कोई काम नहीं है, बस नींद नहीं आ रही थी और आपके जगजीत साहब ने भी खींच लिया।" वैभव ने म्यूजिक प्लेयर की ओर इशारा करते हुए कहा।

"मैं सिर्फ इन्ही को सुनता हूं आदत सी हो गई है।"राघवेंद्र ने सफाई सी पेश की। बेटे के साथ अपनी संगीत की पसंद बांटते हुए शायद उन्हें संकोच हो रहा था। पर वैभव तो बचपन से सुनता चला आ रहा था सो उसके लिए कुछ भी अलग था ही नहीं।

"मुझे भी आदत है डैड, आपके रूम से कोई और म्यूजिक सुनाई देगा तो मुझे भी अजीब लगेगा।" वैभव ने मुस्कुराते हुए कहा।

जगजीत सिंह गा रहे थे, ‘ये जो जिंदगी की किताब है ये किताब भी क्या किताब है…’ दोनों चुपचाप सुन रहे थे। वैभव के लिए भी अब गीतों के अर्थ बदलते जा रहे थे।

राघवेंद्र ने अपना काम खत्म कर लैपटॉप एक ओर सरका दिया था। वैभव थोड़ी देर कमरे टहलकर उनकी आराम कुर्सी पर आ बैठा था।

"कल का कुछ प्लान है क्या?" राघवेंद्र ने बेटे से पूछा।

" नहीं, सिर्फ आपके पास आया हूं। कोई प्लान नहीं।" वैभव ने सफाई दी। थोड़ी देर कमरे में सन्नाटा छा गया। फिर अगला गीत शुरू हो गया पहले हौले हौले तबले की थाप फिर म्यूजिक शुरू हुआ दिल और दिमाग को सुकून देना वाला। ‘तेरे आने की जब ख़बर महके… तेरी खुशबू से सारा घर महके…’ गीत के बोल शुरू होने के साथ ही राघवेन्द्र भी गुनगुनाने लगे। उन्हे यूं खुश देखना वैभव को अच्छा लगा रहा था।

"कल थोड़ी देर के लिए कहीं जाना है मुझे। तुम दोपहर में रेडी रहना,वहां से फ्री होकर कहीं चलेंगे।" कुछ पल चुप रहकर सोचते हुए राघवेन्द्र ने वैभव से कहा।

मन में कई सवाल उठे पर पिता को फिर से गुनगुनाते देख वैभव का कुछ कहने का मन नहीं हुआ। केवल स्वीकारोक्ति में सिर हिला दिया।

"अब आप रेस्ट कीजिए, सुबह मिलता हूं, गुड नाईट डैड!" बोलते हुए वैभव कुर्सी उठा और कमरे से बाहर जाने के लिए दरवाज़े की ओर बढ़ गया।

राघवेंद्र ने जैसे बात देर में सुनी हो उनका उत्तर भी देर से आया,"गुड नाईट सन!"

गीत फिर से बदल गया था, ‘तेरे बारे में जब सोचा नहीं था … मैं तन्हा था मगर इतना नहीं था..’ इस ग़ज़ल के बोल ने वैभव पर कुछ अलग ही असर डाला था,उसकी उदासी बढ़ गई थी। आयुषी की शरारती आंखें उसे रह रह कर याद आ रही थीं। हर वह बात जो रोज़ाना की आम सी बात लगती थी आज बड़ी शिद्दत से याद आ रही थी। कैसे वे दोनों सारा दिन साथ रहने के बहाने तलाश लेते हैं। वैभव ने मन ही मन तय किया अब जब भी आयुषी बनारस जाएगी तो वह भी जाएगा उसके साथ। आयुषी उसके लिए कितनी खास थी यह अहसास बढ़ता ही जा रहा था साथ यह सोच भी बढ़ती जा रही थी कि मां को उसके बारे में जल्दी से जल्दी बता देने का वक्त आ चुका है।

अपने रूम में आकर वैभव ने मोबाइल में स्पॉटीफाई ओपन कर जगजीत सिंह की वही प्ले लिस्ट तलाशी,जो डैड के कमरे में बज रही थी। कानों में इयर प्लग लगाकर बैड पर लेट गया। इस आशा में शायद उसे भी नींद आ जाए।

आयुषी के बिना रहना उसे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। इतनी मेहनत से ढूंढी प्ले लिस्ट में भी मन नहीं लगा तो उठकर बैठ गया। मोबाइल में अपनी और आयुषी की पिछले दिन की चैट पढ़ने लगा। आयुषी ने अपनी डीपी बदली थी। शादी में पहनने के लिए जो लहंगा लिया था वही पहना हुआ था। डीपी ओपन कर ज़ूम करके देखी, कभी आंखें ज़ूम करता तो कभी होंठ जिनपर ढेर सारी शरारत भरी मुस्कान थी।

"मुझसे दूर होकर ऐसे कैसे खुश हो सकती हो!" वैभव हौले से बुदबुदाया। अपना मोबाइल अपने सीने पर रख कर आंखें बंद कर ली जैसे फ़ोटो नहीं आयुषी को ही अपने दिल से लगा लिया हो।