Leela - 24 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | लीला - (भाग 24)

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लीला - (भाग 24)

वह इतनी डरी हुई थी कि उसने बरैया जी को भी पकड़ के रखा था। और उन्होंने एक ब्याधि लगा दी थी! उसे पार्टी के ज़िला महिला प्रकोष्ठ का प्रभारी बना दिया था, जबकि पार्टी की गतिविधियाँ ज़िले में लगभग शून्य थीं। ...जहाँ ठाकुर और ब्राह्मण जनसंख्या में लगभग आधे हों, वहाँ दलित पार्टी भला कैसे फलफूल सकती है! वैसे भी एकसौ दलितों पर एक राजपूत भारी पड़ता है। जो शुरू से ही दबे-कुचले हैं, उनमें कितनी भी हवा भरो, उठ नहीं पाते! बूथ केप्चरिंग की सारी घटनाएँ सवर्ण पार्टियों में ही रेवड़ी सी बँटी हुई हैं। पार्टी कमान ख़ुद सवर्ण उम्मीदवारों को टिकट देने पर विचार कर रही थी। लेकिन महिला प्रकोष्ठ में फँस जाने के कारण उसे पार्टी गतिविधियों में जोकर की तरह लगे रहना पड़ता...।
पार्टी नेताओं की वे ही घिसीपिटी बातें उसे गाँव-गाँव जाकर दोहरानी पड़तीं कि, ‘कांग्रेस ने हरदम बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की राहों में रोड़े अटकाए। नेहरू और उनका काकस नहीं चाहता था कि बाबा साहब संविधान सभा में पहुँचें। तब अंग्रेजों ने पूना के एक जयकर नामक ब्राह्मण से इस्तीफ़ा दिला कर बाबा साहब को लोकसभा में भिजवाया था!
...स्वर्गीय माननीय कांशीराम जी ने बाबा साहब के आंदोलन को आगे बढ़ाया और बहुजन समाज को सत्ता के नज़दीक तक ले गए।
...और बहुजन समाज का स्वाभिमान जागा तो आज इतिहास बदल रहा है। महज़ 20 साल पहले गठित की गई पार्टी उत्तरप्रदेश में तीन बार सत्ता सँभाल चुकी है। ...दिल्ली नगर निगम में भी हम तीसरी पार्टी के रूप में उभर चुके हैं।
बहन मायावती के नेतृत्व में पार्टी दिन दूनी, रात चैगुनी प्रगति कर रही है! ओपीनियन पोल और अन्य सर्वेक्षणों से स्पष्ट है कि हमारा वोट बैंक 29 फ़ीसदी तक पहुँच गया है...। आप लोग विश्वास करें कि बहुजन समाज अब जाग गया है और अब केन्द्रीय सत्ता भी पार्टी से दूर नहीं है!
...पर मध्यप्रदेश में हमारे सामने अभी चुनौती है...यहाँ पे संगठन को, समाज को जगाने की भारी ज़रूरत है। प्रत्येक कार्यकर्ता को संकल्प लेना चाहिए कि बहन मायावती को प्रधानमंत्री के पद पर पहुँचाना है। अवसर आ गया है कि आज हम कर्मचारियों के प्रमोशन और देश की न्यायपालिका में भी बहुजन समाज के लिये आरक्षण की माँग करें!’
तब ऐसे ही एक जिला स्तरीय ग्रामीण दौरे से वह तीन-चार दिन बाद घर लौटी तो पुराने अख़बारों में अचानक उसे अपना बहुप्रतीक्षित परीक्षा परिणाम मिल गया। आँखों में आँसू आ गए! क्योंकि, भारी विडम्बनाओं के बावजूद परीक्षा उसने द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली थी!
उत्साह में उसने पाँच किलो बूँदी के लड्डू मँगाकर पूरे मोहल्ले में बँटवा दिए। उसकी ज़िंदगी में यह एक बड़ा दिन था! ख़ुशी से बार-बार उसका गला भर आता। उसे अतिराज सिंह की क्रूरता से जुड़ा हुआ अपना निरीह बचपन याद आ रहा था...।
तब वह बमुश्किल नौ-दस बरस की रही होगी...। तीसरे-चैथे दर्जे में पढ़ने वाली अबोध बालिका। स्कूल का रास्ता कुँअर अतिराज सिंह की ड्योढ़ी से ग़ुज़रता था। और हरिजन टोला के जितने भी लोग वहाँ से ग़ुज़रते, उन्हें मुजरा बजाके ग़ुज़रते थे।
...उस दिन उसे स्कूल के लिये देर हो गई थी। इसलिए बस्ता और बुरिया दबाए भागी-भागी चली जा रही थी। इस झौंक में ख़्याल ही नहीं रहा कि कब कुँअर साब का द्वार निकल गया! वह उन्हें मुजरा किये बग़ैर ही शाला पहुँच गई...। पर वे तो हर राहगीर को दूर से ही देख लेते थे! ड्योढ़ी ऊँचे पर जो थी...इस डर से सब उन्हें मुजरा बजाकर ही निकलते थे। जैसे, सरकार ने जनता से उन्हें मुजरा लेने के लिये ही मुकर्रर कर दिया हो! सुबह से शाम तक उसी अड्डे पे बैठे हुक्का गुड़गुड़ाते रहते।
और अब तो उनकी नज़र ख़ास तौर पर उसी पर लगी थी। सो, अगले दिन वह आई और उसने झुक कर मुजरा बजाया, ‘दाऊ-सा ऽ!’ और भागने को हुई तो वे बुलंद स्वर में दहाड़े, ‘‘एऽ मोंड़ी! झाँ-आ पहलें ऽ!’’
उसे सचमुच देर हो रही थी। एक नए मास्साब आ गए थे, बिरादरी के ही...वे बड़ा मीठा बोलते। एक-एक बात दस-दस बार समझाते...। पुराने भूरी मूँछ वाले पंडिज्जी जहाँ नीम की हरी लौद धरे बैठे ओंघते रहते और जल्दी से छुट्टी बोलकर भाग जाते, वहीं नये वाले स्कूल के ही एक कमरे में रहते। अपनी रोटी ख़ुद बनाते! फिर भी समय बच जाता, सो कमज़ोर लड़कों को रात में लालटेन धर कर पढ़ा देते। ...वह उन्हीं के कारण नियमित जाने लगी थी। लग रहा था, पढ़-लिख कर कुछ बन जाएगी!
गली नीची थी, चबूतरा ऊँचा...। कल भूल गई थी मुजरा झुकाना...पेट में जाड़ा भर रहा था। दौड़कर निकल भागी, ‘‘दाऊ-सा! देर हे-जागी...’’
इतना कहाँ गवारा था...कोर्टमार्शल पक्का हो गया।
तीसरे दिन उनके एक गुर्गे ने हार में पकड़ लिया उसे!
‘‘काए-री!’’ मुँछाड़िया ने आँखें निकाल कर एकदम झपट्टा-सा मार छाती पकड़ ली थी। ...घिग्घी बँध गई। छातियाँ तब निकली नहीं थीं। आतताई को लगा कि जिस अपमान के लिये हाथ मारा, वह तो हुआ ही नहीं...सो, मिसमिसाकर खाल नोंच ली। फिर टेंटुआ पकड़ जंगली भैंसे-सा गुर्राया, ‘‘अब निकरिये कभऊँ बिना मुंजरा झुकाएँ...गाँड़ में भुस भर देंगो! जान गई?’’
बेतरह सेंप गई वह। न रोई, न चिल्लाई, न भाग सकी...। और जब वह चला गया लट्ठ फटकारता हुआ तब देर बाद जैसे नीम बेहोशी में घर लौटी। दहशत ने नींद में धकेल दिया था सो, दो-चार कौर तोड़ खटिया पकड़ ली। फिर आधी रात के बाद भोजाई बाखर में पेशाब को आई तो उससे चिपट बुक्का फाड़कर रोने लगी...।
अम्मां तो पहले ही मर गई-तीं। भौजी ने दादा और बापू से कही होगी! उन्होंने स्कूल छुड़ा दिया...।
प्रकाश उसे खोया-खोया सा देखकर पूछना चाह रहा था कि अभी और पढ़ोंगी?’ और उसके मन में फिर एक नया संकल्प उभर रहा था...अगली बार पत्राचार पाठ्यक्रम से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने की सोच रही थी। उसे अपनी बुद्धि पर भरोसा हो गया था।
(क्रमश:)