Mamta ki Pariksha - 22 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 22

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ममता की परीक्षा - 22

ममता की परीक्षा ( भाग - 22 )

कुछ देर बाद तीनों शहर में एक चौराहे के नजदीक एक रेस्टोरेंट में बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे। चाय की चुस्कियों के बीच ही साधना ने अपने बारे में पूरी बात गोपाल को बता दी थी।

उसके पिता श्री किशुनलाल एक शिक्षक हैं। वह सुजानपुर गाँव में रहते हैं। ग्रामीण परिवेश में रहने के बावजूद वह प्रगतिशील विचारों वाले इंसान हैं। उनके विचार उनकी बातों तक ही सिमित नहीं बल्कि उनके विचार उनके आचरण में भी झलकते हैं। उनकी नजर में बेटी या बेटे में कोई फर्क नहीं है तभी तो उन्होंने अपनी इकलौती कन्या साधना को हर वो आजादी दी है जो किसी लडके को प्राप्त होती है। उनका मानना है कि मेरी बेटी ही पढ़लिखकर अपने कामों से मेरा नाम रोशन करेगी। तभी तो उन्हें उसपर इतना भरोसा है कि कॉलेज की पढ़ाई के लिये उसे शहर में अकेले रहने के लिए भेज दिया है। वह अहिल्याबाई महिला छात्रावास में रहकर कॉलेज में पढ़ती है जो कि छात्रावास से लगभग पाँच किलोमीटर दूर है, लेकिन बस सुविधा उपलब्ध होने की वजह से उसे कॉलेज जाने आने में कोई दिक्कत नहीं थी।

इतने महीनों बाद गोपाल आज साधना का पूरा परिचय जान सका था। उसे यह भी जानकर ख़ुशी हुई कि वह अहिल्याबाई महिला छात्रावास में ही रहती थी। यह छात्रावास उसके बंगले से काफी करीब था और उसके कॉलेज जाने के रास्ते में भी था।

कॉलेज के गेट के पास से निकलते हुए साधना ने गोपाल को अस्पताल चलने के लिए कहा लेकिन उसने मुस्कुरा कर ना कह दिया।

"इतनी चोट तो कुछ भी नहीं साधना ! ..और फिर तुम्हारे प्यार का मरहम जो लग गया है अब इन घावों पर !" उसकी यह बात सुनकर भी वह खामोश रह गई थी।

चाय की चुस्कियां भरते हुए वह सोच रही थी 'क्यों खामोश रह गई थी मैं ? क्या सचमुच मुझे उससे प्यार हो गया है ? नहीं ! ...तो फिर उसकी बात का प्रतिरोध क्यों नहीं किया ?'
तभी उसके मन के किसी कोने से आवाज आई 'तू उसे प्यार नहीं करती तो न सही। वह तुझे प्यार करता है, क्या इतना काफी नहीं ? पढ़ालिखा है, सुन्दर है, रईस है और सबसे ऊपर तुझे प्यार करनेवाला है। अगर यह तुझे पसंद नहीं तो क्या पिताजी इससे योग्य जीवनसाथी का चुनाव कर सकते हैं तेरे लिए ?... कदापि नहीं ! यहाँ तो सब समाज के ठेकेदार अपने अपने लड़कों के लिए भारी दहेज़ की लिस्ट बनाये बैठे रहते हैं कि कब कोई लड़की का बाप आये और उन्हें उसे नोंचने का अवसर प्रदान करे, उनको पूरी तरह निचोड़ ले। तेरे लिख पढ़ लेने पर भी तो बाबूजी की मुसीबत कम नहीं होनेवाली। फिर ऐसे में अगर तुझे मुफ्त में अच्छा घर वर मिल रहा है तो फिर तुझे क्या आपत्ति है ? अरे अभी प्यार नहीं हुआ तो क्या हुआ ? होते होते प्यार भी हो ही जायेगा ...!' सोचते हुए चाय की चुस्कियों के बीच ही उसके होठों पर मुस्कान और गालों पर लाज की लाली बढ गई।

उसकी मुस्कान पर ध्यान देते हुए गोपाल ने भी शरारत की, "क्या बात है ? क्या सोच रही हो ?"

उसकी शरारत को समझते हुए साधना हँस पड़ी, " कुछ भी नहीं ! चाय बहुत अच्छी बनी है। सोच रही थी, बनानेवाले ने कैसे बनाई होगी ?"

"अच्छा ! ..और मैं तो कुदरत की वह बेमिसाल कारीगरी देख रहा था और सोच रहा था कि बनानेवाले ने तुम्हें कितनी फुर्सत से बनाया होगा।" गोपाल भी मुस्कुरा दिया।

उसकी बात सुनते ही साधना शर्माते हुए झेंप गई और "धत्त !" कहकर अपना चेहरा दूसरी तरफ घूमा लिया।
अब तक चाय ख़त्म हो गई थी।

कुछ देर बाद बाद गोपाल ने साधना को छात्रावास के नजदीक तक अपनी कार से छोड़ा और आगे बढ़ गया अपने बंगले की तरफ।

उस दिन के बाद से साधना उनके लिए अंजान नहीं रह गई थी। अक्सर गोपाल और जमना अपनी कार से छात्रावास के गेट के नजदीक पहले से आकर रुके रहते और साधना के छात्रावास से बाहर कदम रखते ही इनकी गाड़ी उसके सामने आकर खड़ी हो जाती। मुस्कुराते हुए साधना कार का पिछला दरवाजा खोलकर आराम से कार में बैठ जाती और कॉलेज के गेट से पहले ही उतर जाती। इसके पीछे वजह थी कि वह कॉलेज में चर्चा का विषय नहीं बनना चाहती थी।

लेकिन इश्क कहाँ किसी के छिपाये छिपता है। सैकड़ों साल पहले रहीम जी ने अपने दोहे में यही बात कही है
'खैर खून खाँसी ख़ुशी, बैर प्रीति मदपान ।
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान ।।

उनके लाख छिपाने व भरपूर प्रयासों के बावजूद गोपाल और साधना के मूक प्रेम की चर्चा कॉलेज प्रांगण में दबी जुबान से शुरू हो गई थी।
जबकि धीरे धीरे साधना ने भी गोपाल के साथ को अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिया था, लेकिन शालीनता व संस्कार को हमेशा ही तरजीह दी थी उसने। गोपाल ने भी कभी कोई अनुचित हरकत नहीं की थी अभी तक। जमनादास उनकी मित्रता व प्यार का सबसे बड़ा राजदार था। जब गोपाल को किसी कारणवश कभी देर भी हो जाती तो साधना छात्रावास के गेट से आगे जाकर सड़क किनारे खड़ी होकर उनका इंतजार करती। इसी तरह कभी कभी जब गोपाल की क्लास नहीं होती तो भी वह कॉलेज जाने के बहाने घर से कार लेकर आता और साधना को कॉलेज के गेट तक छोड़ता और फिर ठीक समय पर उसे लेने भी आ जाता।

इसी तरह पल मिनटों में, मिनट घंटों में, घंटे दिनों में, दिन सप्ताह में और सप्ताह महीनों में बदल गए।
एक एक कर चार महीने बीत गए उनकी मित्रता को। वार्षिक परीक्षा का आज अंतिम पेपर था। आज गोपाल ने साधना से अपनी सबसे अच्छी ड्रेस पहनकर आने के लिये कहा था। साधना ने इसकी वजह भी नहीं पूछी थी और उसकी इच्छा के मुताबिक आज वह अपना सबसे प्यारा सूट पहनकर आई थी। बला की खूबसूरत लग रही थी वह इस सूट में, बिल्कुल स्वर्ग से उतरी किसी अप्सरा के समान। शुभ्र धवल रंग के सूट पर उसी से मैच करता हुआ दुपट्टा जिसे उसने बड़ी शालीनता से अपने सीने पर सजा रखा था उसकी सुंदरता में चार चाँद लगा रहे थे।
सुन्दर गोल चेहरे पर कजरारी आँखों के बीच माथे पर एक छोटी सी बिंदी उसके माथे की शोभा बढ़ा रही थी। सादगी की मूरत सी नजर आ रही थी वह। आज अंतिम पेपर देने के बाद वह कॉलेज के गेट से हटकर थोड़ी दूर जाकर एक पेड़ की छाँव में खड़ी होकर गोपाल का इंतजार करने लगी।

उसे ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। कुछ ही मिनटों में गोपाल और जमना अपनी कार से आते हुए दिखे। कार गोपाल ही चला रहा था। हमेशा की तरह साधना कार की पिछली सीट पर बैठ गई। उसके बैठते ही कार चल पड़ी।

कार के चलते ही साधना का जी तो चाह रहा था कि वह गोपाल से पूछ ले कि उसने उसे अपनी सबसे अच्छी ड्रेस पहनकर आने के लिए क्यों कहा था लेकिन संकोचवश कुछ पूछ नहीं सकी। कार सामान्य गति से चलती रही। अहिल्या बाई महिला छात्रावास का प्रवेश द्वार पीछे छूटता देखकर साधना कसमसाई, "गोपाल ! कहाँ लेकर जा रहे हो मुझे ? छात्रावास तो पीछे रह गया !"

गोपाल मुस्कुराया, "अग्रवाल इंडस्ट्रीज़ की होनेवाली मालकिन ऐसी घटिया जगह पर रहे ये हमें गवारा नहीं डार्लिंग !.. अब हमारी पढ़ाई पूरी हो गई है। हमें शादी कर लेनी चाहिए, इसीलिए मैं आज तुम्हें अपनी माताजी से मिलवाने के लिए अपने घर लेकर चल रहा हूँ।"

क्रमशः