लीला चमार...उनके तो हज़ार टुकड़ा होंगे किसी दिन! याद करो, बेताल की बहू के कैसे कुचला भए-ते!
और यह अजान भी जानता था कि रज्जू की नज़र लीला पर है! वो उसे काँटा समझता है। अगर किसी तरह हटा दे, तो राजीबाजी न सही, जबरन ही सही...उसे तो वह हथिया ही लेगा! ...उसे अपने प्राणों का संकट दिख रहा था। उसके पास हथियार भी न था। दो-चार बार मुँहबाद भी हो चुका है, क्योंकि बिजली की लाइन उसी साइड थी। धर्मशाला की छत से लगा है खंभा। ऐसी भीषण गरमी में गुण्डे आएदिन तार हटा देते हैं...।
उपद्रव इतने बढ़ते जा रहे थे कि वे सड़क छिड़कते-छिड़कते पानी की नली खिड़की या रोशनदान की तरफ़ कर देते! कमरों के भीतर तक का सामान भीग जाता। ...एक दिन तो किताबें गीली हो गईं। एक दिन पंखा पुँ$क गया।
कहाँ तक सहन करें! कुछ कहो तो मुँहबाद होता! निशाने पर वही था, अजान!
और उस रात, जब मोहल्ले के लोग गर्म छतों पर करवटें बदल रहे थे। नौतपा तप रहा था, सो पंखे धुआँ उगल रहे थे और कूलर भाप! नींद हा-हा खाने पर भी नहीं आ रही थी। रात के कोई डेढ़-दो बजे होंगे...कालोनी के आख़िरी क्वार्टर पर दनादन दो फ़ायर हुए! अजान मँुड़ेर फाँदकर धोबी के घर में कूद गया। वहाँ से तेली के घर में। और फिर पिछवाड़े की गली में कूदकर रात के सन्नाटे को अपनी भयानक पगध्वनि से चीरता अनवरत् दौड़ता ही चला गया...। उसी के समानांतर मुख्य सड़क पर उसे ललकारते हुए गुण्डे दौड़ रहे थे। मोहल्ला दहशत से थर-थर काँप रहा था। बाहर लेटने वाले लोग अपनी चारपाइयों और मवेशियों को छोड़ प्राण हथेली पर धर भीतर भाग गए थे। छतों पर के लोग मँुड़ेलों के पीछे दुबक गए, जैसे, निशाने पर वे ही थे!
रज्जू ने अपने पचफेहरा से फ़ायर धर्मशाला की छत से किया था। वह चाहता तो अजान को छलनी कर सकता था। पर वह तो उसे डराना चाहता था। पहली गोली सायँ से उसकी कनपटी के बग़ल से निकाली थी। सुबह ही ताज़ा मुँहबाद हुआ था। ...चेलों ने खिड़की पर रंग फेंक दिया था। लीला अख़बार पढ़ रही थी, बुरी तरह छिटक गई। अजान फनफना कर बाहर निकला, तब तक वे धर्मशाला में घुस गए। तैश में वह गालियाँ बकने लगा। इतने में रज्जू जिम से लौट आया! उस वक़्त वह खिलाड़ियों वाली बनियान-निक्कर में था। नियमित अभ्यास से देह चमक रही थी उसकी। मोटी आवाज़ में बोला, ‘‘ऊँट आज सवेरेई से क्यों बलबला रहा है?’’
अजान और भी तैश खा गया, पर ज़बान सँभाल कर बोला, ‘‘नाक में दम कर रखा है...’’
‘‘किसने...?’’
‘‘गुण्डों नेऽ!’’ वह आवेश में बक गया।
‘‘शरीफ के चोदेऽ!’’ रज्जू दाँत मिसमिसाकर आगे बढ़ आया।
बात बढ़ती जान लीला देहरी पर निकल आई, ‘‘हम तो बदनामई हैं भाईसाब, पर आप लोग तो थोड़ो ख़्याल करो...देखो हमाई तरफ़,’’ उसने अपनी पीठ और बग़ली दिखलाई, ‘‘जे कोई भलमनसात-ए! इन लोगन की भी तो बहनें-बिटियाँ होंगी...’’
इस पर रज्जू के बग़ल में खड़े छुन्ना ने धीरे से कहा, ‘‘गुण्डरी कहीं की ऽ!’’ जिसे अजान ने सुन लिया। वह आपे से बाहर हो गया, ‘‘देखो, मान जाओ, नईं तो कोई बड़ो नाटक हे-जागो...।’’
उसका मुँह लाल पड़ गया था। हँफनी छूट गई थी। लीला पायदान से सड़क पर कूदकर उसे अंदर पकड़ ले गई...। दिनभर बाहर नहीं निकलने दिया। लेकिन रात को वह जैसे ही छत पर चढ़ा कि हमला हो गया!
वारदात से लीला इतनी सहम गई कि अगले दिन उसने दोपहर तक दरवाज़ा न खोला। इस बीच उसने उम्मीद लगाई हुई थी कि अजान पुलिस को लेकर आ जाएगा! नहीं तो घटना की ख़बर मिलते ही पुलिस ख़ुद आ जाएगी! बंदूक की आवाज़ तो बहुत ख़ौफ़नाक थी! चर्चा आग की तरह फैल गई होगी नगर में...। पर अजान की तो हिम्मत बिगड़ गई थी...जान है तो जहान है! जिंदा ही नहीं रहेगा तो प्रेम कहाँ टिकेगा! गुण्डों का जाल तो ऊपर तक पुरा है! इनसे पार नहीं पा सकता वो। अगर आज उसके पक्ष में जातीय संगठन होता तो ये नौबत नहीं आती। इन जैसे सैकड़ों रज्जू पड़े हैं अहीरों में। ...पर एक चमार के लिये वे अपना ख़ून क्यों बहाएँ!
उसने कछुए की तरह अपने हाथ-पाँव सिकोड़ लिये।
और पुलिस तो, ऊपर से डण्डा ना पड़े तो मर्डर के बाद भी नहीं आती!
दोपहर तक सारे कयासों पर पानी फिर गया। तब उसने दूसरे विकल्प खोजे, जैसे, फोन करके मनोज को बुला ले...या दिल्ली वाले फूफा को ले आए, वे पार्टियों को चंदा देते रहते हैं! नहीं तो बरैया जी को बता दे जाकर...वे तो दलितों के ही नेता हैं, कहीं भी घटना होती है, हाल पहुँच जाते हैं।
और इधर पाँड़ेजी की ही तरह मोहल्ले में एक अकड़खाँ डोकर और थे, नंगे मास्टर! जो किसी से दबे नहीं थे...और वे पाँड़ेजी के काट भी थे! अपनी हेंकड़ी के दम पर ही वे इस मोहल्ले में टिके हुए हैं, नहीं तो अब तक कौवे उनके हाड़ बीन ले जाते! जवानी के दिनों में तो उन्होंने पाँड़ेजी को भी हाकियों से सूँटा था! जब उन्होंने सुना कि गोली लीला के क्वार्टर पर चली है और वो तब से भीतर बंद है, तो वे ख़ुद नंगे पाँव चलकर उस तरफ़ आ गए और दरवाज़ा खटखटाने लगे...।
लीला ने खिड़की से देखकर गेट खोल दिया।
उन्होंने पूछा, ‘‘क्या घटना घटी?’’
उसे थोड़ा बल मिला, उसने कहा, ‘‘भीतर आ जाइये!’’
वे बैठक वाले कमरे में आकर कुरसी पर बैठ गए।
लीला बोली, ‘‘क्या बताएँ, मास्साब! गुण्डों ने तो जीना हराम कर रखा है...कभी चिट्ठी फेंकते हैं, कभी पत्थर और पानी... कल तो स्याही की बोतल ही फेंक दी। इस पर थोड़ा मुँहबाद हो गया तो रात को बंदूक चला दी!’’ उसका श्वास उखड़ गया।
नंगे ने कहा, ‘‘तुम थाने चल सकती हो?’’ बुढापे के कारण बात करते उनके कानों की लौरियाँ हिलती थीं।
लीला ने एक क्षण सोचा, बोली, ‘‘और दूसरा क्या उपाय है...अब तो पानी मूँड़ से ऊपर है!’’
‘‘ठीक है, हम कपड़ा पेहरि आएँ!’’
‘‘हओ!’’ उसने हामी भरली और दरवाज़ा बंद कर ख़ुद भी तैयार होने लगी।
(क्रमशः)