YUDHISHTHIR KA DHARM - 1 in Hindi Spiritual Stories by SANJIV PODDAR books and stories PDF | युधिष्ठिर का धर्म – १

Featured Books
Categories
Share

युधिष्ठिर का धर्म – १

 

" क्यों की मुझे दुर्योधन के धर्म की नहीं अपने धर्म की रक्षा करनी है "

 

धृत क्रीड़ा में दुर्योधन और शकुनि के छल से पराजित होने के बाद जब धर्मराज अपने भाइयों के साथ वनवास में धौम्य ऋषि के आश्रम में थे, तब एक दिन अपने प्रवचन के बाद ऋषि ने धर्मराज से पूछा की धृत क्रीड़ा में छल पूर्वक हारने के पश्चात धर्मराज ने अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए वही कुरु राज सभा में अपने और भाइयों के बल और पराक्रम का प्रदर्शन क्यों नहीं किया, और क्यों वन जाने की शर्त मानी?

 

धर्मराज ने कहा की जो दुर्योधन और शकुनि कर रहे थे वह धर्म नहीं था, धर्मराज का धर्म था की उन्हें कुरुराज धृतराष्ट्र की आज्ञा का पालन करना , पिता पाण्डु की मृत्यु के पश्चात पितृव्य धृतराष्ट्र ही उनके पिता थे, अतः पिता की आज्ञा का उलंघन अधर्म है।

 

 

हमारे साथ अक्सर ऐसा होता है जब हम दुविधा में होते है कि - हमारा धर्म क्या है / हमारा कर्म क्या है / या हम जो कर रहें हैं या करने जा रहे है सही है या नहीं ?

यदि हम धर्मराज के दृष्टिकोण से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने , जीवन के सकारात्मक आदर्शो को सर्वोपरि माना है।  युधिष्ठिर के सभी चारो भाई ज्ञान/ बल/ पराक्रम/ निति आदि में कौरवों से कही श्रेष्ट थे।  वे  पांच भाइयों वहीँ राजसभा में ही युद्ध कर १०० कौरवों को परास्त कर सकते थे , मगर धर्मराज ने अपने धर्म को सर्वोपरि माना और अपने समस्त अधिकारों को त्यागते हुए विधाता के निर्णय को स्वीकार किया।

 

अक्सर ऐसी परिस्थिति में हम उत्तेजित होकर कोई ना कोई विनाशकारी निर्णय ले लेते है, जो भविष्य में हमारे लिए  पश्चाताप या पराजय का कारन बनता है।

 

ऐसे में हमें करना क्या है ?

क्या धर्मराज जैसे पराजय स्वीकार कर ले?

 

 

 

"मुझे धर्म के साथ अपने स्वाभिमान की भी रक्षा करनी है "

 

ऋषि धौम्य ने फिर पूछा की १२ वर्ष के वनवास और १ वर्ष के अज्ञातवास के बाद फिर यदि धृतराष्ट्र ने फिर धृत क्रीड़ा का आमंत्रण दिया तो क्या धर्मराज फिर सब कुछ हार कर स्वयं ,अपने भाइयों और उनकी सन्तानो को उनके अधिकार से वंचित करेंगे?

 

तब धर्मराज ने कहा की क्षत्रिय धर्म यह भी है की वह अपने और अपने आश्रितों के अधिकार के लिए शस्त्र उठाए और आवश्यक हुआ तो युद्ध करे। 

 

सर्व विदित है की १३ वर्षो के वनवास के बाद जब धर्मराज और उनके भाइयों को उनका वांछित नहीं मिला तो कुरुक्षेत्र में धर्मयुध हुआ ……………………………

 

 

धर्मराज के पहले कथन को यदि उनके दूसरे कथन के साथ देखे तो , यह स्पष्ट होता है कि , धर्मराज उत्तेजित होकर कोई निर्णय नहीं लेना चाहते थे , और वे कुरुराज श्रेष्ठो, पितामह / गुरु द्रोण आदि को शांति और सम्मान का अवसर देना चाहते थे।  युद्ध तो निश्चित था , मगर युद्ध के कारक स्वयं या अपने भाइयों को नहीं बनाना चाहते थे।

 

अब हम अपनी वर्तमान में घट रही परिस्थितियों या, पूर्व में क्षणिक आवेश में लिए गए निर्णयों कि समीक्षा करे तो पाएंगे कि यदि हमने भी धर्मराज जैसा धैर्य दिखाया होता तो हमारा भी निर्णय सही होता।

 

विधाता एवं प्रकृति हमें अवसर देती है , यह हम पर निर्भर करता है हम अपने विवेक का प्रयोग कैसे करे।