Leela - 12 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | लीला - (भाग-12)

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लीला - (भाग-12)

वह सनाका खा गई। अब तो रेप की नौबत है! अब तो दोनों ओर से घिर गई...? दिल डर से फटा जा रहा था। हाथ कोई हथियार भी न था, न चलाना आता उसे! कुत्ते चहुँओर भौंक रहे थे...। और वह थर-थर काँपती बीच की दीवार से चिपकी खड़ी थी। उसे देख के जाना जा सकता था कि स्त्री मौत से भी ज़्यादा रेप से डरती है। लेकिन कुत्तों का शुक्र कि वे शराबियों पर भारी पड़ गए! और जब वे बक-झक कर चले गए और कुत्तों की आवाज़ें भी दूर निकल गईं तो वह जहाँ खड़ी थी वहीं बैठ गई। फिर जैसे-तैसे सुबह हुई तो ताला लगाकर माइके चली गई।
...उधर से लौटी आठ-दस दिन बाद। अकेली नहीं, प्रकाश को साथ लेकर।
लोग कहने लगे, ‘खसम कर ल्याई!’
इन अश्लील और अपमानजनक टिप्पणियों पर पहले तो उसका दिमाग़ बहुत ख़राब हुआ, सोचा, इससे तो अच्छा गाँव में ही मरूँ-खपूँ जाकर...वहाँ भय्या-बिरादरी तो है! कोई हीर-पीर का तो है...। पर हाथी के दाँत जो बाहर निकले, वे फिर भीतर कहाँ होते? अपने अस्तित्व के लिये उसे यहीं रहकर संघर्ष करना होगा...। वह सुट्ट साध गई। बीती घटना का किसी से स्वप्न में भी जिक्र न करती। उसका ख़्याल था कि इससे लोगों को और शह मिलेगी...। और वो रिपोर्ट करती तो गुण्डे तो ख़ैर, क्या पकड़े जाते...पड़ोसी से और बिगड़ जाती।
कालोनी में उसका क्वार्टर आख़िरी था। उसकी बग़ल से पुराना मोहल्ला शुरू होता था और उसकी दीवार से जो घर लगा था, वह एक धोबी का था। सामने पुरानी धर्मशाला के कमरों में वे ही शैतान बसते थे, जिनका कोई घर-द्वार न था, जो सिर्फ गंदगी फैलाने के लिये जन्मे थे...। उसे किसी से सपोर्ट की उम्मीद होती तो अपनी बात कहती! इसलिए उसने तय कर लिया था कि, भाई को साथ रखूँगी। इसे कोई काम-धंधा डलवा दूँगी। या कोई छोटी-मोटी नौकरी लग जाय स्यात्!
लेकिन भाई के आ जाने के बावजूद ऊधम थमा नहीं। अब उसके दरवाज़े पर न सही, कभी क्वार्टर के इस नुक्कड़ पर, तो कभी उस पर गुण्डों की सभा जुड़ने लगी।
इनमें मोहल्ले के ठलुए और किरायेदार पढ़ौवा लड़के ही नहीं, धर्मशाला के कमरों में स्थाई बसने वाले सट्टेब़ाज, शराबी और जुएब़ाज भी शामिल होते। ...बेचारे भाई-बहन दिन भर क्वार्टर के भीतर घुसे रहते! जीना मुहाल हो रहा था। रिपोर्ट भी करें तो किस बात की और किस-किस की करें? और रिपोर्ट के बाद तो और भी मुसीबत बढ़ जाएगी...पुलिस भी घर देख लेगी!
अजान के पिता की बीमारी ने लंबा समय खींच लिया था। ...उन दिनों में कभी उसके दरवाज़े पर कटा हुआ नींबू रखा मिलता, तो कभी गरी का गोला! कभी खिड़की और दरवाज़े की संधि से अश्लील पत्र डाल दिए जाते। जिनकी लिखावट साफ न होती पर मंतव्य हर खत का वही होता जिसे पढ़ने में उसे शर्म लगती। तिलमिलाहट छूटती।
इस बात से शुरू-शुरू में तो उसे धक्का-सा लगता था...कि ये वही हमला है जो सीमा पर होता है, एक देश के अस्तित्व पर! और जिसकी ख़ातिर कितनी ख़ून की नदियाँ बह जाती हैं...बैठी रह जाती हैं उस जैसी हज़ारों राँड़ें जिन्हें चींथने के लिये वे ही कुत्ते आ जाते हैं जो देश कहे जाते हैं!
फिर धीरे-धीरे सहनशक्ति बढ़ गई, शायद! जो वह झाडू लगाते-लगाते मकड़ी के जाले की तरह उन्हें तहस-नहस कर डालती।

पिता से निबटकर अजान जब आया तो लीला को तो लगा कि फागुन फिर से लौट आया है। पर इन नई विपत्तियों का मुक़ाबला कर अजान का दिल समूचा बैठ गया था। मोहल्ले की हरकतों से तो वो आहत् हुआ ही, इस भीषण परिस्थिति से भी ख़ासा परेशान हो उठा कि प्रकाश अब यहीं रहेगा! वे कोई वैध मियाँ-बीवी तो थे नहीं जो अपने सोने की व्यवस्था बेडरूम में बनाकर उसे बैठक या स्टडी में शिफ्ट कर देते! और कर भी देते बेशर्मी से तो बीच का दरवाज़ा किस मुँह से बंद करते! वह रात में टट्टी-पेशाब के लिये भी उठ सकता था! क्योंकि, बेडरूम के बाद ही आँगन था जिसमें किचेन, बाथरूम-टायलेट जैसी संरचनाएँ थीं। गरज यह कि उनका चैन छिन गया, निश्चिंतता छिन गई और साथ सोने का वह ख़्वाब छिन गया, जिसके लिये इतने पापड़ बेले थे! यह तक़दीर का ही खेल था कि वे अब भी वैसे ही प्यासे बादल बने मँडरा रहे थे एक-दूसरे के पीछे, जैसे कि पहले मँडराते थे।
हारकर अजान ने एक दिन मुँहफोड़ कर कहा कि ‘इसे चलता करो!’
पर लीला ने सोचा कि, पहले तो कहना शोभा नहीं देगा कि लल्लू अब लौट जाओ! और कह भी दूँ, तो तुम्हारा क्या ठिकाना, बड़ा परिवार...आगे कोई और भी इमरजेंसी हो सकती है!’
दाँती फँस गई थी अजान सिंह के लिये! चिंतित रहने लगा वह।
लीला भी कहाँ ख़ुश रहती! न पढ़ाई में मन लगता।
और प्रकसा ऐसा छाती का पथरा कि उन्हें एक पल को भी छोड़कर कहीं जाता नहीं! मजबूरी ये कि शहर में और कोई अड्डा भी न था उसका! एक-दो बार अजान ने पैसे भी दिये, कहा, ‘‘जाओ, कोई फ़िल्म देख आओ!’’ पर वह बुद्धू बना हँसता रहा! कहता, ‘‘आप लोग चलें तो चलें, अकेले क्या...?’’
अजान का दिमाग़ ख़राब रहता। बात-बात में खीजता।
और लीला की मुसीबत ये कि उसे दोनों की ज़रूरत!
पच-पच कर उसे हफ़्ते भर में एक उपाय सूझा! भाई दाएँ-बाएँ हुआ तो उसने अजान से कहा, ‘‘चलो...आज टाकीज में अपुन सिनेमा देखने चलें!’’
‘‘पूँछ तो संग जुरी है।’’ वह रूठा-सा बोला।
‘‘हमारा लेडिज क्लास का टिकट कटा देना-तुम!’’ लीला धड़कते दिल से मुस्कराई।
‘‘तईं का फायदा?’’
‘‘बताएँ!’’ कहकर वह उसके कान से लग गई। तब स्कीम समझ में आते ही अजान का दिल बाल-सा उछलने लगा। शाम बहुत दूर लगने लगी उसे। लग रहा था, शाम आज होगी नहीं! और हो भी तो शाम होने तक क्या पता कौनसा विघन आ जाय? पहले जब खेत पर मिली तो सीमा से लाल सिंह आ गया उड़कर...फिर जब बग़िया में पहुँचे तो गोपी और बल्ले...और मढ़ा की ओर चले तो डोकरी बड़बड़ाने लगी। अब तक हिल्ला नहीं पड़ा था। कभी किसी ने ठेंग मारी, कभी किसी ने! हृदय धीर नहीं धर पा रहा था। समय से पहले ही तैयार हो गया। सिनेमा के नाम पर आज प्रकाश भी उत्साहित दीखता था! पर लीला का उत्साह अजान के पीछे लगा था...।

(क्रमशः)