वे शार्टकट से निकल रहे थे, इसलिए आमों की बग़िया रास्ते में पड़ी। जेठ मास में सूरज आँख खोलते ही अंगार गिरा उठता है। पसीने से लथपथ अजान ने कहा, ‘‘दो घड़ी विलमा कर फिर चलते हैं। पानी-वानी पी लें!’’ मनोज उसके पीछे ही था, मुड़ लिया बग़िया की तरफ़। वहाँ वे तख़्त पर आकर बैठ गए और बाक़ायदा सुस्ताने लगे...।
‘‘बड़ी प्यारी जगह है!’’ थोड़ी देर बाद मनोज ने अपना ख़याल ज़ाहिर किया।
‘‘जगह क्या, स्वर्ग कहो!’’ अजान बोला। आगे मन ही मन कहा उसने, गोपी-बल्ले न आ जाते तो उस दिन यहीं पे सेज़ सज गई होती तुमाई जिजी की!’
मनोज मुस्कराता रहा...। उसे क्या पता कि वह क्या सोच रहा है? थोड़ी देर पसीना सुखा कर उन्होंने उठ कर पानी पिया। तब तक वहाँ नेहनू खंजरिहा भी आ गया। अजान ने कहा, ‘‘नेहनू, नखलऊ के साब कों एकाद बढ़िया-सी चीज़ सुनाइ देउ...।’’ इस पर वह पहले तो झिझका, ‘‘अरे-साब, ऐसे कहाँ के नामी गवैया हैं अपुन...’’ फिर होंठ चियार कर बोला, ‘‘तो एक पद सुन लेउ साब!’’
‘‘सुनाओ-भई!’’ मनोज ने आदर से कहा। नेहनू स्वर बाँधकर गाने लगा,
‘‘मनुआँ तेंनें बरन बनाए...
झूटमूट का गढ़ा मदरसा तामें पाठ पढ़ाए,
मनुआँ तेंनें बरन बनाए...
बरन बनाए बम्ह्न देउता ते मुख तें उपजाए,
बरन बनाए क्षत्री राजा ते भुज तें निकसाए,
बरन बनाए बनिया-बाटू ते जाँघन उपजाए,
बरन बनाए सूद्र सेवका ते चरननि निकसाए,
कहाँ गई तेरी भग और लिंगी वातें नईं उपजाए?
मनुआँ तेंनें बरन बनाए...’’
‘‘बढ़िया...बहोत् बढ़िया! बहोत्ई बढ़िया-आ!’’ अजान हँस-हँस के दोहरा हुआ जा रहा था। नेहनू आत्मविश्वास से भर उठा। उसने साधिकार कहा मनोज से, ‘‘बाबूजी! अब अपने-ऊ दो बोल है जान देउ!’’
मनोज दुविधा में पड़ गया, बोला, ‘‘मैंने तो लाइनें कभी जोड़ी नहीं...हाँ, कुछ दलित लेखकों की कविताएँ ज़रूर पढ़ी हैं, देखो, कोशिश करता हूँ...शायद, कुछ याद आ जाए!’’ कहकर वह ध्यानमग्न हो गया। बग़िया पक्षियों की मीठी बोलियों से गूँज रही थी। थोड़ी देर में मनोज ने कविता सुनाई,
‘‘क्रान्ति किसी उल्लू के पट्ठे की,
माँ, बहन या लुगाई नहीं है!
क्रान्ति...
दलितों की वह विधवा जनकिया है,
जिसका पति
तिरंगे की रखवाली में शहीद हो चुका है...।’
’कविता सुनकर अजान सिंह झम्म रह गया। लीला को लेकर उसने इस तरह कभी सोचा ही नहीं था! गंभीरता कुछ ऐसी बनी कि इसके बाद उन लोगों में बहुत कम बातचीत हुई।
अगले दिन भोज था। रात में कढ़ाई चढ़ी। बूंदी छँटी, चासनी बनी, फिर लड्डू बँधे। फिर उन्हें थाल से उठा-उठाकर कई परतों में तख़्त पर सजा दिया गया। तख़्त कोठरी के अंदर बिछाया गया था। लीला ने कहा था कि भतौर इसी में ठीक रहेगी, क्योंकि, घर-आँगन, छत-छप्पर सभी दूर मेहमानें पसरी थीं। और मढ़ा में धरा-उठाई थी। इसलिए कुठरिया ही भतौर के लिये उपयुक्त जगह मानी गई।
अजान सिंह शाम से ही भटिया के आसपास था...। रात ढाई-तीन बजे तक थक कर चूर हो गया था। ख़ुद लीला ने भी नींद से बोझिल पलकें लिये कहा उससे, ‘‘ए...अब तुमऊ झपकि लेउ नेक!’’
‘‘कहाँ-पे?’’ उसने दबे स्वर में पूछा, ‘‘इत्ती रात कहाँ खटकाऊँ जाके!’’
तब उसके दिमाग़ में कौंध हुई कि छत-छप्पर-आँगन सब दूर तो लुगाइयाँ पसरी पड़ी हैं! उसने चिरौरी की, ‘‘ए! तुम अथाईं पेई जाइ लुढ़को...।’’
‘‘जो हुकुम!’’ उसने आँखें झपकाईं। अब किसी का डर तो रह नहीं गया था। बात खूब खुल्लमखुल्ला हो गई थी। गरमियों की रातों में अथाईं कोई बुरी जगह न थी। रात ढलने के बाद तो पत्थर ठण्ड्या जाता है...और वो मस्त हवा लगती है कि अथाईं शिमला बन जाती है! वह हण्डी को धीमा करके बाहर निकल आया।
तेरवीं सोमवार को पड़ रही थी और अगला दिन मंगल इस लिहाज से खरावार था। कयास् लगाया गया कि कोई भी मेहमान रात में रुक कर खरेवार को रवानगी डालने का जोख़िम नहीं उठाना चाहेगा...। यही सोचकर भट्टी सुबह सात बजे से ही सुलगने लगी थी। मेहमानें जिस वक़्त फ़राग़त वग़ैरा से निबट रही थीं, मरदों ने सब्जी काटना शुरू कर दी थी। कद्दू चीर दिया गया। हरी अमियाँ छीलकर काट ली गईं। आलू उबाल लिये गए। फिर उधर आलू छिलने लगे, इधर कद्दू छोंक दिया गया। हलवाई सिर्फ लड्डुओं के लिये लगाया गया था। साग-तरकारी और पूरियाँ निकालने का जिम्मा टूला के मरदों का था, जिनमें मेहमान भी आ मिले थे और सारा काम हाथोंहाथ ऐसे उठा लिया गया, जैसे, इंद्र के प्रकोप से बचने के लिये ब्रजवासियों ने कृष्ण के संग मिलकर गोवर्धन पर्वत उठाया होगा! जब तक सब्जियाँ खदकीं और महकीं, मरदों की टोली ने दो ख़ेमों में बँटकर आटा माँड़ लिया और कुएँ से दो ड्रम पानी के भर लिये। अजान सिंह बड़े विस्मय से उनका संगठन देख रहा था। हालांकि उसे कुछ ज़्यादा नहीं उठाना-धरना पड़ रहा था, किंतु वह लगातार उपस्थित था, क्योंकि लीला ने पहले ही कह रखा था कि ‘तिहारेई बल पे जि कारज करि पाऊँगी-मैं!’ सो, अब चाहे गाँव नाम धरे, चाहे परमात्मा स्वर्ग से ढकेल दे! अजान सिंह तो डटा रहेगा...। मोहब्बत का जादू जिसके भी सिर चढ़कर बोलता है, ऐसे ही बोलता है!
औरतें जाजम पर बैठी पूरियाँ बेल रही थीं और मर्द लोइयाँ बनाते, कढ़ाई से गर्मागर्म पूड़ियाँ निकाल-निकाल कर बड़े-बड़े टोकरों में भरते भतौर में धरते जा रहे थे। ...सब्जियाँ दो अलग-अलग टंकियों में भर के रख दी गई थीं। सब ओर उत्साहजनक भगदड़ मची थी। आज कुछ ऐसा महसूस नहीं हो रहा था किसी को, कि कोई ग़म है! औरतें अजान से हँस-हँस के बतिया रही थीं। हल्का-फुल्का मज़ाक भी चल जाता। लीला भी बार-बार उसी से सलाह-मशविरा करती...।
और वो चाहे गली में हो, छप्पर में या आँगन में, लीला उसके पास आकर खुसुर-पुसुर कर उठती थी। अलबत्ता, उसका गला बैठ गया था, सो कभी इशारे से गली और कभी द्वार से भीतर बुला ले जाती...कभी आँगन से कोठरी में! क्योंकि, हरेक बड़े कारज में उनके यहाँ ‘जेमा’ का रिवाज था। शादी हो या तेरवीं रिश्तेदार बढ़-चढ़कर ‘जेमा’ करते हैं। साले, बहनोई, मामा, फूफा इत्यादि तो हर हाल में ‘जेमा’ करते हैं। ‘जेमा’ के रूप में सामथ्र्य भर रकम मेजबान को भेंट की जाती है। इस प्रकार आड़े वक़्त में कारज वाले की भरपूर मदद हो जाती है। इस व्यवहार यानी लेन-देन के दम पर ग़रीब से ग़रीब आदमी भी अपना कारज बड़ी सहूलियत से निबटा लेता है। लीला ‘जेमा’ की रकम बार-बार अजान सिंह को बुलाकर सौंप रही थी और अपने बैठे गले से बमुश्किल बता पा रही थी कि ‘जे पान्सो बिलाए वारे फूपा के हैं...जे दोसै नरबर वारे हमाए मय्याँ ससुर के और जे हजार, बड़े जीजा के...जाई में ढाईसे छोटे जीजा के धरे हैं!’
(क्रमशः)